देश में ‘भारत’ और ‘इंडिया’ को लेकर जो विवाद और बहस छिड़ी हुई है। वह पूर्णतः निरर्थक है क्योंकि भारतवर्ष का मतलब ही इंडिया है। मगर मूल सवाल यह है कि हम यह बहस कर ही क्यों रहे हैं जबकि भारत के संविधान की शुरूआत ही ‘इंडिया दैट इज भारत’ से होती है। यदि राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने अपने भेजे गये निमन्त्रण पत्र में यह लिख दिया कि ‘प्रेसिडेंट आफ भारत’ तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। यदि विपक्षी दलों का गठबन्धन ‘इंडिया’ यह समझ रहा है कि सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा जानबूझ कर इंडिया की जगह भारत लिखवा रही है तो विपक्ष की इससे बड़ी नासमझी क्या हो सकती है। वह खुद भाजपा द्वारा तैयार विमर्श के जाल में फंस रही है। जिस मुल्क ब्रिटेन ने भारत पर दो सौ वर्षों तक राज किया खुद उसके ही तीन नाम प्रचलन में हैं-ब्रिटेन, इंग्लैंड और यूनाइटेड किंगडम। इससे क्या इंग्लैंड की प्रभुसत्ता पर कभी कोई फर्क पड़ा। लेेकिन इसके साथ यह भी न्यायोचित होता कि सरकार संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने के साथ ही इसका एजैंडा भी स्पष्ट कर देती। क्योंकि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला मौका है जब कि विशेष अधिवेशन का एजैंडा सार्वजनिक नहीं िकया गया है। ऐसी बेमतलब की बहसें छेड़कर हम स्वयं ही हंसी के पात्र बन रहे हैं। क्या हमने अपने डिफेंस मिनिस्टर का नाम रक्षामन्त्री अंग्रेजी में भी नहीं रखा? इसके साथ यह जानना भी बहुत जरूरी है कि इंडिया नाम का भी अपना उज्वल इतिहास है। ईसा से तीन शताब्दी पूर्व जब सिकन्दर ने सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के दौरान भारत पर हमला किया तो उसे बताया गया कि जिस देश में वह जा रहा है उसे इंडीका कहते हैं। ग्रीस भाषा का यह शब्द बदलते हुए इंडिया बना और सिकन्दर केवल पंजाब तक ही आ पाया और सिन्धु नदी को पार नहीं कर सका और वापस चला गया। स्वदेश पहुंचने पर उसकी मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका सेनापति रहा सेल्यूकस ने पुनः इंडीका पर हमला किया और वह चन्द्रगुप्त से परास्त होकर अफगानिस्तान व पंजाब के इलाकों में अपने सैनिक केन्द्र स्थापित करने की इजाजत लेकर अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य से करके सन्तुष्ट हो गया। पंजाब (पाकिस्तान) का स्यालकोट शहर में उसी सेल्यूकस का कभी भारत में वाणिज्य दूतावास हुआ करता था।
इंडिया से भारतवासियों को क्या परहेज हो सकता है। हमारे महान स्वतन्त्रता सेनानी पुरखे क्या इतिहास से अजान थे जो भारत के अंग्रेजी नाम इंडिया को मान्यता देकर गये। वास्तव में भारत का पूरा संविधान मूलतः अंग्रेजी में ही लिखा गया मगर देशवासियों के बीच भारत और हिन्दोस्तान नाम के प्रचलन को देखते हुए हमारे पुरखों ने हिन्दी का नाम भी संविधान में डाला। हालांकि कुछ विद्वान चाहते थे कि इंडिया से पहले भारत लिखा जाये। एेसा महान समाजवादी चिन्तक व गांधीवादी विद्वान स्व. प्रोफेसर एच.वी. कामथ का विचार था कि भारत दैट इज इंडिया लिखा जाये। मगर मजबूरी यह थी कि पूरा संविधान डा. भीमराव अम्बेडकर ने अंग्रेजी में ही लिखा था और उसमें भारत को इंडिया लिखा गया था। अतः संविधान के प्रथम अनुच्छेद को जब 18 सितम्बर, 1948 को संविधान सभा में अपनाया गया तो उसमें लिखा गया कि ‘इंडिया दैट इज भारत इज यूनियन आफ स्टेट्स’ अर्थात इंडिया जो कि भारत है राज्यों का संघ है। इसका सीधा सा मतलब है कि भारत का अंग्रेजी नाम इंडिया है। इसमें तान खड़ा करने की नौबत क्यों आनी चाहिए। संविधान सभा में प्रोफेसर कामथ अपना संशोधन लाये जो कि पारित नहीं हो सका।
अब सवाल पैदा होता है कि इंडिया को भारत कहने के लिए किसी संविधान संशोधन की जरूरत क्यों पड़े? जिसकी जो इच्छा हो और जिस भाषा में जो कहना या लिखना चाहे वह करने के लिए स्वतन्त्र होना चाहिए। क्या इंडिया कहने और भारत कहने से भारतीय संघ की भौगोलिक स्थिति पर कोई प्रभाव पड़ेगा? बिल्कुल नहीं। सभी भारतीयों को हम इंडियन भी कहते हैं। इसमें कहां कोई वाद या विचार आता है। भारत का नाम महाभारत में आता है और अन्य धर्मग्रन्थों में भी आता है। इंडिया का जिक्र विश्व इतिहास में आता है। यहां तक हिन्दोस्तान का नाम भी भारत को सबसे पहले ईरान के शहंशाह दारा ने ही ईसा से कई शताब्दी पूर्व दिया। जब वर्ष 2015 में स्वयं भाजपा की केन्द्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय में हल्फनामा देकर यह कह चुकी है कि भारत की परिस्थितियों में संविधान सभा के भीतर इंडिया व भारत के मुद्दे पर चली बहस के बाद अभी तक कोई परिवर्तन नहीं आया है । संविधान सभा में देश के नामकरण के विषय पर घनघोर बहस हुई थी। उसके बाद ही अनुच्छेद को सर्वानुमति से स्वीकृति दी गई। इसी शपथ पत्र में यह भी कहा गया था कि मूलतः अंग्रेजी में लिखे गये संविधान में भारत का उल्लेख कहीं नहीं किया गया था। यह संविधान सभा ही थी जिसने भारत, भारतवर्ष व भारतभूमि जैसे शब्दों को दिया। यह हल्फनामा उस याचिका के जवाब में दिया गया था जो इंडिया की जगह केवल भारत नाम ही रखने के बारे में दाखिल की गई थी। अतः स्पष्ट है कि इंडिया भी उतना ही स्वीकार्य नाम है जितना कि भारत। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका ही खारिज कर दी थी लेकिन राज्य स्तर पर भी एेसे निर्थक विवाद उठते रहे हैं।
स्व. मुलायम सिंह यादव जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री थे तो 2004 में विधानसभा में यह प्रस्ताव लाये कि ‘इंडिया दैट इज भारत को पलट कर भारत दैट इज इंडिया’ किया जाना चाहिए। विधानसभा में यह प्रस्ताव भाजपा सदस्यों द्वारा वाकआऊट किये जाने के बीच स्वीकृत हुआ। जाहिर है कि देश के नाम बदलने का अधिकार किसी राज्य विधानसभा के अधिकारों से बहुत ऊपर है। बड़ी ही सीधी बात है कि यदि भारत नाम काे प्रचारित करना है तो सरकार एक संकल्प संसद में पारित करा सकती है कि इंडिया की जगह ज्यादा से ज्यादा भारत का नाम प्रयोग में लाने की कोशिश करनी चाहिए। मगर इसका मतलब यह भी नहीं है कि अंग्रेजी में हम
इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस ( आईएएस) को भारतीय एडिमिनिस्ट्रोटिव सर्विस कहना शुरू कर देंगे। अधिकारिक नाम तो आईएएस ही रहेगा। बोलचाल में
कुछ भी कह सकते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com