इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारत अब पूरी तरह चुनावी मुद्रा में आता जा रहा है और प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल इसी के अनुरूप बिछ रही चुनावी बिसात में अपनी गोटियां सजाने में लगे दिखाई पड़ने लगे हैं। सबसे पहले यदि सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी की बात की जाये तो इस पार्टी का चुनावी प्रबन्धन तन्त्र तेजी से सक्रिय होता नजर आ रहा है और इसके ऊपर के बड़े सिपाहसालार समझे जाने वाले नेताओं से लेकर नीचे तक के आम कार्यकर्ताओं ने अपने चुनावी विमर्श को जन-जन तक पहुंचाने की रणनीति तैयार कर ली है।
दूसरी तरफ विपक्षी दलों की एकजुटता की कवायदें लगातार तेज होती जा रही हैं और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के क्षेत्रीय दल प्रमुख विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के साथ एक मंच पर दिखने की कोशिशों में लगे हुए हैं। इन सभी विपक्षी दलों का राष्ट्रीय चुनावी विमर्श क्या होगा? यह तो अभी स्पष्ट नहीं है परन्तु इतना निश्चित है कि ये विभिन्न पार्टियां केवल ‘मोदी विरोध’ एजेंडा आगे रखने से बचना चाहती हैं। जाहिर तौर पर यह एजेंडा अगले वर्ष 2024 में प्रायः निश्चित लोकसभा चुनावों के लिए ही तय किया जाना है, क्योंकि विपक्ष के किसी भी एक दल में इतनी ताकत नहीं है कि वह अपने बलबूते पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी को चुनौती दे सके और प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रिय छवि में दरार डाल सके। मगर लोकसभा चुनावों से पहले पांच राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना व मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं और इनमें विपक्ष की ओर से अकेले कांग्रेस पार्टी से ही भाजपा का मुकाबला होगा, हालांकि तेलंगाना में सत्तारूढ़ विपक्षी क्षेत्रीय दल ‘भारत विकास पार्टी’ को सबसे पहले विपक्षी एकता के अन्तर्विरोध से इस प्रकार जूझना होगा कि उसे सत्ता से बेदखल करने का बीड़ा कांग्रेस पार्टी ही उठायेगी। राजस्थान, मध्य प्रदेश, मिजोरम व छत्तीसगढ़ में सीधे कांग्रेस व भाजपा में संघर्ष होगा। इनमें से राजस्थान व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी सत्तारूढ़ है अतः पुनः सत्ता में आने के लिए उसे पिछले पांच साल में उपजे सत्ता विरोधी माहौल से भी निपटना होगा।
भारतीय लोकतन्त्र की यह कोई खामी नहीं बल्कि खूबसूरती है कि इसके राज्य मूलक संघीय ढांचे में प्रत्येक राज्य के लोगों के पास अपनी राजनैतिक वरीयता तय करने की खुली छूट होती है। इससे यही सिद्ध होता है कि भौगोलिक व सामाजिक-आर्थिक रूप से विविध भारत की राजनीति भी पूर्णतः विविधता पूर्ण है। इससे इस देश की एकता का धागा और मजबूत ही होता है क्योंकि एक देश भारत के नागरिक होने के बावजूद प्रत्येक क्षेत्र या प्रदेश के नागरिक को यह अधिकार है कि वह स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप अपने प्रतिनिधियों को चुन कर ऊंचे प्रान्तीय सदन में भेजे। जहां तक पांच राज्यों में दिसम्बर महीने तक होने वाले विधानसभा चुनावों का प्रश्न है तो राजस्थान की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस को अपने भीतर के सांगठनिक विरोधाभासों से इस तरह जूझना पड़ रहा है कि इस पार्टी के एक महत्वपूर्ण नेता श्री सचिन पायलट मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलौत से सीधे आंखें मिलाकर बात नहीं कर रहे हैं परन्तु अपनी पार्टी के आलाकमान के तेवरों को देखते हुए उन्होंने अब अपना रुख नरम कर लिया है और साफ कर दिया है कि उनकी लड़ाई नेतृत्व परिवर्तन की जगह भ्रष्टाचार के विरुद्ध है। वैसे सचिन बाबू को लेकर मीडिया में अफवाहों का जोर बेवजह ही कुछ ज्यादा रहता है जबकि हकीकत यही है कि वह आलाकमान के कब्जे से बाहर नहीं हैं। मध्य प्रदेश में स्थितियां पूरी तरह भिन्न हैं और यहां कांग्रेस के नेता व पूर्व मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ अपनी पार्टी के एकछत्र नेता हैं। उनके नेतृत्व को चुनौती देने का साहस किसी अन्य प्रादेशिक नेता में नहीं है। इसकी वजह यही है कि कमलनाथ एक राष्ट्रीय छवि के कुशल प्रशासक नेता हैं और मध्य प्रदेश के सन्दर्भ में अपनी प्रादेशिक भूमिका उन्होंने स्वयं ही तय की है। कांग्रेस आलाकमान भी उन्हें मध्य प्रदेश में भाजपा के हर एजेंडे का माकूल जवाब देने योग्य रणनीतिकार मानता है। छत्तीसगढ़ में हालांकि कुछ दिनों पहले तक राज्य के दूसरे ‘बलवान’ नेता टी.आर.एस. सिंह देव के विद्रोही तेवरों की चर्चा आम बात थी, मगर चुनावों को नजदीक आते देख उन्होंने अपने भाैहें सिकाेड़ ली हैं और मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर चलने का फैसला कर लिया है। इन दोनों राज्यों में भाजपा का संगठन भी काफी मजबूत माना जाता है।
मध्य प्रदेश में इस पार्टी के मुख्यमन्त्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव से छह महीने पहले ही लोक कल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा रखी है जिससे राज्य का चुनावी माहौल और गर्मा रहा है। इस राज्य में चुनावी लड़ाई सबसे अधिक रोचक होने वाली है क्योंकि पिछले 2018 के चुनावों में मतदाताओं ने 230 सदस्यीय विधानसभा में सर्वाधिक 114 सीटें कांग्रेस को दी थीं जबकि भाजपा के खाते में 109 सीटें आई थीं। मिजोरम का जहां तक सम्बन्ध है तो यहां क्षेत्रीय दलों की मदद से भाजपा का पलड़ा भारी है। उत्तर-पूर्व के दूसरे राज्य मणिपुर की राजनैतिक घटनाओं का असर इस राज्य की राजनीति पर पड़ सकता है।