भारत और चीन के रिश्तों के बीच सहजता लाने के प्रयास पिछले तीन दशक से चल रहे हैं और इस दौरान नई दिल्ली में बैठी हर सरकार ने एक कदम आगे बढ़ने की कोशिश की है, इसके बावजूद मंजिल पास नहीं आई है। इसकी सबसे बड़ी वजह आपसी विश्वास का वह संकट है जो 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण करने से बना था। बेशक आज की दुनिया बहुत बदल चुकी है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वे हालात नहीं हैं जो 1962 में थे मगर महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या चीन के रवैये में भी भारत को लेकर इसी के अनुसार परिवर्तन आया है? इसका उत्तर भी हमें नकारात्मक नहीं मिलता है क्योंकि चीन ने भारत के साथ आर्थिक सम्बन्ध बढ़ाने के लिए एक मजबूत मंच तैयार कर लिया है जिसमें भारत की भागीदारी भी उतनी ही मजबूत है। चीन में आज ही सम्पन्न हुआ ‘शंघाई सहयोग संगठन’ का सम्मेलन इस बात का प्रमाण है कि भारत हर उस मंच में सक्रिय भागीदारी करके चीन को सन्देश दे रहा है, जिसका सम्बन्ध एशिया समेत वृहद क्षेत्रीय सहयोग से है कि वह अपने विस्तारवादी रुख में परिवर्तन करके सौहार्द का परिचय दे।
चीन के साथ स्थायी सम्बन्धों का निर्माण तभी होगा जब दोनों देशों के बीच सीमा रेखा का हल शान्तिपूर्ण तरीके से निकल आएगा। इसका सम्बन्ध इस समूचे क्षेत्र के विकास के साथ बहुत गहरे से जुड़ा हुआ है। शंघाई सहयोग संगठन के आठ देशों भारत, रूस , चीन, पाकिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान को यदि हम लें तो यह भारतीय उपमहाद्वीप के पड़ौसी देशों का एेसा संगठन है जो इसके तार यूरोप से जोड़ता है, इसीलिए यह ‘यूरोएशिया’ की तस्वीर खींचता है। इसमें वे चार देश शामिल हैं जो कभी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे। अतः इसका स्वरूप भारत-रूस-चीन के त्रिकोण के आकार में भी देखा जा सकता है। यह त्रिकोण पूरी दुनिया में उस रक्षा कवच का आकार लेने में सक्षम है जिसकी चर्चा आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद एकल ध्रुवीय (अमेरिका) विश्व के उभरने पर होती रहती थी परन्तु इसमें पाकिस्तान के भी शामिल होने से इसकी विश्वसनीयता सन्देह के घेरे में खड़ी हो सकती है क्योंकि इसे आतंकवाद का पर्याय माना जाता है परन्तु पाकिस्तान को चीन ने जिस तरह अपनी पीठ पर बिठाया हुआ है उससे इस संगठन को विश्वसनीयता देने की जिम्मेदारी उसी पर आ पड़ती है मगर यह भी सत्य है
कि पाकिस्तान के प्रति रूस के नजरिये में परिवर्तन आया है और वह इसके साथ रक्षा सहयोग तक की सीमा में प्रवेश कर गया है। इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि रूस व चीन दोनों ही इस हकीकत को समझते हैं कि पाकिस्तान को सुधारे बिना यूरो एशिया में वे आपसी सहयोग के प्रयासों के अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यह स्थिति भारत के प्रतिकूल नहीं कही जा सकती क्योंकि भारत का अन्तिम प्रयास यही रहता है कि पड़ौसी पाकिस्तान एेसा सभ्य देश बने जिससे किसी दूसरे को खतरा न हो। जाहिर है कि पाकिस्तान को शंघाई सहयोग संगठन की सदस्यता पिछले वर्ष ही 2017 में भारत के साथ प्रदान की गई। क्या इसका अर्थ भारत और पाकिस्तान को बराबरी के दर्जे पर रखकर देखना है ? संभवतः एेसा नहीं है क्योंकि भारत की सक्रिय भागीदारी तभी संभव है जबकि पाकिस्तान की नकेल को कस दिया जाये और उसे भी इस क्षेत्र के विकास में अपना योगदान देने के िलए प्रेरित किया जाये जिससे वह आतंकवादी विध्वंसकारी रास्तों को छोड़कर शान्तिपूर्ण विकास मूलक मार्ग की तरफ बढ़े परन्तु शंघाई सहयोग का नेतृत्व चीन के हाथ में ही है और उसी की पहल पर इसका गठन हुआ है । अतः उसे ही भारत के साथ सभी विवादास्पद मुद्दों को सुलझाने की एेसी पहल करने होगी जिससे दूसरे देशों को भी सबक मिले कि वे अपने उन सभी विवादों को प्रेम व सह-अस्तित्व के आधार पर निपटायें।
चीन के साथ सीमा विवाद के चलते दोनों देशों के बीच व्यापार व वाणिज्य जमकर हो रहा है। इसी प्रकार पाकिस्तान के साथ भी सीमा पर गोलीबारी के चलते रहने के बावजूद व्यापार में कोई कमी नहीं आई है। इसका मतलब सीधा है कि हर सूरत में व्यापारिक सम्बन्धों का सुगम रहना आर्थिक भूमंडलीकरण की शर्त बन चुका है परन्तु सवाल खड़ा हो सकता है कि इस प्रकार के सम्बन्धों की नैतिकता क्या है ? नैतिकता का प्रश्न आपसी विश्वास से जुड़ा होता है और विश्वास विवादों की समाप्ति से जुड़ा होता है। जिस प्रकार चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी के जल दोहन मामलों से जुड़े विवादों पर पारदर्शी रुख अपनाने का परिचय दिया है उसका अनुपालन सीमा से जुड़े विवादों पर भी यदि किया जाता है तो दोनों देशों के बीच जो विश्वास कायम होगा वह स्थायी और भविष्य के सुखमय बनने की तरफ निर्णायक कदम होगा। सभी आठ देशों के बीच एक-दूसरे की आर्थिक क्षमताओं का लाभ तभी वितरित हो पायेगा जब स्थायी शान्ति का माहौल बनेगा। इन सभी के सामने अफगानिस्तान एेसा दुर्गम क्षेत्र है जो यूरो एशिया के समन्वित विकास प्रयासों को चुनौती दे सकता है। यहां संवैधानिक रूप से स्थापित व्यवस्था के इकबाल को ऊंचा रखने की जिम्मेदारी से कोई भी शान्तिप्रिय देश भाग नहीं सकता है। भारत का अफगानिस्तान से जो नाता है वह पाकिस्तान की हस्ती को 1947 से ही ललकारता रहा है और बताता रहा है कि मजहब की दीवारें खड़ी करके इंसानियत के खुलूस को मिटाया नहीं जा सकता।