यह बात सत्य है कि प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत ‘लीग आफ नैशन्स’ की कार्यशैली की असफलता के बाद सारे विश्व में बड़ी शिद्दत से महसूस किया गया कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति प्रसार और सुरक्षा की नीति तब ही सफल हो सकती है, जब विश्व के सारे देश अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर, सम्पूर्ण विश्व को एक ईकाई समझ कर अपनी सोच को विकसित करें।
इसके लिए सतत् प्रयास किए गए।
जो भी घोषणा पत्र इस संदर्भ में सामने आए उनमें प्रमुख
* लंदन घोषणा पत्र।
* अटलान्टिक चार्टर।
* संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र।
* मास्को घोषणा पत्र।
* तेहरान घोषणा पत्र।
* डम्बारटम ओक कांफ्रैंस।
पूर्व के घोषणापत्रों का विस्तार से विवेचन यहां सम्भव प्रतीत नहीं होता, अतः इतना ही कहना चाहूंगा कि वस्तुतः 7 अक्तूबर, 1944 को वाशिंगटन (डी.सी.) में यह निर्णय लिया गया कि संयुक्त राष्ट्र की सबसे प्रमुख ईकाई “सिक्योरिटी काउंसिल” अर्थात सुरक्षा परिषद होगी, जिसके पांच स्थायी सदस्य होंगे-
चीन, फ्रांस, सोवियत संघ (अब रूस ), ग्रेट ब्रिटेन और अमरीका। सोवियत संघ के विखंडन के बाद अब रूस सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है । प्रारम्भिक प्रारूप में सुरक्षा परिषद में ग्यारह सदस्यों का प्रावधान था, जिसमें से पांच तो स्थायी सदस्य थे और शेष छह अन्य सदस्य जनरल एसैम्बली द्वारा दो-दो वर्ष की अवधि के लिए होते थे, जो अस्थायी सदस्य कहलाते थे। इसके बाद ‘सुरक्षा परिषद’ में कुछ अपरिहार्य कारणों से संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई, जिसके फलस्वरूप 17 दिसम्बर, 1963 को एक प्रस्ताव पारित और अंगीकृत किया गया, जिसका क्रियान्वयन 31 अगस्त, 1965 को हुआ।
तब से लेकर आज तक इसके सदस्यों की संख्या बढ़ती गई लेकिन विश्व में शांति का ढिंढोरा पीटने वाली यह संस्था अपनी प्रासंगिकता खोती गई। कई दशकों से जिस तरह से संयुक्त राष्ट्र संघ ने अमेरिका के इशारे पर फैसले लिए उससे सुरक्षा परिषद का महत्व ही कम हो गया। जब भी वैश्विक शक्तियों की बात आई संयुक्त राष्ट्र संघ लाचार ही दिखाई दिया। वैश्विक शक्तियों ने दुनिया भर में विध्वंस के खेल खेले, लेकिन संस्था खामोश बनी रही। भारत कई वर्षों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो पावर के साथ स्थायी सदस्यता की मांग करता आ रहा है। कांग्रेस शासनकाल में जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी मंत्री पद पर थे तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता की मांग पुरजोर ढंग से उठाई थी। इसी क्रम में एक बार फिर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस मांग को दोहराते हुए कहा है कि अब समय आ गया है जब संयुक्त राष्ट्र के निकायों को अधिक लोकतांत्रिक और वर्तमान की वास्तविकताओं का प्रतिनिधि बनाया जाए।
राजनाथ सिंह संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना के 75 साल पूरे होने के मौके पर एक कार्यक्रम को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि अगर भारत को स्थायी सदस्य के रूप में सीट नहीं मिलती तो यह नैतिक वैधता को कमजोर करने की ओर बढ़ने जैसा है। भारत लम्बे अरसे से संयुक्त राष्ट्र में सुधार और स्थायी सदस्यों के विस्तार की मांग दोहराता आ रहा है। भारत आज दुनिया की ताकत बन चुका है। वीटो पावर भारत का हक है और भारत स्थायी सीट के लिए पूरी योग्यता रखता है। भारत का दावा इन तथ्यों पर आधारित है कि वह संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्यों में से एक है, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, सबसे अधिक आबादी वाला देश है और पांचवीं सबसे बड़ी और सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। दुनिया में हर साल सबसे ज्यादा मैडिकल और इंजीनियरिंग ग्रेजुएट भारत से ही निकलते हैं। अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत छाया पड़ा है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत दुनिया के विकासशील देशों के हितों का भी प्रतिनिधित्व करता है। समस्या यह है कि भारत तब तक स्थायी सदस्यता हासिल नहीं कर सकता जब तक सुरक्षा परिषद के पांच सदस्य सहमत न हों।
रूस, अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन भारत को स्थायी सीट देने के समर्थक हैं, लेकिन चीन उसमें बाधा खड़ी कर रहा है। चीन, पाकिस्तान, तुर्किये, उत्तर कोरिया और इटली जैसे देश भारत की उम्मीदवारी का विरोध कर रहे हैं। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रहे कोफी अन्नान ने सुरक्षा परिषद की सदस्यता बढ़ाकर 24 करने का सुुझाव दिया था, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी। सुरक्षा परिषद में वीटो पावर के बिना सदस्यता लेने का कोई मतलब नहीं होता। अगर सुरक्षा परिषद को प्रासांगिक बनाना है तो संस्था का विस्तार करना ही होगा। अन्यथा इस संस्था की कोई कीमत अब नहीं बची है।