भारत की राजनीति की सच्चाई और इसके संविधान की पवित्रता इस देश की उस समावेशी संस्कृति के सागर में डुबकी लगाकर ही समय की कसौटी पर खरी उतरी है जिसे हम ‘उत्तिष्ठ जागृतम्’ के आविर्भाव से सदैव नवीनीकृत करते रहे हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमने जो भारत बनाया उसका लक्ष्य यही था कि समय की चुनौतियों का मुकाबला करते हुए इस प्रकार आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे चलें कि आम हिन्दोस्तानी का वह आत्म गौरव वापस लाैटे जिसे अंग्रेजों ने अपने शासनकाल के दौरान पैरों तले रौंदने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी परन्तु एेसा करते समय हमने वह संविधान तैयार किया जिसमें आम आदमी के हाथ में ही अपनी चुनी हुई सरकार की सीधी जवाबदेही की बागडोर थी और उसके हर कदम की तसदीक करने का हक आम आदमी के हाथ में था। अतः यह बेवजह नहीं था कि जब 1956 के करीब प्रधानमन्त्री पं. नेहरू के दामाद फिरोज गांधी ने उनकी सरकार के वित्तमन्त्री टी.टी. कृष्णमाचारी पर संसद में आरोप लगाया कि उनकी शह पर एक उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा ने हेराफेरी करके सरकारी जीवन बीमा निगम से लगभग सवा करोड़ रु. का ऋण अपनी कम्पनी के बहुत कम मूल्य के शेयरों को गिरवी रखकर लिया है तो पं. नेहरू ने तुरन्त कार्रवाई करते हुए कृष्णमाचारी के खिलाफ न्यायविद् रहे स्व. एम.सी. चागला जांच कमीशन नियुक्त कर दिया था और इस आयोग ने केवल 22 दिन के समय के भीतर अपनी रिपोर्ट देकर कृष्णमाचारी पर शक की अंगुली उठाई थी तो पं. नेहरू ने उन्हें पद मुक्त कर दिया था।
मामला बाद में उच्च न्यायालय में गया जहां से कृष्णमाचारी बेदाग छूटे। इस मामले से स्थापित हुआ कि लोकतन्त्र को चलाने के लिए ‘लोक-लज्जा’ राजनीतिज्ञों का आभूषण होनी चाहिए जिससे जनता में उनकी साख बनी रह सके। दरअसल यह साख ही होती है जो जनता में किसी भी राजनीतिज्ञ को इज्जत बख्शती है मगर समय बदलता गया और हम आगे बढ़ते चले गये और एक समय एेसा भी आया जब हमने लोकलज्जा को अनावश्यक बन्धन समझ कर लज्जा को इस तरह त्यागा कि भ्रष्टाचार को राजनीति का अटूट अंग समझ लिया। दूसरी तरफ लोकतन्त्र को नियन्त्रित करने के लिए हमने ‘दल-बदल विरोधी’ कानून तक बना डाला और राजनैतिक दलों के अनुशासन तन्त्र को शाही फरमानों में बदल डाला जिसका सबसे बड़ा खामियाजा उसी जनता को उठाना पड़ा जो अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव अपने एक वोट के अधिकार से करती थी क्योंकि इस नई प्रणाली ने दलीय व्यवस्था में मतभिन्नता के अधिकार को पूरी तरह छीन लिया। यह नया कानून सत्ता पर काबिज होने वाली सरकारों के लिए राम बाण की तरह काम करने लगा और हमने सोच लिया कि हम राजनैतिक भ्रष्टाचार से मुक्त होने की दिशा में आगे चल पड़े हैं लेकिन इसने भ्रष्टाचार को विशाल संस्थागत स्वरूप इस प्रकार दिया कि स्वयं राजनैतिक दल ही इसके कर्ताधर्ता बन गये क्योंकि अब उन्हें किसी भी मंच पर मतभिन्नता के उग्र होने का खतरा नहीं था।
हम सार्वजनिक बैंकों की बदहाली और इनके धन को गड़प किये जाने की जिस स्थिति को हतप्रभ होकर देख रहे हैं वह इसी राजनैतिक भ्रष्टाचार का प्रमाण है। इसमें आरोप-प्रत्यारोप का कोई महत्व नहीं है क्योंकि समूची व्यवस्था को हमने लोकलज्जा विहीन बना डाला है। इसका असर जमीन पर इस तरह हो रहा है कि राजनीति से वैचारिक गांभीर्य नदारद होता जा रहा है और उसकी जगह बाजारू भाषा लेती जा रही है। राजनीतिज्ञ स्वयं ही एक-दूसरे की टोपी इस तरह उछाल रहे हैं कि मानों पूरी गगरी ही ‘जल’ की जगह कीचड़ से भर चुकी है। इस स्थिति तक हम कैसे पहुंचे इसकी असली वजह भी राजनीति में अपनी जगह सर्वाधिकार सुरक्षित करने वाला वह भ्रष्टाचार है जिसने आर्थिक उदारीकरण के दौर में स्वयं को ‘किंग मेकर’ के किरदार में ढाल लिया है। आज जन्माष्टमी है और हमें भगवान श्रीकृष्ण की महाभारत युद्ध में उस भूमिका का ध्यान रखना चाहिए जो उन्होंने इस शपथ के साथ निभाई थी कि वह युद्ध में शस्त्र नहीं उठायेंगे। समय ने कृष्ण की भूमिका में आज इस देश की जनता को डाल दिया है। उसके सामने एक नहीं बल्कि कई चुनौतियां हैं। सबसे बड़ी चुनौती आरोप-प्रत्यारोप के कारोबार के बीच सत्य को पहचानने की है। लोकतन्त्र में जनता ही श्रीकृष्ण होती है इसका प्रमाण इस देश के लोग आजादी के बाद से बार-बार देते रहे हैं। कुछ लोग समझते हैं कि उसे बहकाया जा सकता है मगर तथ्य और हकीकत व आंकड़े इसके विरुद्ध गवाही देते हैं।
2014 में जनता ने ही श्रीकृष्ण की भूमिका में आकर सत्ता पलट करते हुए श्री नरेन्द्र मोदी को अपना नायक बना दिया था किन्तु लोकतन्त्र की प्रवृत्ति स्थिर भाव में वास नहीं करती है। उसमें स्थिरता कृष्ण (जनता) ही पैदा कर सकती है। अतः स्वाभाविक है कि राजनैतिक दलों के बीच जो वाक युद्ध अपशब्दों की सीमाओं में प्रवेश कर चुका है उसमें संशोधन भी जनता ही कर सकती है। तब तक चाहे नीरव मोदी हो या विजय माल्या अथवा कोई और धन चोर, सोच सकता है कि उसने क्या कमाल किया कि उसके कारनामें पर भारत की राजनीति उबालें भर रही है कि राजनैतिक दल ही गुत्थमगुत्था हो रहे हैं मगर भारत की राजनीति इतनी कमजोर भी नहीं है कि वह कुछ घपला करने वालों को पकड़ ही न सके।