पाकिस्तान में पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान के प्रधानमन्त्री बन जाने से भारत के साथ सम्बन्धों पर तभी सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है जब नये चुने हुए शासक को वहां की फौज पूरी आजादी के साथ अपना काम करने दे और दोनों मुल्कों के बीच के उन जायज मसलों को सुलझाने मंे मदद करे जो पिछले सात दशकों से केवल विभाजन के आधार पर चले आ रहे हैं। सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि 1947 में किया गया बंटवारा आधारहीन तर्कों की वजह से इस तरह किया गया था जिससे तत्कालीन केवल एक राजनैतिक दल मुस्लिम लीग के नेताओं की निजी आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके लेकिन पाकिस्तान के लोगों ने इस हकीकत को बहुत जल्दी समझ लिया था और जब 1954 में इस देश में पूरे पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान को एक इकाई मानकर चुनाव कराये गये थे तो तीन राजनीतिक दलों को जनता का समर्थन मिला था जिनमें मुस्लिम लीग, अवामी पार्टी व रिपब्लिकन पार्टी थी परन्तु पाकिस्तान इससे पहले कि एक लोकतान्त्रिक देश की तरह अपनी अवाम का विकास कर पाता वहां 1956 में इसका नया संविधान इस्लामी नाम देकर लागू कर दिया गया और इसके बाद फौजी जनरल अयूब ने चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट करके हुकूमत को कब्जा लिया और भारत के खिलाफ जहर उगल कर इसके वजूद की शर्त को धार्मिक उन्माद में बदल डाला।
इसके बाद से पाकिस्तान लगातार भारत विरोध पर ही अपनी बुनियाद बनाता रहा और इस क्रम में उसने हमसे दो युद्ध भी कर डाले, जिनमें उसकी जबर्दस्त पराजय हुई और वह अपना एक वह हिस्सा भी खो बैठा जिसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था लेकिन इसके बावजूद उसने उस कश्मीर मसले को अपनी अवाम के सामने भारत विरोध में एकजुट होने के लिए परोसा जिसका सम्बन्ध दूर-दूर तक पाकिस्तान की कयादत से नहीं था क्योंकि यह मसला ब्रिटिश भारत की एक शाही रियासत और उसके दो स्वतन्त्र निर्मित राष्ट्रों में से किसी एक में अपना विलय करने से था। इस शाही रियासत ने अपना फैसला भारत के हक में किया जिससे इस रियासत की महाराजा हरिसिंह की प्रजा का भविष्य तय हो गया और पाकिस्तान का इस पर दावा पूरी तरह खारिज हो गया। अतः पाकिस्तान की हुकूमत को यह समझ लेना चाहिए कि कश्मीर के जिस इलाके पर भी उसका कब्जा है वहां पाकिस्तान की हैसियत एक आक्रमणकारी की है, इस हकीकत को किसी भी एेतिहासिक दस्तावेज से नहीं बदला सकता है क्योंकि इस सन्दर्भ में सारे कानूनी नुक्ते पाकिस्तान के खिलाफ हैं मगर पिछले दिनों पाकिस्तान में हुए राष्ट्रीय चुनावों में इमरान खान की तहरीके इंसाफ पार्टी ने भारत के विरोध में दुष्प्रचार करके और अपने मुल्क में मौजूद आतंकवादी संगठनों की हिमायत पाकर जीत हासिल की।
पर्दे के पीछे से पाकिस्तानी फौज ने उनकी पार्टी की पूरी मदद की और उनकी मुखालिफ सियासी पार्टियों में दहशत तक का माहौल भी बनाया और इनके नेताओं को फर्जी मुकदमों तक में फंसा कर तहरीके इंसाफ पार्टी के लिए रास्ता साफ किया। जाहिर है कि ये सभी काम फौज ने इमरान को अपने हाथ की कठपुतली बनाने के लिए किये जिससे लोकतान्त्रिक सरकार के नाम पर इस मुल्क में फौजी हुकूमत बदस्तूर जारी रखी जा सके और विदेश व रक्षा मन्त्रालयों में चुनी हुई सरकार की कोई दखलन्दाजी न हो सके मगर इमरान खान ने कुर्सी पर बैठते ही अपने शपथ ग्रहण समारोह में जिस प्रकार कम खर्ची (मितव्ययिता) को अपनी सरकार का मन्त्र बनाया उससे साफ जाहिर है कि पाकिस्तान भयंकर आर्थिक संकट में है और उसके खजाने खाली हुए पड़े हैं। यह देश कर्ज में इस तरह डूबा हुआ है कि इसकी सकल आय का आधे से ज्यादा हिस्सा खाली ब्याज अदायगी में ही खर्च हो जाता है और बाकी जो बचता है वह फौज हजम कर जाती है। फौज के हिसाब-किताब की जांच कराने का हक वहां की नागरिक सरकार के पास नहीं है।
अतः इमरान खान ने एेसे मुल्क की बागडोर संभाली है जो कंगाली के कगार पर खड़ा हो चुका है और फौज की जिद है कि भारत के साथ पाकिस्तान के कैसे सम्बन्ध हों, इसका फैसला उसका जनरल बाजवा ही करेगा। अतः समझा जा सकता है कि इमरान खान एेसे गेंदबाज के तौर पर ही पाकिस्तान की तरफ से खेल सकते हैं जिन्हें फौज के कहने पर ही तेज गेंद डालनी होगी और ओवर द विकेट या आफ साइड बाॅलिंग करनी होगी या बाऊंसर फेंकनी होगी। उनके शपथ ग्रहण समारोह में भारत के क्रिकेटर रहे राजनीतिज्ञ नवजोत सिंह सिद्धू के शरीक होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह व्यक्तिगत हैसियत से एक खिलाड़ी होने की वजह से पाकिस्तान गये थे। इसका दोनों देशों के दौत्य सम्बन्धों से कोई लेना-देना नहीं है। वह यदि पाक अधिकृत कश्मीर के कथित राष्ट्रपति के पास समारोह में बैठ भी गये तो इससे कश्मीर की हैसियत पर कोई अन्तर नहीं पड़ता है क्योंकि वह कश्मीर भी हमारा ही हिस्सा है। दूसरा सबसे अहम सवाल यह है कि सिद्धू इमरान खान के व्यक्तिगत मेहमान थे, पाकिस्तान के नहीं।