मॉनसून की भारी वर्षा ने यूं तो उत्तर भारत से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक काफी नुक्सान पहुंचाया है लेकिन सबसे ज्यादा पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रभावित हुआ है। जल प्रलय से हिमाचल के पुल, सड़कें, मकान एक के बाद एक ध्वस्त हो रहे हैं और पहाड़ों से आ रहा मलबा हिमाचल की जो तस्वीर बना रहा है उससे राज्य के लोगों का दर्द काफी बढ़ चुका है। राज्य का विकास थरथर कांप रहा है। लगातार हो रही मौतों से चारों तरफ क्रंदन ही क्रंदन सुनाई देता है। दरक रहे पहाड़ों को देखकर ऐसा लगता है कि अब प्रकृति के कहर को मापना मुश्किल हो चुका है। कुछ दिन पहले तक हिमाचल में पर्यटकों की भीड़ थी लेकिन राज्य में बाढ़, बादल फटने, जल धाराओं में उफान और भूस्खलन में मौतों की खबरों के बाद पर्यटकों ने दूरी बना ली है और फंसे हुए पर्यटक किसी न किसी तरह वापिस लौट रहे हैं। प्रकृति के कहर ने एक बार फिर यह साबित किया है कि मनुष्य कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए कुरदत के रौद्र के सामने उसका अस्तित्व कुछ भी नहीं है।
उत्तराखंड की केदारनाथ त्रासदी के बाद भी मनुष्य ने कुछ नहीं सीखा। सब जानते हैं कि मनुष्य ने विकास के नाम पर प्रकृति पर जो कहर ढाया था उसी का प्रतिशोध प्रकृति ले रही है। हिमाचल की पूर्व की सरकारों ने विकास के नाम पर जो कुछ भी किया उसी के चलते ही हिमाचल के खौफनाक दृश्य सामने आए। अब हालात ऐसे हैं कि जो विज्ञान राज्य के लोगों को वरदान लगता था, आज वही श्राप लगने लगा है।
हिमाचल के भौगोलिक परिदृश्य पर जब हम नजर दौड़ाते हैं तो प्राकृतिक सौंदर्य की सुंदर अनुभूति हमारे मन-मस्तिष्क को पुलकित कर देती है। हिमाचल का जब कहीं कोई जिक्र चलता है तो इसकी प्राकृतिक भौगोलिक सुंदरता का दृश्य सहज ही हमारे जहन में आ जाता है। गौरव के साथ खड़े पहाड़, निरंतर जीवन प्रवाह के साथ बहती नदियां, हरितिमा से ओत-प्रोत वन इस पहाड़ी प्रदेश को एक अलग पहचान देते हैं। वर्तमान में इंसान ने औद्योगिकीकरण और भीड़भाड़ से हटकर शांत स्थानों पर आशियाने की तलाश में पहाड़ों व वनों से छेड़छाड़ को अंजाम देना शुरू कर दिया। इस प्रक्रिया में पहाड़ियों को काटना व कुरेदना निरंतर जारी है। प्रतिबंध होने के बावजूद अवैध व अवैज्ञानिक खनन चोरी-छिपे और कहीं-कहीं तो सरेआम जारी है। घने जंगलों तक भी आज के मशीनीकरण ने अपनी पहुंच बना ली है। इसके परिणामस्वरूप पहाड़ियों को समतल बनाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है। गड्डों, नालों व प्राकृतिक प्रवाहों से छेड़छाड़ व उन्हें अवरुद्ध करने का खामियाजा व्यक्ति को बरसात के दिनों में सामान्यतः हर वर्ष ही भुगतना पड़ता है। जब प्रकृति प्रवाहों की बाधाओं को हटाने के लिए संघर्ष करती है तो वह इसके कई भयावह निशान मानवीय बस्तियों की क्षति के रूप में छोड़ जाती है। उन हालात में हमें प्रकृति के प्रति अपने दृष्टिकोण व व्यवहार को बदलने की अकल आती है। दुख यह कि यह विवेक भी कुछ वक्त के लिए ही रहता है और थोड़े ही वक्त में हम सब कुछ भुलाकर उसी पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं जहां से सीधे-सीधे प्रकृति के प्रभुत्व को चुनौती मिलती है।
हिमाचल के पर्यटक स्थलों पर, नदियों और नालों पर होटल बना दिए गए। लोगों ने नदियों को नजरंदाज कर अपनी जमीन से कहीं आगे बढ़कर नदियों के किनारे मकान बना लिए। लोगों ने सोचा कि नदियां अब उनसे काफी दूर हो गई हैं। जबकि नदियां अपना रास्ता कभी नहीं भूलतीं। जब भी बाढ़ आएगी तो नदियां अपना रास्ता खोज लेती हैं। पुराने जमाने में घर और बस्तियां नदियों से बहुत दूर थीं। नदियों काे अविरल बहने दिया जाता था। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग 12 हजार ऐसी छोटी नदियां हैं जिनके अस्तित्व पर खतरा पैदा हो चुका है। लगभग 6000 नदियां हिमालय से उतर कर आती थीं। अब उनमें से महज 500 का ही अस्तित्व बचा है। नदियों का मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया है।
हिमाचल में अब तक 4000 करोड़ का नुक्सान हो चुका है। राज्य की सड़कों, बिजली के ट्रांसफार्मरों, विद्युत उपकेन्द्रों और जल आपूर्ति परियोजनाओं को भारी नुक्सान पहुंचा है। हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविन्द्र सिंह सुक्खू ने केन्द्र से हिमाचल की बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने और हर सम्भव मदद का आग्रह किया है। राज्य सरकार इस विकट स्थिति से निपटने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रही है लेकिन जितना नुक्सान हो चुका है उसके पुनर्निर्माण और स्थिति सामान्य होने में काफी समय लग जाएगा। मंडी, धर्मशाला, चम्बा, शिमला, कुल्लू, सिरमौर, किन्नौर और लाहौल में स्थितियां बहुत विकट हो चुकी हैं। भारी वर्षा से नुक्सान तो पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड में भी हुआ है। राज्य सरकारों को इस आपदा से सबक सीखना चाहिए और उन्हें अंधाधुंध शहरीकरण की बजाय हिमालय परिस्थिति को ध्यान में रखकर विकास का मॉडल अपनाना चाहिए। हिमाचल में जहां भी सड़क बनी वहीं बाजार बन गया और जहां बाजार बना वहीं सड़क बन गई।
अब तो ऊना में भी डूबने के मंजर दिखाई दे रहे हैं और चम्बा की वादियां भी डूब रही हैं। प्रकृति के नियमों के विरुद्ध विकास का खामियाजा इंसान भुगत रहा है। केवल पर्यावरण की योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होगा। पहाड़ी राज्यों में भ्रष्टाचार मुक्त विकास की जरूरत है ताकि नवसृजन किया जा सके। प्रकृति के प्रभुत्व से कौन टकरा सकता है। राज्य सरकारों को प्रकृति के साथ तालमेल स्थापित कर आगे बढ़ना होगा ताकि भविष्य में आपदाओं से बचा जा सके।