गुजरात में धुआंधार प्रचार - Punjab Kesari
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गुजरात में धुआंधार प्रचार

गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए अब चुनाव प्रचार चरम पर पहुंचता दिखाई पड़ रहा है।

गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए अब चुनाव प्रचार चरम पर पहुंचता दिखाई पड़ रहा है। राज्य की हालांकि अभी तक दो पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी पार्टियां कांग्रेस व भाजपा ही रही हैं मगर इस बार आम आदमी पार्टी भी मैदान में उतर कर लड़ाई को त्रिकोणात्मक बनाने की फिराक में लगती है। हालांकि पिछले तीस वर्ष का राज्य का चुनावी इतिहास द्विपक्षीय आमने-सामने की लड़ाई का ही रहा है। इससे पूर्व बेशक 80 के दशक तक राज्य में लोकदल के भी एक ताकत होने की वजह से त्रिपक्षीय लड़ाई हुआ करती थी और इससे पहले भी सत्तर के दशक तक स्व. राजगोपालचारी की स्वतन्त्र पार्टी गुजरात की प्रमुख विपक्षी पार्टी हुआ करती थी। मगर धीरे-धीरे जनसंघ (भाजपा) ने अपने पैर पसारने शुरू किये और 1974 में स्वतन्त्र पार्टी का लोकदल में विलय होने के बाद इसका प्रभाव बढ़ा और 1977 में जनता पार्टी के गठन के बाद पुनः 1980 में अलग-अलग दलों का गठन हुआ तब जाकर भाजपा ने समूचे विपक्ष की जगह को हथियाने में सफलता प्राप्त की और 1995 में इसकी अपनी स्व. केशूभाई पटेल के नेतृत्व में सरकार बनी जिससे भाजपा के शंकर सिंह बघेला ने विद्रोह करके कुछ समय के लिए अपनी ढपली भी बजाई मगर पुनः श्री पटेल के नेतृत्व में ही भाजपा सरकार बनाने में सफल रही। मगर 2001 में तत्कालीन भाजपा नीत वाजपेयी सरकार के गृहमन्त्री श्री लाल कृष्ण अडवानी के लोकसभा क्षेत्र गांधीनगर की एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा के प्रत्याशी के हार जाने का खामियाजा मुख्यमन्त्री श्री केशूभाई पटेल को भुगतना पड़ा।
तब भाजपा ने दिल्ली से श्री नरेन्द्र मोदी को गुजरात का मुख्यमन्त्री बना कर भेजा और उनके नेतृत्व में 2002 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को एेतिहासिक सफलता प्राप्त हुई। उसके बाद से लगातार तीन चुनावों में भाजपा ही सत्ता में चली आ रही है। श्री मोदी 12 वर्ष  तक इस राज्य के मुख्यमन्त्री रहे। पिछले 2017 के चुनावों में भाजपा की 2002 से लेकर तब तक 182 सदस्यीय विधानसभा में सबसे कम सीटें 99 आयी और विपक्षी पार्टी कांग्रेस की सबसे ज्यादा 77 सीटें आयीं। यह मुकाबला कांटे का रहा था जिसे भाजपा बामुश्किल श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की वजह से जीतने में कामयाब रही थी। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि श्री मोदी आज भी राज्य के मतदाताओं में खासे लोकप्रिय हैं मगर चुनाव राज्य विधानसभा के लिए हो रहे हैं जिनमें विपक्षी दल राज्य के मुद्दे उठाने में मशगूल लगते हैं।
2017 से अब तक भाजपा ने राज्य में तीन मुख्यमन्त्री बदल कर प्रदेश की जनता को बेहतर प्रशासन देने की कोशिश की है मगर इस दौरान कोरोना संकट के दौरान राज्य सरकार के पूरी तरह कारगर न रह पाने की वजह से सत्ता के विरुद्ध माहौल तैयार करने में विपक्षी दल खास कर कांग्रेस जुटी हुई है जबकि आम आदमी पार्टी भी इसमें ‘आग में घी’ डालने का काम कर रही है। 2022 के वर्तमान विधानसभा चुनावों के त्रिकोणात्मक होने का लाभ कुछ राजनैतिक विश्लेषक भाजपा को देते हुए दिख रहे हैं। उनका यह अनुमान इस आधार पर टिका हुआ है कि भाजपा का पिछले चुनाव में भी मत प्रतिशत 49 के करीब था और कांग्रेस का 42 के लगभग था। अतः आम आदमी पार्टी बजाय भाजपा के कांग्रेस को ज्यादा नुकसान पहुंचायेगी। इसमें देखने वाली बात यह होगी कि लगातार 27 वर्ष से शासन कर रही भाजपा के खिलाफ आम मतदाताओं में कितना सत्ता विरोधी रोष है। क्योंकि दोनों पार्टियां कांग्रेस व आम आदमी पार्टी सत्ता विरोधी वोटों का ही बंटवारा करेंगी।
भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाना न तो कांग्रेस के बस की बात है और न आम आदमी पार्टी के। इसकी वजह यह है कि गुजरात में मतदाताओं के ध्रुवीकरण के समीकरण को बड़ा ही विकट माना जाता है। यह राज्य प्रधानमन्त्री के साथ ही गृहमन्त्री श्री अमित शाह का भी गृह राज्य है। भाजपा के दोनों बड़े नेता जिस तरह गुजरात में धुआंधार प्रचार कर रहे हैं उससे यही लगता है कि भाजपा को वापस आने में ज्यादा दिक्कत नहीं होनी चाहिए। परन्तु अपनी ‘भारत-जोड़ो’ यात्रा के बीच से ही कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी भी सोमवार को गुजरात में चुनाव प्रचार करने जा रहे हैं। एेसा माना जा रहा है कि यदि राहुल गांधी की सोमवार को नियत राजकोट व सूरत रैलियों में जनता की शिरकत उत्साहजनक रही तो उनका कार्यक्रम राज्य के अन्य स्थानों पर भी बन सकता है।
आम आदमी पार्टी के सर्वसर्वा अऱविन्द केजरीवाल भी अब गुजरात में धुआंधार रैलियां व रोड-शो करते हुए नजर आ रहे हैं। मगर केजरीवाल को दिल्ली नगर निगम के चुनावों को भी देखना है और अपनी पार्टी के वह सबसे बड़े एकमात्र स्टार प्रचारक हैं। चुनावों के सन्दर्भ में हमें यह देखना चाहिए कि इनमें किस पार्टी के तय एजेंडे पर सर्वाधिक चर्चा हो रही है। फिलहाल सब ढुलमुल नजर आ रहा है। यहां तक कि ‘मोरबी’ में पिछले दिनों हुई ‘झूला पुल दुर्घटना’ का मामला भी चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है जिसमें 135 लोगों की असमय मृत्यु हो गई थी। लेकिन चुनावों में सबसे बड़ी भूमिका मतदाताओं की होती है। ये अपना रुख कब किस तरफ कर लें कोई नहीं जान सकता क्योंकि लोकतन्त्र में मतदाता हर पार्टी की बात सुनता है मगर फैसला अपने मन का करता है। 8 दिसम्बर को जो फैसला आयेगा वह कई मायनों में महत्वपूर्ण होगा और संभवतः राष्ट्रीय राजनीति पर भी असर डालेगा क्योंकि गुजरात की महत्ता अलग मानी जाती है।

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