बाबा साहेब अम्बेडकर संविधान में चुनाव आयोग को जो दर्जा देकर गये हैं वह लोकतन्त्र के सुरक्षा अभिभावक का है क्योंकि भारत की पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए वही उपजाऊ जमीन तैयार करता है। भारत की राजनीतिक दलीय प्रशासनिक प्रणाली को चुनाव आयोग ही शुद्धता व पवित्रता प्रदान करता है और इस बात की गारंटी देता है कि सत्ता पर वही काबिज होगा जिसे मतदाता अपने वोट के अधिकार का प्रयोग करके बहुमत में लायेंगे। भारत के लोगों को वयस्क आधार पर मिला एक वोट देने का अधिकार सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक अधिकार है और इसका प्रयोग पूरी निडरता के साथ करने का वातावरण चुनाव आयोग ही बनाता है। उसकी नजर में सत्ताधारी व विपक्षी दल एक समान होते हैं अतः उसका हर निर्णय पक्षपात से ऊपर और पूरी तरह निष्पक्ष होना चाहिए। स्वतन्त्र भारत में चुनाव आयोग ने अपनी इस भूमिका का निर्वाह पूरी निष्ठा के साथ सीधे संविधान से शक्ति लेकर किया है परन्तु वर्तमान में इसकी साख में दुखदायी कमी आयी है। यह चिन्ता का विषय हो सकता है मगर निराशा का कारण नहीं हो सकता क्योंकि चुनाव आयोग की साख इसके मुख्य चुनाव आयुक्त की साख से जुड़ी होती है।
पिछले 4 जून को देश में सम्पन्न लोकसभा चुनावों के दौरान भी ऐसे कई अवसर आये जब चुनाव आयोग की भूमिका पर राजनैतिक दलों विशेषकर विपक्षी दलों ने शक की अंगुली उठाई मगर कमोबेश रूप से हम कह सकते हैं कि भारत में चुनाव शान्तिपूर्ण ढंग सम्पन्न हुए और किसी भी राज्य में ऐसे अनहोनी नहीं हुई कि चुनाव प्रणाली को लेकर संकट की घड़ी आयी हो। भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था जिन चार खम्भों पर टिकी हुई है वे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायापालिका व चुनाव आयोग हैं। इनमें से न्यायपालिका व चुनाव आयोग सरकार के अंग नहीं हैं। हमारे विद्वान दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने यह व्यवस्था इस प्रकार की कि हर हालत में भारत के मतदाताओं की इच्छा का सम्मान हो सके और भारत में हर राजनैतिक दल को सरकार में आने के बाद केवल संविधान का शासन ही स्थापित करना पड़े। यह संविधान निर्माताओं की बुद्धिमत्ता थी कि उन्होंने चुनाव आयोग को सरकार से अलग रखते हुए उसे ऐसे स्वतन्त्र संस्था का दर्जा दिया कि सत्ता पर काबिज राजनैतिक दल भी अपनी सरकार होने का रुआब उस पर न डाल सके परन्तु हम आजकल देख रहे हैं कि विपक्षी दल चुनाव आयोग पर सत्ताधारी के दबाव में होने का आरोप लगाते रहते हैं। इसके लिए केवल चुनाव आयोग को ही जिम्मेदार माना जा सकता है क्योंकि विपक्षी दल उसके कार्यकलापों के आधार पर ऐसे आरोप लगा रहे हैं।
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने हरियाणा व जम्मू-कश्मीर प्रान्त में विधानसभा चुनावों की घोषणा की। इसकी घोषणा के अनुसार जम्मू-कश्मीर में तीन चरणों व हरियाणा में एक चरण में चुनाव 1 अक्तूबर तक सम्पन्न होने थे और परिणाम 4 अक्तूबर को घोषित होने थे परन्तु अब इसने हरियाणा में 1 अक्तूबर के स्थान पर 5 अक्तूबर को चुनाव कराने का ऐलान किया है तथा चुनाव परिणाम का दिन दोनों राज्यों के लिए 8 अक्तूबर तय किया है। ऐसे उसने केन्द्र व हरियाणा में सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी के कहने पर किया है। चुनाव आगे करने की जो वजह बताई जा रही है वह तार्किक कम और राजनैतिक ज्यादा मानी जा रही है। चुनाव आयोग का कहना है कि 2 अक्तूबर को गांधी जयन्ती होने के साथ ही बिश्नोई समाज के लोगों के लिए असौज अमावस्या का दिन भी है। इस दिन को बिश्नोई समाज के लोग पर्व के रूप में मनाते हैं। बेशक बिश्नोई समाज के लोग हरियाणा से लेकर साथ लगे हुए राजस्थान में अच्छी संख्या में रहते हैं। जाहिर है भारत जैसे तीज-त्यौहार प्रधान देश में असौज अमावस्या के बारे में चुनाव आयोग को पहले से ही ज्ञान होगा। यदि यह मान भी लिया जाये कि उसकी जानकारी में यह तथ्य पहले से नहीं आया था तो तीन तारीख से पूरे देश में हिन्दुओं के नवदुर्गा ‘नौरते’ भी शुरू हो रहे हैं। पहला नवरात्रा 3 अक्तूबर काे है। इस दिन से प्रत्येक हिन्दू के घर में देवी पूजा शुरू हो जाती है।
कहने का मतलब यह है कि भारत के किसी न किसी क्षेत्र में हर सप्ताह कोई न कोई पर्व आता ही रहता है। चाहे वह एकादशी हो या अमावस्या हो। चुनाव 1 अक्तूबर की जगह आगे बढ़ाने का मुख्य सुझाव भारतीय जनता पार्टी की तरफ से ही आया था जबकि बिश्नोई महासभा ने भी ऐसा सुझाव चुनाव आयोग को दिया था। हरियाणा के एक क्षेत्रीय दल ने भी ऐसा ही सुझाव दिया था। भाजपा का तर्क था कि 1 अक्तूबर से पहले हरियाणा में एक साथ कई दिन की छुट्टी पड़ रही है जिसकी वजह से लोग छुट्टियां मनाने अन्य स्थानों पर जा सकते हैं जिसके परिणाम स्वरूप मतदान प्रतिशत घट सकता है। मगर इस बात की गारंटी कौन दे सकता है कि 5 अक्तूबर को मतदान होने पर इसका प्रतिशत बढ़ ही जायेगा क्योंकि 5 अक्तूबर के बाद भी लगातार छुट्टियां लोग शनिवार व रविवार देखकर कर सकते हैं। प्रायः चुनाव आयोग जब मतदान की तारीख घोषित कर देता है तो उनमें बदलाव नहीं करता क्योंकि तारीखें तय करने से पहले वह हर प्रमुख राजनैतिक दल के साथ विचार-विमर्श करता है और सब तरफ से निश्चिन्त हो जाने के बाद मतदान तालिका बनाता है परन्तु हरियाणा के चुनावों को लेकर चुनाव आयोग क्यों इतना विचलित हुआ, यह समझ से परे की बात है क्योंकि मतदान चार दिन आगे खिसकने से परिस्थितियों में विशेष परिवर्तन नहीं होगा।