गटर में दम तोड़ती सांसें - Punjab Kesari
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गटर में दम तोड़ती सांसें

हम चांद पर दूसरी बार कदम रखने जा रहे हैं। हमारी नजरें वीनस ग्रह और सूर्य पर भी

हम चांद पर दूसरी बार कदम रखने जा रहे हैं। हमारी नजरें वीनस ग्रह और सूर्य पर भी है। हम विश्व की पांचवीं शक्ति बन चुके हैं। भारत ने प्रौद्योगिकी में बहुत तरक्की कर ली है। आईटी सेक्टर में भारत की धाक है लेकिन देश के गटर में आज भी सांसें दम तोड़ रही हैं। आज तक हम गटर साफ करने के लिये नवीनतम प्रौद्यो​​गिकी का इस्तेमाल नहीं कर रहे। गुजरात के बडोदरा शहर में सैप्टिक टैंक की सफाई करने उतरे एक के बाद एक 7 श्रमिक दम तोड़ गये। सैप्टिक टैंक की सफाई करते श्रमिकों की मौत कोई नई घटना नहीं है लेकिन हमने पुरानी घटनाओं से कोई सबक नहीं सीखा। 
भोजन करना शरीर के लिये जरूरी है और मल का बाहर आना भी। परन्तु मल बाहर आ जाए तो वह शहर की सीवेज में सड़ता रहता है और जब सड़ांध बढ़ जाती है तो कोई सफाई कर्मी उसे साफ करने के लिये आगे आता है और फिर उसी मल में डूब कर मर जाता है। यदि जीवित बाहर आ जाये तो ईश्वर का शुक्रिया। भले ही यह खबर अखबारों की सुर्खियां बने लेकिन इन पर गंभीरता से  विचार नहीं करेंगे तो गटर में मरने वालों के आंकड़े भयानक होते जाएंगे। कुछ दिनों के अंतराल में गटर में सफाई कर्मियों की मौत की खबरें आती रही हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात और अन्य राज्यों से खबरें आती रहती हैं।
  सुरक्षा नियमों पर नजर डालें तो सफाई कर्मियों की सुविधा के लिए विभिन्न व्यवस्थाएं अनिवार्य की गई हैं। जैसे सैप्टिक टैंक की सफाई के दौरान सरकारी दल, पुलिस और प्राथमिक चिकित्सा सुविधा का नजदीक होना अनिवार्य है। मजदूर के पास गैस मॉस्क, गैस डिटेक्टर, ऑक्सीजन सिलेंडर, टॉर्च युक्त हेलमेट, कमर में बेल्ट (जिसमें रस्सी बंधी हो) और एक घुटने तक का गम बूट होना आवश्यक है। पर हम सभी ने रास्ते चलते यही देखा है कि नाली और टैंकों की सफाई करने वाले मजदूर अकेले ही होते हैं। उन्हें इतना गंदा समझा जाता है कि यदि पानी की जरूरत पड़े तो वह देने के लिए भी आसपास कोई नहीं होता। यह जितना ज्यादा सड़ता है उतना ज्यादा जहरीला होता जाता है। सीवेज टैंक में सड़ता हुआ यह मल अंदर ही अंदर मीथेन और हाइड्रोजन सल्फाइड गैस का उत्सर्जन करता है।
 टैंक के ढक्कन बंद होते हैं इसलिए इसके बाहर निकलने की गुंजाइश कम होती है। इसी तरह ऑक्सीजन के अंदर जाने की संभावना भी कम रहती है। जब मजदूर टैंक में उतरते हैं तब तक दोनों गैसें मिलकर जहर वाली हवा का निर्माण कर देती हैं। इस पर से ऑक्सीजन की कमी। एक आदमी की जान लेने के लिए काफी है। यदि समय पर सहायता न मिले तो इन गैसों के प्रभाव से केवल 8 मिनट के अंदर व्यक्ति की मौत हो जाती है। एक गैर लाभकारी संगठन प्रैक्टिस इंडिया की साल 2014 में जारी रिपोर्ट बताती है कि केवल दिल्ली में हर साल 100 सफाई कर्मी नालों और सैप्टिक टैंक में दम तोड़ देते हैं।
 साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश में करीब 1 लाख 60 हजार लोग हैं जो नालों और सैप्टिक टैंकों की सफाई का काम कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जो सरकारी आंकड़ों में दर्ज हुए जबकि लगभग इतने ही लोग ऐसे हैं जो रजिस्टर्ड नहीं हैं और आज भी हाथ से मैला उठाने का काम कर रहे हैं। केवल उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां करीब 9 हजार से ज्यादा महिलाएं घरों से मैला उठाती हैं। जबकि करीब 12 हजार पुरुष टैंकों की सफाई का काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र, बिहार जैसे भारी जनसंख्या वाले राज्यों में यह संख्या और ज्यादा है। इसलिए यहां मौत के ग्राफ में भी  तेजी आ रही है। हाथ से मैला उठाने और टैंकों की सफाई से होने वाले शारीरिक नुकसान को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है।
 1986 से बैजवाड़ा के संगठन ने प्रयास किया था कि सरकार हाथ से मैला उठाने और टैंक से गंदगी निकालने का कोई विकल्प तलाश करे। इसे प्रतिबंधित करें। सात साल बाद इस मामले की सुर्त ली गई और भारत सरकार ने ‘द एम्पलॉयमेंट ऑफ मैन्युयल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राय लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट’ बनाया। एक्ट बना पर इसे लागू कराने की जद्दोजहद अब तक जारी है। 2012 को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक 1993 वाले कानून के आधार पर पहले दो दशकों में एक भी व्यक्ति पर जुर्माना नहीं लगा था। यानि सरकार के हिसाब से न तो कोई मैला ढो रहा है। न ही टैंक में सफाई हो रही है, न ही कोई हमारे मल में डूबकर मर रहा है। भारतीय पारंपरिक व्यवस्था के अनुसार सफाई करने के लिए एक विशेष जाति को चुना गया है। 
वे गांव में मैला उठाएं या शहर में सफाई-कर्मी कहलाएं। वे यदि काम छोड़ भी दें तब भी जो ‘टैग’ लगा है वो पीछा नहीं छोड़ता। ‘कोटा’ पर गालियां देने वाले शायद इस बात से अंजान हों कि अनधिकृत रूप से ही सही पर एक विशेष जाति को इस क्षेत्र में 100 प्रतिशत कोटा दे दिया गया है। ऐसा नहीं है कि इस समस्या को टाला नहीं जा सकता। पूरी दुनिया में गटर जाम होते हैं। सीवेज साफ होते हैं, पर उनके मानक तय हैं, मजदूरों की सुरक्षा तय है। दुनिया के बाकी हिस्सों में सफाई करने वाले छोटे नहीं कहे जाते हैं। उन्हें उचित वेतन और सुरक्षा मिलती है। भारत में जिस तेजी से शहरों का विकास हो रहा है उतनी तेजी से गटर का निर्माण भी। इसे साफ करने के लिए मजदूर भी चाहिए। जो भीड़ वायरल मैसेज के चक्कर में राह चलते निहत्थे को पीट-पीटकर मार देती है। वही यदि गटर में मरते मजदूर की तरफ बढ़कर मदद का हाथ बढ़ा दे तो शायद हम इस ‘नरबलि’ के कर्ज को कुछ हद तक अदा कर पाएं। 
नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लोगों की सुरक्षा व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देश भी। इस अमानवीय त्रासदी में मरने वाले अधिकांश लोग असंगठित दैनिक मजदूर होते हैं। इस कारण इनके मरने पर न तो कहीं विरोध दर्ज होता है और न ही भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं रोकने के उपाय। यह विडंबना है कि सरकार व सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। 
सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि सीवर की सफाई के लिए केवल मशीनों का ही उपयोग किया जाना। इसके बावजूद इन सफाई कर्मचारियों को बिना किसी तकनीक यंत्र के शरीर पर सरसों को तेल लगाकर गटर में सफाई करने उतारा जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि समय बीतने के साथ-साथ वे कई तरह की बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। सरकार स्वच्छता अभियान पर करोड़ों रुपये बहा रही है। सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण की मुहिम चलाई जा रही है लेकिन गटर की सफाई करने वालों के जीवन की रक्षा के लिये कोई अभियान नहीं। जरा सोचिये कि सीवर की दर्दनाक मौतों के सिलसिले को रोकने के लिये सरकारें और स्थानीय प्रशासन कभी सोचेगा या नहीं।

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