कर्नाटक की प्रख्यात पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या किये जाने से भारत के लोकतन्त्र की उस मतभिन्नता और मतविविधता की आत्मा को मारा नहीं जा सकता है जिस पर इस देश का अस्तित्व टिका हुआ है। विरोधी मत को कुचलने का प्रयास जो लोग भी करते हैं या िजन्होंने इसकी कोशिश की है, भारत का इतिहास गवाह है कि लोगों की आवाज ने उन्हें ही कुचल डाला है। पत्रकारिता को हमने अपने लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ इसीलिए कहा, क्योंकि इसमें सत्ताधारी दल से लेकर विपक्ष तक की समालोचना करने की शक्ति समाहित होती है। यह शक्ति अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के रूप में हमें भारत का संविधान देता है। यही स्वतन्त्रता तो विभिन्न मतों और विचारधाराओं वाले दलों को लोकतन्त्र में जन्म देती है। कोई भी सत्ताधारी दल सत्ता में आने पर दूसरी विचारधारा वाले दल का मुंह बंद नहीं कर सकता आैर अपनी विचारधारा देशवासियों पर नहीं थोप सकता मगर जिस प्रकार गौरी लंकेश की हत्या की गई है वह कानून-व्यवस्था का मामला कतई नहीं है और जघन्य कांड के पीछे उन लोगों की साजिश है जो भारतीय लोकतंत्र आैर इसकी रंग-बिरंगी विविधातापूर्ण संस्कृति को एक रंग के चश्मे से देखना चाहते हैं। हो सकता है उनकी मंशा पत्रकार जगत को डराने की भी हो।
इसकी जांच तो राज्य के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को करनी होगी। गौर से देखा जाये तो गौरी लंकेश की हत्या करके उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली है, क्योंकि उनमें वह वैचारिक ताकत नहीं है जिससे वे गौरी जी के विचारों का विरोध कर पाते और सत्य की आंच को झेल पाते, क्योंिक पत्रकार केवल सच को उजागर करने की जिम्मेदारी से ही बन्धा होता है। स्वतन्त्र भारत में पं. नेहरू ने प्रैस की भूमिका यह कहकर निर्धारित कर दी थी कि पत्रकार को जरूरत पड़ने पर मेरी आलोचना करने से भी नहीं घबराना चाहिए और यदि जरूरत हो तो पूरी सरकार को भी वह कठघरे में खड़ा कर सकता है। पत्रकार आम जनता के बीच से उसके समक्ष आ रहे मसलों को ही खींच कर बाहर लाता है आैर सरकार का ध्यान उस तरफ आकृष्ट कराता है। जाहिर तौर पर ये समस्याएं सरकारी नीतियों की वजह से ही पैदा होती हैं अतः उसकी आवाज को दबाकर सरकार खुद अपना अहित ही करती है।
कोई भी सरकार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहेगी मगर वर्तमान दौर में एक नई कुरीति ने जन्म लिया है और सत्ताधारी पार्टी की नीतियों या विचारधारा से सहमत न होने वाले लोगों को देश विरोधी तक बताने की हिमाकत होने लगी है। लोकतन्त्र के लिए यह सबसे खतरनाक घंटी है, क्योंकि इस देश की जनता सत्ता का अधिकार केवल पांच साल तक ही किसी विचारधारा के लोगों को देती है, उन्हें आजीवन पट्टा लिखकर नहीं देती है। इससे भी आगे डा. राम मनोहर लोहिया जैसे राजनीितक विचारक तो इस पांच साल की अवधि तक को मानने के लिए तैयार नहीं थे और उन्हाेंने एेलान किया था कि जिन्दा कौमें कभी पांच साल तक इन्तजार नहीं करती हैं। वस्तुतः डा. लोहिया का यह उद्घोष भारत में लगातार राजनीतिक जीवन्तता बनाये रखने के लिए था और लोगों में अपने अधिकारों के प्रति सदा सचेत रहने का एेलान था मगर यह सब बिना विचार विविधता के संभव नहीं है। भारत की संस्कृति में मतभिन्नता जड़ों में समाई हुई है इसीलिए यहां चरक को ऋषि कहा गया, िजन्होंने सिद्धांत दिया था कि कर्ज लो और भी पियो, कल किसने देखा है। मगर नादान हैं वे लोग जो वक्त के भ्रम में फंसकर उस आदमी की हैसियत को भूल जाते हैं जिसके एक वोट से सरकारों का गठन होता है।
यह एक वोट का अधिकार ही हमें विचार विविधता का अधिकार भी देता है और घोषणा करता है कि संविधान की परिधि में जो भी विचार इस लोकतन्त्र में प्रसारित किया जायेगा उसका सम्मान भी होगा और संरक्षण होगा मगर देखिये कुछ लोग लोगों के खान-पान से लेकर उनके रहन-सहन को भी नियन्त्रित करना चाहते हैं और गौरी लंकेश इसी के विरुद्ध पुरजोर आवाज उठा रही थीं और समाज के दलित लोगों के साथ सदियों से किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध सरकारों को सजग कर रही थीं। यह भारत तभी सशक्त बनेगा जब समाज के सबसे पिछले पायदान पर खड़े हुए व्यक्ति की ताकत सत्ता सम्पन्न व्यक्ति को ललकारने की बनेगी। यह भारत तभी श्रेष्ठ बनेगा जब सभी विचारों का बराबर सम्मान होगा और उनमें से श्रेष्ठतम का चुनाव करने की व्यवस्था, शक्ति के रूप में राष्ट्र को दिशा देने की कूव्वत अख्तियार करेगी। गौरी लंकेश को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि पत्रकारिता में विविधता और विचार भिन्नता को मजबूती से प्रतिष्ठापित किया जाये और दिमाग का काम हाथ से लेने की प्रवृत्ति को कब्र में गाड़ा जाए। यह देश तो वह देश है जिसमें यह कहावत कही जाती है कि जब ‘तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ मगर आजकल पैदा हुए अक्ल के बादशाहों को कौन समझाए कि इस कहावत का मतलब भारत के इतिहास की संघर्ष गाथा में किस तरह बसा हुआ है।