केरल में बाढ़ व अतिवृष्टि से विस्थापित 15 लाख से अधिक लोगों की मदद के लिए संयुक्त अरब अमीरात के शासकों ने जो आर्थिक सहायता देने की पेशकश की है उसे केवल इसलिए नहीं ठुकराया जा सकता कि यह भारत की अन्दरूनी प्राकृतिक त्रासदी है जिसका निदान वह अपने बूते पर ही ढूंढेगा। इस तर्क के अनुसार केरल की समस्त जनता भारत की अपनी जनता है अतः उसके रोजगार की व्यवस्था करना भी भारत की जिम्मेदारी है परन्तु लाखों की संख्या में केरल निवासी अमीरात में रोजगार के लिए जाकर बसे हुए हैं और इस देश के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं और साथ ही भारत में रह रहे अपने परिवारों को विदेशी मुद्रा भेज कर भारत की अर्थ व्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं। मोटे आंकड़े के अनुसार करीब 25 लाख केरल वासी अमीरात में काम करते हैं। केरल में पिछले दिनों वर्षा और बाढ़ से जिस तरह के हालात बने उसने 15 लाख लोगों को बेघर कर दिया और राज्य के आधारभूत ढांचे को तहस–नहस कर डाला।
इस मानवीय त्रासदी को यदि हम राष्ट्रीय अहम से जोड़कर देखने की गलती करेंगे तो स्वयं को ही बौना बना लेंगे और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के उस विचार के विरोध में खड़े हो जायेंगे जिसका प्रतिपादन हमारी संस्कृति जोर–शोर से करती है। वास्तविकता यह है कि केरल के मुख्यमन्त्री के अनुसार कुल नुकसान 22 हजार करोड़ रु से ज्यादा का हुआ है और केन्द्र सरकार ने केरल को अभी तक केवल 500 करोड़ रु की मदद देने की घोषणा की है और मदद देने के लिए केन्द्र व राज्य सरकार के बीच औपचारिक खानापूर्ति का इतना लम्बा सिलसिला चलेगा कि पूरा साल ही गुजर जायेगा क्योंकि केन्द्र का दल राज्य में हुए नुकसान का सर्वेक्षण करेगा, उसके बाद अपनी रिपोर्ट सरकार को देगा और तब जाकर सरकार हिसाब लगायेगी कि उसे कुल कितनी और मदद देनी चाहिए।
इसके बाद तबाह हुए लोगों की जान-माल की क्षति का जायजा लिया जायेगा और उसके अनुरूप उनकी मदद की जायेगी। यह काम राज्य सरकार को ही करना होगा। मगर यह प्रक्रिया पूरी होने तक बेघर हुए लोग पूरी तरह भिखारी बनने की स्थिति में पहुंच जायेंगे। एेसी मानव त्रासदी को हम किस प्रकार स्वाभिमान के तराजू में तोल सकते हैं ? सवाल यह नहीं है कि भारत इस त्रासदी का अपने बूते पर मुकाबला करने में सक्षम है बल्कि असली सवाल यह है कि भारत एेसे दुख के समय में अकेला तो नहीं खड़ा है? संयुक्त अरब अमीरात के शाहजादे शेख मुहम्मद बिन जायेद अल नायान ने अपने देश के विकास में केरलवासियों के योगदान को देखते हुए स्वतः ही घोषणा की थी कि दुख की इस घड़ी में वह केरलवासियों की मदद के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन करेंगे। बाद में खबर आई कि 700 करोड़ रु की मदद देने की पेशकश की है मगर इस धनराशि की स्वयं ही अमीरात सरकार ने बाद में पुष्टि नहीं की लेकिन इतना निश्चित है कि यह पेशकश किसी प्रकार की कृपा की भावना से नहीं की गई बल्कि कर्त्तव्य समझकर की गई क्योंकि अमीरात सरकार ने अपने देश के विकास में केरलवासियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया। अतः इसे हमें पूरी तरह अलग दृष्टि से देखना होगा।
इसका समर्थन केरल से ही मोदी सरकार में पर्यटन राज्य मन्त्री के.जे. अलफोंस ने पुरजोर तरीके से किया है और कहा है कि इस बारे में वह अपनी ही सरकार के वरिष्ठ मन्त्रियों को समझाने का प्रयास करेंगे क्योंकि लोगों को तुरन्त आर्थिक मदद की जरूरत है, यहां तक कि अतिवृष्टि व बाढ़ के द्वारा छोड़ी गई गन्दगी को साफ करने तक के लिए भारी धन की फौरी जरूरत है। मगर इस मुद्दे पर राजनीित भी शुरू हो गई है आैर यह कहा जाने लगा है कि केरल की मार्क्सवादी सरकार और केन्द्र की भाजपा सरकार आमने-सामने आ गई हैं। यह विवाद निरर्थक है क्योंकि बेघरबार हुए केरल के नागरिक सबसे पहले भारतीय हैं उसके बाद उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता आती है। मुख्यमन्त्री पिनरायी विजयन ने तर्क दिया है कि संयुक्त अरब अमीरात को हम अन्य देशों की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं क्योंकि केरल और इस देश के बीच रिश्ते पूरी तरह अलग हैं। श्री अलफोंस ने तो यहां तक कहा है कि अगर केन्द्र की नीति विदेशी मदद लेने की नहीं है तो वह सरकार से दरख्वास्त करेंगे कि केरल की विशेष स्थिति को देखते हुए इसमें एक बार के लिए रियायत दी जाये।
दूसरा तर्क यह भी है कि यदि विदेशी मदद लेने पर प्रतिबन्ध लगा होता तो ‘प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन नियम’ में इसका जिक्र होता जो 2016 में ही लागू हुआ है। केरल के वित्तमन्त्री थामस इसाक का कहना है कि लोगों के पुनर्वास के लिए विदेशी मदद लेने पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है। वास्तव में नकद धनरािश की मदद लेना किसी भी देश के स्वाभिमान को आहत कर सकता है, अतः मदद सामग्री के रूप में लेने पर किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि रेडक्राॅस जैसे सोसाइटी की मार्फत यूरोपीय संघ ने भारत को जो 2 करोड़ रु. की मदद दी है वह स्वीकार्य है। मानवीय सेवा के लिए गठित ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मदद के हाथ को हम कैसे पीछे कर सकते हैं। ये संस्थाएं तो सामान्य समय में भी अपने सहायता कार्यक्रम चलाती रहती हैं। फिर संयुक्त अरब अमीरात तो वह देश है जिसने इस्लामी देश होते हुए वहां मन्दिर बनाने के लिए जमीन का आवंटन किया। यदि यह देश मुसीबत के समय हमारी मदद अपना कर्त्तव्य समझकर करना चाहता है तो हमें अपने देश की नीतियों के तहत उसकी मदद का इस प्रकार स्वागत करना होगा कि दोनों देशों की प्रगाढ़ता और आत्मीयता हो सके।
इस बारे में केरल और केन्द्र सरकार को आपस में विचार-विमर्श करके साझा रास्ता निकालना चाहिए न कि आरोप-प्रत्यारोप के कारोबार में उलझना चाहिए। मानवीय त्रासदी में सहयोग ही एकमात्र ऐसा मार्ग है जिससे बेघरबार हुए लोगों की मुसीबतें हम कम कर सकते हैं। हम एक तरफ आर्थिक भूमंडलीकरण के दौर में जी रहे हैं और भारत अपने विकास की शर्त जिस तरह विदेशी निवेश को बना रहा है और पिछले लगभग तीन दशकों से भारतीयों को हर सरकार समझाती आ रही है कि इस देश में रोजगार से लेकर धनधान्य की वर्षा तभी हाे सकती है जबकि विदेशी पूंजी आएगी और व्यापार बढ़ेगा तो मानवीय त्रासदी के समय यह सोचना होगा कि यह नुकसान भी उसी धरातल पर देखा जाए। इस मामले में हकीकत को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। जब आर्थिक भूमंडलीकरण में विभिन्न देश एक दूसरी की छिपी हुई आर्थिक ताकतों के बूते पर विकास करते हैं तो एक-दूसरे की मदद करना भी उनका कर्त्तव्य बन जाता है। अतः अपने ही अंतर्विरोधों में फंसने के बजाय हम नजरों के धोखे से क्यों न बचें।