प. बंगाल के पंचायत चुनाव - Punjab Kesari
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प. बंगाल के पंचायत चुनाव

प. बंगाल के पंचायत चुनावों में ममता दीदी की तृणमूल कांग्रेस की तूफानी जीत से यह सिद्ध हुआ

प. बंगाल के पंचायत चुनावों में ममता दीदी की तृणमूल कांग्रेस की तूफानी जीत से यह सिद्ध हुआ है कि जमीन पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है वहीं यह भी समस्या पैदा हुई है कि आगामी लोकसभा चुनावों में राज्य में भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर की प्रस्तावित विपक्षी एकता किस प्रकार हो पायेगी? क्योंकि कांग्रेस पार्टी व मार्क्सवादी पार्टी ने इन चुनावों में भाजपा के साथ ही तृणमूल कांग्रेस का खुलकर विरोध किया है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ये सभी पार्टियां भाजपा के खिलाफ संगठित मोर्चा बनाने की घोषणाएं कर रही हैं। प. बंगाल के त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति व जिला परिषद) में तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने 75 प्रतिशत से भी ज्यादा सीटें जीत कर यह तो सिद्ध कर दिया है कि यदि कांग्रेस व मार्क्सवादी पार्टी भी भाजपा के साथ ही उसके खिलाफ चुनाव लड़ती हैं तो इसका लाभ अन्ततः उसे ही मिलेगा और भाजपा के वोटों में कमी आयेगी। ग्राम पंचायत की कुल 63229 सीटों में से जिनके चुनाव परिणाम घोषित हुए उनमें 34,901 सीटें तृणमूल कांग्रेस के खाते में गईं जबकि भाजपा को 9,719 सीटें मिली व मार्क्सवादी पार्टी को 2938 और कांग्रेस को 2542 सीटें मिलीं। इस प्रकार भाजपा बहुत बड़े अन्तर के साथ दूसरे नम्बर की पार्टी रही जबकि मार्क्सवादी पार्टी व कांग्रेस तीसरे व चौथे नम्बर की पार्टी रहीं।
यही स्थिति पंचायत समिति व जिला परिषद की सीटों पर भी रही। इससे यह तो तय हुआ कि इन चुनावों में हिंसा होने का शोर मचने के बावजूद गांवों में ममता दी की पकड़ बहुत मजबूत है जबकि भाजपा अपनी पकड़ बनाने की प्रक्रिया में है। यह निश्चित रूप से शोचनीय है कि यदि ग्राम स्तर के पंचायत चुनावों में ही हिंसा होती है तो इससे राजनैतिक दलों की असलियत की पोल ही खुलती है। मगर प. बंगाल का चुनावी इतिहास बहुत दागदार भी रहा है खासकर वामपंथियों के लम्बे 37 वर्षीय शासन के दौरान। 2011 में ममता बनर्जी इसी शासन को उखाड़ कर पहली बार विधानसभा में प्रचंड बहुमत लेकर शासनारूढ़ हुई थीं मगर दुर्भाग्य से वह अपने राज्य की संस्कृति नहीं बदल सकीं और उनकी पार्टी ने भी सत्ता में बने रहने के लगभग वे ही गुर अपना लिये जो वामपंथियों के थे। बेशक तृणमूल कांग्रेस पार्टी के नेता पंचायत चुनावों के परिणामों को लोकसभा चुनावों की झांकी बता रहे हैं मगर असलियत ऐसी नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय चुनावों के मुद्दे पूरी तरह अलग हो जाते हैं। प. बंगाल के सन्दर्भ में तो यह वास्तविकता और अधिक मुखर हो जाती है क्योंकि यहां की जनता ने राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को दिशा देने के साथ ही एक से बढ़कर एक विचारक और क्रान्तिकारी नेता दिये हैं। बंगालियों को भारत का ‘दिमाग’ भी कहा जाता है। अतः राष्ट्रीय चुनावों का पंचायत चुनावों की तर्ज पर होना असंभव है। 
ममता दीदी के लिए आगामी लोकसभा चुनावी बिसात कई मायनों में आसान नहीं होगी। सबसे पहले राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें अपनी क्षेत्रीय भूमिका तय करनी होगी क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर बंगाल से बाहर उनका असर नाम मात्र का है दूसरे अपने ही राज्य में भाजपा से मुकाबला करने के लिए उन्हें ऐसी शतरंज बिछानी होगी कि हर हालत में विपक्षी मोर्चे के घटक दल ही लाभ में रहें। यह कार्य दुष्कर मालूम पड़ता है क्योंकि विगत 2019 के चुनावों में भाजपा को राज्य की कुल 42 सीटों में से 18 सीटें मिली थी और उन्हें 22 । 
लोकसभा चुनावों के लिए यदि विपक्षी एकता होती है तो ममता दीदी का अपने राज्य में संयुक्त विपक्ष का विमर्श ही आगे बढ़ाकर उसके आधार पर वोट मांगने होंगे। यह चुनाव भाजपा और विपक्ष के विमर्शों में सीधा विकल्प खोजने का चुनाव होगा। ममता दी की पार्टी हर मायने में एक क्षेत्रीय पार्टी ही है अतः इसका स्थानीय एजेंडा राष्ट्रीय चुनावों में प्रासंगिक नहीं हो सकता। इस बात को बंगाली मतदाताओं को समझाने की जरूरत नहीं है क्योंकि ममता दीदी जानती हैं कि तृणमूल कांग्रेस की प. बंगाल में आज जो ताकत है वह मूल कांग्रेस पार्टी से लेकर ही बनी है लेकिन दिक्कत यह है कि यदि वह कांग्रेस पार्टी के साथ मिल कर लोकसभा चुनाव लड़ती हैं तो उन्हें अपने वोट बैंक की परवाह करनी होगी और ऐसा करते हुए वह वामपंथियों से हाथ कभी नहीं मिला सकती हैं क्योंकि ऐसा होते ही भाजपा का पलड़ा भारी होने लगेगा। पंचायत चुनावों में भाजपा को 15 प्रतिशत के आसपास वोट मिला है। यह भाजपा के लिए दुखी होने की बात नहीं है। यदि पिछले लोकसभा चुनावों में इसे मिले वोट प्रतिशत को देखा जाये तो वह 40 प्रतिशत के करीब था जबकि तृणमूल कांग्रेस को 43 प्रतिशत मत मिले थे। ये चुनाव राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रमुख मुद्दे पर लड़े गये थे। 
आगामी लोकसभा चुनावों में मुख्य मुद्दा क्या होगा यह अभी समय के गर्भ में है परन्तु इतना निश्चित है कि यह मुद्दा पिछले चुनावों से अलग ही होगा। प. बंगाल के सन्दर्भ में यह बेधड़क होकर कहा जा सकता है कि इसके लोगों की राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका बहुत निर्णायक व महत्वपूर्ण रही है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से लेकर स्व. प्रणव मुखर्जी तक जैसे नेताओं की छाप आज भी देशवासियों पर है। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता के खिताब से सम्बोधित करने वाले सबसे पहले व्यक्ति नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ही थे। अतः पंचायत चुनावों के परिणामों को राष्ट्रीय फलक पर देखना बुद्धिमत्ता नहीं होगी। 

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