देश में खाद संकट... - Punjab Kesari
Girl in a jacket

देश में खाद संकट…

देशभर में इन दिनों डाईअमोनियन फासफेट (डीएपी) खाद का संकट गहराया हुआ है। किसान पूरे दिन लाइनों में

देशभर में इन दिनों डाईअमोनियन फासफेट (डीएपी) खाद का संकट गहराया हुआ है। किसान पूरे दिन लाइनों में खड़े रहते हैं लेकिन उनको खाद नहीं मिलती। किसान खाद को ब्लैक में खरीदने को मजबूर हैं। इस समय गेहूं और रबी फसलों की बुआई शुरू हो चुकी है। अगर समय रहते खाद न मिली तो फसलों को भारी नुक्सान हो सकता है। किसानों के पास गोबर और पारम्परिक खाद बेहद सीमित मात्रा में होती है इसलिए किसान यूरिया और डीएपी खाद पर निर्भर हैं। डीएपी खाद की ज्यादा मांग पंजाब और हरियाणा से आ रही है। बाकी राज्यों में अभी धान की फसल पूरी तरह नहीं कटी है। इसलिए मध्य नवंबर के बाद और दिसम्बर में अन्य राज्यों में भी खाद की मांग बढ़ने वाली है। किसान खाद को लेकर चिंतित हैं। खाद संकट को लेकर ​सिसायत भी शुरू हो गई है। विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि एनडीए और भाजपा शासित चुनावी राज्यों में खाद की कमी न हो इसलिए दूसरे राज्यों का हिस्सा चुनावी राज्यों में उपलब्ध करा दिया गया है इसलिए संकट बढ़ गया है।

सियासत कुछ भी बोले सच तो यह है कि संकट तो झारखंड और महाराष्ट्र में भी ​िदखाई दे रहा है। एक बात तो स्पष्ट है कि इस वर्ष 2021 की ही तरह डिमांड और सप्लाई में बड़ा अंतर है। 2021 में किसानों ने बड़ा डीएपी संकट झेला था। तब हरियाणा में कई जगह पुलिस के पहरे में खाद बांटी गई थी और कई जगह किसानों को लंबी लाइनों में लगना पड़ा था। मौजूदा खाद संकट सियासी मुद्दा भी बन चुका है। आजादी के 70 साल बाद भी हम किसानों को खाद उपलब्ध नहीं करवा पा रहे ऐसे स्वर सुनाई देने लगे हैं। खाद संकट के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो इजराइल, हमास युद्ध और इजराइल का ईरान से टकराव है। डीएपी के कच्चे माल के रूप में म्यूरेट ऑफ पोटाश का आयात जार्डन से करीब 30 प्रतिशत है। युद्ध के चलते लाल सागर संकट के कारण डीएपी का आयात प्रभावित हुआ, जिसकी वजह से उर्वरक जहाजों को केप ऑफ गुड होप के माध्यम से 6500 किलोमीटर की ज्यादा दूरी तय करनी पड़ी। इस तथ्य पर ध्यान दिया जा सकता है कि डीएपी की उपलब्धता कई भू-राजनीतिक कारकों से कुछ हद तक प्रभावित हुई है। जिसमें से एक यह भी है। उर्वरक विभाग द्वारा सितंबर-नवंबर, 2024 के दौरान डीएपी की उपलब्धता में वृद्धि करने के लिए प्रयास किए गए हैं।

भारत में हर साल लगभग 100 लाख टन डीएपी की खपत होती है। जिसका अधिकांश हिस्सा आयात से पूरा किया जाता है। इसलिए आयात प्रभावित होते ही संकट बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। डीएपी के लिए भारत की निर्भरता आयात पर बढ़ रही है। रसायन और उर्वरक मंत्रालय के मुताबिक साल 2019-2020 में हमने 48.70 लाख मीट्रिक टन डीएपी का आयात किया था जो 2023-24 में बढ़कर 55.67 लाख मीट्रिक टन हो गया। साल 2023-24 में डीएपी का घरेलू उत्पादन सिर्फ 42.93 लाख मीट्रिक टन था।

उधर, उर्वरक विभाग के मुताबिक डीएपी की कीमत सितंबर, 2023 में 589 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन से लगभग 7.30 फीसदी बढ़कर सितंबर, 2024 में 632 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन हो गई थी। हालांकि, अगर वैश्विक बाजार में डीएपी सहित पीएंडके उर्वरक की खरीद कीमत बढ़ती है तो कंपनियों की खरीद क्षमता प्रभावित नहीं होती है। दाम बढ़ने की बजाय कोविड काल से डीएपी की एमआरपी 1350 रुपये प्रति 50 किलोग्राम बैग बरकरार रखी गई है। तमाम चुनौतियों के बावजूद केंद्र सरकार ने किसानों को सस्ती दर पर उर्वरकों की उपलब्धता जारी रखते हुए कीमतों को भी स्थिर बनाए रखा है। किसानों को प्रत्येक 50 किलोग्राम डीएपी बैग के लिए 1,350 रुपये देने पड़ते हैं। कृषि के आधुनिकीकरण एवं उच्च उत्पादकता दर की जरूरत के हिसाब से डीएपी का आयात भी बढ़ता जा रहा है।

साठ के दशक में भारत भीषण अकाल की चपेट में था। तब 1965-66 में कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने देश में हरित क्रांति का आगाज किया था। उस समय का अशिक्षित किसान नई तकनीक अपनाने के लिए सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जुट गया था। देखते ही देखते भारत में अनाज उत्पादन की तस्वीर बदलने लगी लेकिन अधिक उत्पादन की चाह में किसान-रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल करने लगे। अब हालात इतने गंभीर हो गए हैं कि खेती में रसायन एवं कीटनाशकों के प्रयोग की मात्रा तय करने की चेतावनी दी जा रही है। कृषि वैज्ञानिक खेती पर इनके नुक्सानों को लेकर लगातार आगाह कर रहे हैं और प्राकृतिक खेती पर जोर दिया जा रहा है। फिलहाल युद्ध थमने के कोई आसार नहीं नजर आ रहे। ऐसे में संकट लंबा खिंच सकता है। केन्द्र सहित राज्य सरकारें किसानों को न तो पराली जलाने से रोक पाती है और न ही इसे जैविक खाद के रूप में उपयोग करवा पाती है। देशभर के खेतों से ​निकलने वाली पराली की मात्रा 70 करोड़ टन के करीब है लेकिन इसे मिट्टी में मिलाने की लागत अधिक होने से किसान झमेले में नहीं पड़ता क्योंकि उसे रासायनिक खाद सस्ती ​मिल जाती है। केन्द्र और राज्य सरकारों को अब प्राकृतिक खेती से संबंधित योजनाओं की दिशा में आगे बढ़ना होगा और किसानों को भी रासायनिक खादों के सीमित इस्तेमाल के बारे में सोचना होगा। इस समय किसान केवल उर्वरक के अत्यधिक प्रयोग को उत्पादन बढ़ाने का एकमात्र संसाधन मान बैठा है।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

5 − 2 =

Girl in a jacket
पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।