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हर नागरिक उत्पादक बने !

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार श्री वी. अनन्त नागेश्वरन के इस अभिमत से असहमत होने का कोई

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार श्री वी. अनन्त नागेश्वरन के इस अभिमत से असहमत होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है कि भारत जैसे विकासोन्मुख देश में ‘एक समान आधारभूत आय’ व्यवस्था स्थापित करने की जरूरत नहीं है। समाज के आर्थिक रूप से विपन्न तबकों के लिए न्यूनतम आय की सीमा को यदि सीधे सरकारी मदद से पाटा जाता है तो इससे इन नागरिकों की अपनी मेहनत और लगन व श्रम के बूते पर ऊपर उठने की इच्छा ही समाप्त हो जायेगी और ये आर्थिक प्रगति करने की प्राकृतिक जीजीविषा को ही त्याग देंगे। समाज के कमजोर तबकों को लोक कल्याणकारी शासन के तहत प्रजातान्त्रिक सरकारें परोक्ष रूप से इस प्रकार मदद करती हैं कि वे अर्थव्यवस्था में अपने श्रम व फन और मेहनत का अधिकाधिक प्रयोग करके अपनी आय को अपने ही बूते पर बढ़ा सके और लगातार उत्पादकता बढ़ाने के काम में लगे रहें। यदि समाज के किसी वर्ग को ‘गैर उत्पादक’ बना दिया जाता है तो उसका नतीजा बहुत भयंकर होता है और आने वाली पीढ़ियों में भी मदद या खैरात पर जीने की आदत को बढ़ावा मिलता है।
 भारत जब आजाद हुआ था तो इसकी 90 प्रतिशत से अधिक आबादी मुफलिस और अनपढ़ थी। 95 प्रतिशत के लगभग आबादी खेती पर निर्भर थी। अन्दाजा लगाइये कि उस देश की अर्थव्यवस्था की क्या हालत होगी जिसका 1947-48 वित्त वर्ष का कुल बजट मात्र 259 करोड़ रुपए का था। माना कि उस समय भारतीय मुद्रा रुपये की ब्रिटिश मुद्रा पौंड के साथ विनिमय दर एक पौंड बराबर एक रुपये की थी मगर सरकार की राजस्व उगाही के जरिये केवल रेलवे व कृषि महसूल ही थे। कार्पोरेट या औद्योगिक राजस्व बहुत कम था। उस समय देश के नम्बर एक उद्योगपति स्व. रामकृष्ण डालमिया थे और उनका डालमिया समूह बीमा, बैंक जैसे वित्तीय क्षेत्र में सक्रिय रहते विमानन व शिपिंग से लेकर कागज से  सीमेंट तक का उत्पादन करता था। उनके बाद टाटा समूह व बिड़ला समूह आया करते थे लेकिन अर्थव्यवस्था के इस ढांचे से गुजरते हुआ यह देश पं. नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था के चक्र से गुजरा और इसने विशाल सार्वजनिक उद्योग क्षेत्र स्थापित कर ‘उप उत्पादन’ क्षेत्र में नये-नये उद्यमियों को उर्वरा जमीन उपलब्ध कराई। 
इस प्रणाली के तहत देश के नागरिकों के बीच सम्पत्ति का बंटवारा इस प्रकार हुआ कि हर दशक के बाद गरीबी की परिभाषा बदलती रही और एक नये ‘मध्य वर्ग’ का निर्माण होता चला गया। तेजी से बढ़ती आबादी के अनुपात में धरातल पर बदलते इस आर्थिक क्रम ने 1990 तक भारत को एेसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि पूरी दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियां इसे एक आकर्षक उपभोक्ता बाजार मानने लगीं क्योंकि इसमें विकसित मध्यम वर्ग की क्रय क्षमता इन कम्पनियों द्वारा उत्पादित माल को ‘पर’ लगा सकती थी। मगर इसके साथ-साथ ही भारत की सरकारें लोक कल्याण के सिद्धान्त से भी बन्धी रहीं और समाज के सबसे गरीब तबके को ऊपर उठने के लिए उन्हें अपनी नीतियों से प्रेरित भी करती रहीं। मगर यह सारा काम भारत ने प्रतिवर्ष तीन से साढे़ तीन प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर की रफ्तार के दायरे में ही किया।  अमीरी और गरीबी की खाई को पाटने के लिए ‘क्रास सब्सिडी’ स्कीम लागू की गई। इसे आम पाठक इस तरह समझे कि 1990 से पहले हवाई जहाज का जो किराया तय था उसमें गरीब नागरिकों को सस्ती दरों पर दिये जाने वाले मिट्टी के तेल की कीमत भी वसूली जाती थी। हवाई जहाज से सफर प्रायः सम्पन्न वर्ग के लोग ही करते थे अतः सरकार उनसे कुछ वसूल करके गरीबों को दे देती थी जिससे उनके घर का चूल्हा जल सके। मोटर-कारों व स्कूटर या मोटरसाइकिलों का उत्पादन नियन्त्रित रखे जाने का लक्ष्य यह था कि पैट्रोल व डीजल का आयात कम से कम करना पड़े और विदेशी मुद्रा का अधिकाधिक उपयोग घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए कच्चे माल का आयात करने के लिए हो। तब तक विदेशी मुद्रा का भाव तय करना भी सरकार के नियन्त्रण में ही था लेकिन 1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ इसे बाजार मूलक बनाने की प्रक्रिया ने सारे बन्धनों को तोड़ डाला और नागरिकों की उत्पादकता बढ़ाने को लेकर पूंजी निवेश के मन्त्र ने काम करना शुरू किया। यह मन्त्र भी भारत में कारगर हुआ और 2005 से 2015 के बीच कम से कम 27 करोड़ भारतीय गरीबी की नई सीमा रेखा से बाहर आये। 
यह सारा कमाल भारत की चालू अर्थव्यवस्था के भीतर ही हुआ। प्रति व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाकर यह उपलब्धि हासिल की गई। बेशक बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में कुछ विसंगतियां अन्तर्निहित ही होती हैं जिनका परिमार्जन सरकारों को अपनी नीतियों से समय-समय पर करना पड़ता है जिससे सम्पत्ति के बंटवारे में बहुत ज्यादा अन्तर न रह सके लेकिन किसी भी तौर पर इसका उपाय सरकार द्वारा सीधे वित्तीय मदद देकर गरीब या विभिन्न व्यक्तियों को उत्पादन मूलक अर्थव्यवस्था की शृंखला से बाहर रखने का नहीं हो सकता। भारत के आर्थिक सलाहकार श्री नागेश्वरन ने सच्ची बात कह कर चेतावनी दी है कि कोई भी देश तभी आगे बढ़ सकता है जब उस देश के नागरिकों में आगे बढ़ने की ललक या जज्बा हो। यदि नागरिकों को ही गैर उत्पादक या निकम्मा बना दिया जायेगा तो वह देश क्या खाक तरक्की करेगा? लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सरकारें कमजोर तबके के नागरिकों को विभिन्न प्रकारों या रूपों में मदद न दें अथवा उन्हें ऊपर उठने में वित्तीय सहायता न करें। यह मदद उनकी मेहनत या श्रम में ‘बोनस’ के तौर पर होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में वर्तमान केन्द्र व राज्य सरकारों की कई योजनाओं को गिनाया भी जा सकता है। अतः बहुत जरूरी है कि आर्थिक सलाहकार के विचारों पर हर राजनैतिक दल गंभीरता के साथ चिन्तन करे।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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