मुग़ल सम्राट भी दीवाने थे दिवाली के ! - Punjab Kesari
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मुग़ल सम्राट भी दीवाने थे दिवाली के !

कम ही लोगों को पता है कि मुग़ल बादशाह भी दिवाली मनाया करते थे और मुसलमान भी इस

कम ही लोगों को पता है कि मुग़ल बादशाह भी दिवाली मनाया करते थे और मुसलमान भी इस त्यौहार को पसंद करते थे। मुगल सम्राट अकबर ने आगरा में शाही दिवाली मनाने की परंपरा की शुरुआत की थी। इस परंपरा को उनके उत्तराधिकारियों ने अंग्रेजों द्वारा मुगल साम्राज्य पर कब्जा करने के बाद भी जारी रखा। मुगल बादशाह कैसे मनाते थे “जश्न-ए-चिरागां” यानी दिवाली, इसका पूरा हवाला हमें अकबर के शासन काल में 1556 से आगरा में दिवाली के जश्न से पता चलता है और बहादुर शाह जफर-2 के राज तक चलता है।

दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग की गोल मस्जिद के इमाम उमैर अहमद इल्यासी दिवाली का पैगाम-ए-मुहब्बत देते हुए कहते हैं कि मुस्लिम दिवाली को इसलिए पसंद करते हैं, क्योंकि यह रौशनी का त्यौहार है और इसके आगमन पर सर्दी दस्तक देती है। और इस शेर के साथ अपनी बात पूरी करते हैं :

“आ मिटा दें, दिलों पे जो स्याही आ गई है,

मेरी ईद तू मना ले, तेरी दिवाली मैं मनाऊं!”

मुगलों का शासन बाबर (1526) से लेकर बहादुर शाह द्वितीय (1857) तक रहा। इस दौर के तमाम इतिहासकारों और यूरोपियन ट्रेवलर्स की किताबों में और मिर्ज़ा संगी बेग ने भी किया है। शहंशाह शाहजहां तो दिवाली पर “रक्क” अर्थात डांस भी करते थे, जो कि शायद किसी को पता नहीं। उन्होंने शाहजहानाबाद बसाया था, जिसमें मुस्लिमों से अधिक हिंदू रहा करते थे और सही मानों में सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास उस में शामिल था, क्योंकि सभी आपस में मिलकर सारे त्यौहार मनाते थे।

मौलवी जकाउल्लाह ने भी लिखा है कि सभी तबकों के लोग होली, दिवाली, ईद, दशहरा, क्रिसमस, गुरु पर्व, नौरोज आदि मिल कर मनाया करते थे। सीएफ एन्ड्रयू ने भी लिखा है कि उन दिनों, हिंदू-मुसलमान धार्मिक त्यौहारों को साथ मिलकर मनाते थे और दोनों एक दूसरे के जश्न में दिल से शामिल होते थे।

दिवाली की तैयारियां लाल किले में महीनों पहले से शुरू हो जाती थीं। जहां दिल्ली से मशहूर हलवाई भाना बब्बर को बुलाया जाता था, वहीं आगरा, मथुरा, भोपाल, लखनऊ आदि से भी नामचीन हलवाई बुलवाए जाते थे। मिठाई बनाने के लिए देसी घी गांवों से लिया जाता था और महल के अंदर से लेकर बाहर और आस-पास की जगहें रौशनी कर दी जाती थी।

महल के ध्रुव पर 50 फुट ऊंचा विशाल ध्रुव दीपक लगाया जाता था, जो दिवाली वाली रात जलता था। जिसकी रोशनी लालकिले से चांदनी चौक तक जाती थी। इस दीये में 100 किलो से ज्यादा रुई, सरसों का तेल लगता था। दीये में रुई की बत्ती और तेल डालने के लिए बहुत ऊंची सीढ़ी का इस्तेमाल होता था। मुगल सम्राज्य के आखिरी बादशाह, बहादुर शाह जफर के दौर में महल में लक्ष्मी पूजा होती थी। एक समीक्षक लिखते हैं कि पूजा सामग्री चांदनी चौक के कटरा नील से हकीम मामचंद अरोड़ा के दादा की कटरा नील स्थित दुकान से ली जाती थी।

आतिशबाज़ी के लिए दिवाली के जश्न के लिए जामा मस्जिद के पीछे के इलाके पाएवालान से आती थी। शाहजहां के दौर में दिवाली की आतिशबाजी देखने के रानियां, शहजादियां, शहजादे आदि कुतुब मीनार जाते थे, इतना ज़बरदस्त सीन होता था। 1885 में प्रकाशित ‘बज्म-ए-आखिर’ में मुंशी फैजुद्दीन ने लाल-किले में मनाए जाने दिवाली के जश्न का जिक्र किया है। फैजुद्दीन ने अपनी ज़िंदगी के बहुत सारे साल ग़ालिब के रिश्तेदार, मिर्जा इलाही बख्श मारूफ के सेवक के तौर पर बिताए। उन्होंने किताब में दिवाली के जश्न को ‘पहले दीये’, ‘दूसरे दीये’ और ‘तीसरे दीये’ के तौर पर बयां किया है।

‘पहला दीया’ अर्थात् छोटी दिवाली

जिसके दौरान कोई भी महल से बाहर, या बाहर वाला महल के अंदर नहीं आ जा सकता था, क्योंकि दिवाली के अवसर पर काले जादू का डर हुआ करता था। दिवाली के दिन तंत्र साधना का जिक्र भी किया गया है। इससे बचने के लिए दिवाली के दिन किसी भी कर्मचारी को महल परिसर से बाहर जाने का इजाजत नहीं होती थी। महल में कोई भी सब्जी इस रोज नहीं मंगाई जाती थी। अगर कोई बैंगन, कद्दू, चुकंदर या गाजर खाना चाहे तो पहले उसे छीलकर तब ही इस्तेमाल किया जाता था। ऐसी मान्यता थी कि इन फल-सब्जियों के जरिए महल के हरम की औरतों पर बाहरी व्यक्ति काला जादू कर सकता है। हालांकि इन तथ्यों में कोई दम नहीं है, मगर दिल्ली में ऐसी कहानियों की भरमार है।

‘तीसरे दिये’ यानी बड़ी ​िदवाली वाले दिन बादशाह को सोने-चांदी में तोला जाता था और फिर उस सोने-चांदी को अवाम में बंटवाया जाता था। इसके अलावा एक काली भैंस, काला कंबल, मस्टर्ड ऑयल, सतनजा भी बादशाह की तरफ से बतौर सदक़ा गरीब लोगों में बांटी जाती थी।

मौलवी ज़फ़र, कि जिन्होंने दिल्ली के स्मारकों की सूचि बनाई थी, एक लेख में लिखते हैं कि बड़ी दिवाली की रात के जश्न बादशाह, महल को जगमग करने का हुक्म देते थे। खील-बताशे, छोटे-छोटे मिट्टी के घर, चीनी के खिलौने और गन्ने, दास व दासियां घर-घर देने जाते थे। बाहशाह, बहादुर शाह ज़फ़र, शहजादी की तरफ से बनाए गए छोटे-छोटे मिट्टी के घरों को खील-बताशों से भरा जाता था, फिर उनके आगे एक-एक दीया जलाया जाता था। एक रौशन चौकी भी होती थी, जिसपर वाद्य यंत्र जैसे, शहनाई, ड्रम वगैरह रखे जाते थे, जो कि जश्न शूरू होने पर बजाई जाती थी। शहनाई, ड्रम बजाने को नौबत कहते थे, जिसे शाही नौबत खाने में बजाया जाता था। महल के हर कोने में गन्ने रखे जाते थे। जिन पर नींबू बंधे रहते थे, अगली सुबह वे नौकरों में बांट दिए जाते थे। इस अवसर पर रथ बान िदवाली जश्न का विशेष भाग हुआ करता था। रथ के सांड के खुर मेंहदी से रंगे जाते थे और गले में घंटियां बांधी जाती थीं। सोने-चांदी के तारों से कढ़ाई कर बनाया गया मेज़पोश, सांड पर बादशाह के बैठने से पहले बिछाया जाता था।

इन तमाम बातों को बताने का तात्पर्य यह है कि शताब्दियों से ही हिंदू और मुसलमान ऐसे ही रहते चले आ रहे हैं जैसे, दूध और शक्कर। पुरानी दिल्ली ही नहीं बल्कि पूर्ण भारत में ही सभी धर्मों के लोग साझा विरासत और गंगा जमुनी तहज़ीब के साथ रहते चले आए हैं।

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