चुनाव : सबकी नजरों में सब चोर? - Punjab Kesari
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चुनाव : सबकी नजरों में सब चोर?

देश की कुछ विधानसभाओं, विशेष रूप में हरियाणा विधानसभा के चुनाव, केवल इन प्रदेशों के राजनैतिक भविष्य को ही तय नहीं करेंगे बल्कि भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान कालखंड की भी व्याख्या करेंगे। धीरे-धीरे चुनावी प्रत्याशियों का चयन योग्यता एवं जनसेवा की पृष्ठभूमि पर कम आधारित होता गया। चुनाव जिताने-जीतने की सामर्थ्य और साम-दाम-दण्ड-भेद में मज़बूत पकड़ चुनावी प्रत्याशियों की मुख्य योग्यताओं में शुमार हो गया।
फिलहाल ‘सभी’ की नज़रों में सभी ‘चोर’। कोई भी प्रत्याशी यह मानने को भी तैयार नहीं कि उसका प्रतिद्वंद्वी चोर नहीं है बल्कि एक राजनेता है। कोई किसी को गंभीरता से नहीं ले रहा। अनायास ही धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ याद आता है। हालांकि 98 प्रतिशत राजनेताओं या पार्टी प्रत्याशियों ने ‘धर्मवीर भारती’ या ‘अंधायुग’ का नाम भी नहीं पढ़ा-सुना होगा, फिर भी उस काव्य-नाटक की शुरुआती पंक्तियां पढ़-सुन लेनी चाहिए। इससे वोट बैंक तो नहीं बढ़ेगा, ज्ञान-बैंक में खाता अवश्य खुल जाएगा।
अंधा युग की शुरुआती पंक्तियां…
उस भविष्य में
धर्म-अर्थ हासोन्मुख होंगे
क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का।
सत्ता होगी उनकी।
जिनकी पूंजी होगी।
जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हें महत्व मिलेगा।
राजशक्तियां लोलुप होंगी,
जनता उनसे पीड़ित होकर
गहन गुफाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी।
(गहन गुफाएं वे सचमुच की या अपने कुण्ठित अंतर की)
युद्धोपरांत,
यह अंधा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियां, मनोवृत्तियां, आत्माएं सब विकृत हैं,
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में
सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का
वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त
पर शेष अधिकतर हैं अंधे
पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित
अपने अंतर की अन्धगुफाओं के वासी
यह कथा उन्हीं अंधों की है,
या कथा ज्योति की है अंधों के माध्यम से
इसी संदर्भ में इतना बताना प्रासंगिक होगा कि इसी प्रदेश व पड़ौसी पंजाब में कुछ राजनीतिज्ञों का साहित्य से निकट दूर का वास्ता रहा है। प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री भगवत दयाल शर्मा, संस्कृत के पुश्तैनी विद्वान तो थे ही, उन्होंने राजनीति शास्त्र में एमए भी किया था। मगर वह राजनीति में अपने काफी समय बाद आने वाले मुख्यमंत्री के समान ‘पीएचडी’ नहीं थे। वे कभी-कभी ‘अभिज्ञान शकुंतलम’, ‘मेघदूत’ और चाणक्य की सूक्तियां विधानसभा में या किसी जनसभा में बोल दिया करते थे। उसके बाद लिखने-पढ़ने की दुनिया का इन प्रदेशों की राजनीति से कोई लम्बा-चौड़ा रिश्ता नहीं रहा। पंजाब के एक मुख्यमंत्री गुरमुख सिंह मुसाफिर अवश्य अच्छे कवि थे और मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए भी कवि दरबारों में चले जाया करते थे।
हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को मंच पर बैठे-बैठे भी मुक्त छन्द की छोटी-छोटी कविताएं लिखने का शौक था। उन्हें इस बात का भी श्रेय था कि उन्होंने साहित्यकारों की सम्मान राशियां बढ़ा दी थी। उनसे भी पूर्व मुख्यमंत्री चौटाला ने अपने कार्यकाल में साहित्यकारों की सम्मान-सूचियां बढ़ा दी थीं और सम्मानित लेखकों को नि:शुल्क यात्राओं की सुविधाएं भी दे दी थीं। उन्होंने सूरस्मारक सीही ग्राम (फरीदाबाद) और बाबू बाल मुकुन्द गुप्त की गुडियानी स्थित हवेली को चर्चा में लाने का कार्य भी किया था। मगर इन सबके आगे पीछे हरियाणा में राजनेताओं को साहित्य एवं कला में काई लम्बा-चौड़ा सरोकार नहीं रहा था। और धीरे-धीरे बौद्धिक स्तर पर चर्चाएं हाशिए पर सरकती रहीं। एक समय में ‘कथा समय’ व सप्तसिंधु सरीखी विशुद्ध पत्रिकाएं भी छपती थीं लेकिन सत्तातंत्र के गलियारे में प्रवेश करते ही रूप, रंग और याददाश्त सब बदल जाते थे।
मगर यह संभवत: संक्रांति काल है। आने वाले समय में बदलाव भी आ सकते हैं। ज्यों-ज्यों नई पीढ़ी में जागरुकता व सक्रियता आएगी, एक बेहतर जातिवाद, परिवारवाद, धन-बल और बाहुबल लम्बी अवधि तक नहीं चल पाएगा। ज्यों-ज्यों युवा वर्ग की महत्वकांक्षाएं बल पकड़ेंगी, त्यों-त्यों बदलाव की बयार बहने की संभावनाएं उज्जवल होती जाएंगी।
समाज में अपराधवाद व हिंसक प्रवृत्तियों पर नकेल तभी कसेगी जब उपेक्षित व वंचित लोग अपना महत्व समझने लगेंगे। इसी संदर्भ में मुझे 44 वर्ष पूर्व का मुशायरा याद आ रहा है।
1990 में मैं गुड़गांव में (अब गुरुग्राम) तब भी था, तब हबीब साहब घर पर तशरीफ लाए थे। मैं इससे पहले 1988 में लाहौर में उनसे मिल चुका था। तब मैंने पहली बार उनकी एक नज़्म वहां के एक मुशायरे में सुनी थी। वही नज़्म उन्होंने लोगों की पुरज़ोर फरमाइश पर गुड़गांव में सुनाई थी। इस नज़्म की एक विशेषता यह भी थी कि हर ‘पैरे के अंत’ पर जब भी वह पहली पंक्ति दोहराते तो लोग साथ-साथ बोलते। नज़्म इस तरह से थी ः-
दीप जो सिर्फ महलात ही में जले,
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मसलहत के पले,
ऐसे दस्तूर को/सुब्हे बेनूर को
मैं नहीं मानता/मैं नहीं जानता
ऐसा ही एक बार पाक-राष्ट्रपति जनरल याह्या खान के समय में भी हुआ था। उन दिनों ‘मरी’ में एक मुशायरा आयोजित हुआ था। अध्यक्षता फैज़ अहमद फैज़ कर रहे थे। मंच पर पीछे राष्ट्रपति जनरल याह्या की तस्वीर लगी थी। हबीब के सामने एक और संकट यह था कि फैज़ साहब की सदारत वाले मुशायरे से उठकर चले जाना एक गुस्ताखी मानी जाती और दूसरा संकट यह भी था कि याह्या के चित्रों से सज्जित मंच से कविता कैसे पढ़ी जाए। उधर, पहली पंक्ति में मंत्रीगण व उच्चाधिकारी मौजूद थे। हबीब साहब ने याह्या के चित्र की ओर देखा और उधर ही इशारा करते हुए नज़्म पढ़ी। नज़्म में पूर्व राष्ट्रपति अयूब खां का भी परोक्ष जि़क्र था-
तुमसे पहले वो जो इक
शख्स यहां तख्तनशीं था !
उसको भी अपने खुदा होने
का इतना ही यकीं था !
कोई ठहरा हो जो लोगों
के मुकाबिल तो बताओ!
वो कहां हैं, जिन्हें नाज़
अपने तईं कायम था !!

– डॉ. चंद्र त्रिखा

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