चुनाव भी हमारी ताकत हैं ! - Punjab Kesari
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चुनाव भी हमारी ताकत हैं !

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मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुरेन्द्र अरोड़ा ने समय पर लोकसभा चुनाव होने का जो आश्वासन देशवासियों को दिया है उसे देखते हुए स्पष्ट है कि मतदान की प्रक्रिया अप्रैल महीने से हर हालत में शुरू हो जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान मोदी सरकार का कार्यकाल 24 मई तक है जबकि लोकसभा की अवधि 6 जून तक है। बेशक देश में राजनैतिक माहौल लगभग चुनावों का बन चुका है हालांकि पाकिस्तान से संघर्ष के चलते इसमें हल्का सा ठहराव भी आया है। इस मोर्चे पर विपक्षी दलों की तरफ से संयम बरता गया है जिसका संज्ञान लिया जाना इसलिए आवश्यक है कि विदेशी दुश्मन के खिलाफ पूरा राजनैतिक जगत एक है।

भारत की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इस पर जब भी कभी बाहर से आक्रमण या खतरा मंडराता है तो सभी दलों के नेता आन्तरिक मतभेद भूलकर एक आवाज में बोलने लगते हैं मगर इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि आन्तरिक मोर्चे पर देश की दूरगामी नीतियों को लेकर सभी एकमत हैं। अतः आन्तरिक मोर्चे पर तो राजनीति होती रहेगी और किसी भी जीवन्त लोकतन्त्र के लिए यह जरूरी भी है क्योंकि देश की जनता के समक्ष विकल्पों की कभी भी कमी नहीं रहनी चाहिए। अतः चुनावों का समय पर होना भी जरूरी है जिससे पाकिस्तान के अस्थिरता पैदा करने के मंसूबों को पूरी तरह खारिज किया जा सके और भारत हर मोर्चे पर अपनी ताकत पूरी दुनिया को दिखा सके लेकिन लोकतन्त्र में विकल्प की बहुलता ही बहुदलीय राजनैतिक लोकतन्त्र की खूबसूरती और खासियत होती है। यदि यह न होता तो गुजरे सत्तर सालों के दौरान भारत का प्रत्येक प्रमुख राजनैतिक दल किसी न किसी शक्ल में सत्ता की कुर्सी तक न पहुंचा होता और आज वह भारतीय जनता पार्टी अपने बूते पर ही केन्द्र में सरकार न बनाये बैठी होती जिसके 1952 के पहले चुनावों में सिर्फ तीन सांसद थे।

हमारे लोकतन्त्र की महानता तो यह रही कि भारत के गृहमन्त्री पद पर कम्युनिस्ट पार्टी के नेता स्व. इन्द्रजीत गुप्त तक विराजे (1996 से 98) अतः इसकी सामाजिक व भौगोलिक विविधता हमें राजनैतिक विविधता में भी साफ नजर आती है। यह विविधता ही भारत की समवेत शक्ति का दुनिया में अद्भुत प्रदर्शन करती है जिसका उदाहरण अबूधाबी में हुए इस्लामी देशों के सम्मेलन में भी हमें देखने को मिला। इसमें इस सम्मेलन की 1969 में स्थापना के बाद पहली बार भारत को बुलाया जाना इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस्लामी दुनिया को भी भारत की विविधता की समन्वित सामर्थ्य की अनुभूति हुई है। इस अनुभूति का अभिप्राय यह भी निकाला जा सकता है कि भारत धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की जमीन नहीं हो सकती। यदि हम अपने देश के इतिहास को देखें तो इस मुल्क पर 800 वर्षों तक मुस्लिम सुल्तानों या बादशाहों ने राज किया मगर किसी ने भी भारत को इस्लामी मुल्क बनाने की कोशिश नहीं कि बल्कि उल्टे उन्होंने इस मुल्क की ‘तरबियत’ में अपनी निजामत को इस तरह महफूज किया ​कि भारत की खुसूसियत पर खरोंच न आये। इसलिए इस्लामी सम्मेलन में इसे निमन्त्रित किया जाना 1969 से ही इसका हक बनता था मगर तब मजहब की बुनियाद पर तामीर हुए पाकिस्तान को लगा था कि उसके हाथ से मुसलमानों की तर्जुमानी करने का हक ही फरामोश हो जायेगा और उसका वजूद ही शक के घेरे में आ जायेगा। अतः खुद मुस्लिम देशों द्वारा भारत की विविधता का संज्ञान लिया जाना हिन्दोस्तान की अजमत का ही ‘एजाज’ है।

भारत इसी सम्मान से पूरी दुनिया में देखा जाता है, अतः इसकी सियासत भी इस हकीकत से अलग नहीं हो सकती। 1952 से लेकर अब तक जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें भी यही असलीयत दीगर तौर पर नुमाया हुई है। यदि विभिन्न राजनैतिक दलों को मिले मत प्रतिशत का बारीकी से विश्लेषण किया जाये तो यह तथ्य साफ निकल कर सामने आ जायेगा। इससे यह भी हकीकत बाहर निकल कर आ जायेगी कि विविधता और एकरूपता के हामियों की अहमियत को भारत के लोग किस वजन में तोलते हैं। अतः मौजूदा राजनैतिक माहौल में पाकिस्तान के साथ चल रही झड़पों के चुनावी मतदान में पुरअसर होने का कोई मसला नहीं है बल्कि मसला यह है कि अन्दरूनी सियासत के मसले क्या हैं और जाहिर तौर पर वे इस मुल्क की उस बेहाली के हैं जिनकी वजह से बेरोजगारों की पूरी फौज तैयार हो गई है और गांवों में मुफलिसी ने पांव पसारे हैं जबकि शहरों में बढ़ती चकाचौंध ने इन्हें डरा रखा है। इस चकाचौंध का असर किस तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चौपट कर रहा है उसके असर से ही हिन्दोस्तान के दस्तकार और फनकार लगातार मजदूर बनते जा रहे हैं या फिर शहरों में ही ई-रिक्शा चला रहे हैं।

बिना शक आज भारत के गरीबों की अपेक्षाएं बढ़ रही हैं और बदल रही हैं। इसी तराजू पर रखकर हमें आर्थिक प्रगति के ‘नगाड़ों’ के शोर के बीच गांवों से निकलने वाली ‘बांसुरी’ की तानों की ‘मिठास’ को बरकरार रखना होगा और सुनिश्चित करना होगा कि बांसुरी भी चीन से आयात होने वाला खिलौना न बन जाये। हमने वित्तीय ढांचागत बदलाव करके सरकारी बैंकों को जिस तरह निजी धन्ना सेठों की डकैती का अड्डा बना डाला है उससे आम हिन्दोस्तानी जिस दहशत में आया है उसने हमारे घरेलू बचत के स्रोत को ही सुखाना शुरू कर दिया है जबकि सरकार के लिए यह स्रोत मुल्क की तरक्की की स्कीमों का बहुत मुफीद और बड़ा जरिया होता है। भारत की तरक्की में इन सरकारी बैंकों की ही ऐतिहासिक भूमिका है जिसका पता हमें 2008-09 की विश्व आर्थिक मन्दी के दौर में पता चला था, इसलिए चुनावों की डगर किसी भी सूरत में आसान रहने वाली नहीं है और विपक्षी पार्टियों से लेकर सत्तारूढ़ दल तक को अपनी वरीयताएं स्पष्ट करनी होंगी। निजी निन्दा और आलोचनाओं को तीखे तेवर देकर मुल्क की किस्मत किसी तौर पर नहीं बदली जा सकती। पाकिस्तान से निपटने के लिए पूरा मुल्क एक मंच पर खड़ा हुआ है मगर खुद से ही निपटते हुए अपने को मजबूत बनाने के विकल्प इस देश की विविधता में ही छिपे हुए हैं। चुनाव हमें इसी का अवसर इस प्रकार देते हैं कि हम राष्ट्रीय हितों के समक्ष राजनैतिक दलों की इच्छा शक्ति को परख सकें।

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