रिजर्व बैंक ने चालू वित्तवर्ष के दौरान छठी बार अन्तबैंकिंग ऋण लेन–देन की ब्याज दरें .25 प्रतिशत बढ़ा कर संकेत दिया है कि भारत की अर्थव्यवस्था वित्तीय कारकों के दबाव में है जिसकी वजह से मुद्रास्फीति की दरें थामे रखना जरूरी होगा। यह काफी दुष्कर कार्य है क्योंकि एक तरफ विकास वृद्धि दर को कम से कम 6.5 प्रतिशत बनाए रखने के लिए वित्तीय अर्थात रोकड़ा की सुलभता की जरूरत भी है और दूसरी तरफ इसे कम से कम लागत पर सुलभ कराने की जिम्मेदारी भी है। इस नाजुक सन्तुलन को तभी बनाए रखा जा सकता है जबकि अर्थव्यवस्था में माल के उठान का माहौल बने और औद्योगिक क्षेत्र के क्षमता उपयोग में भी वृद्धि भी हो। फिलहाल इस क्षेत्र का औसत क्षमता उपयोग 70 प्रतिशत माना जा रहा है मगर इसके बावजूद महंगाई दर को नीचे रखने के प्रयास इस प्रकार किए जा रहे हैं कि यह बैंक ब्याज दरों से ऊपर न निकल सके। सरकार ने अगले वित्त वर्ष 2023-24 का जो वार्षिक बजट 45 लाख कराेड़ रुपये के लगभग का प्रस्तुत किया है उसमें उसकी सकल राजस्व व धन पावतियां केवल 23 लाख करोड़ रु. से ज्यादा की ही हैं। इस घाटे को पूरा करने के लिए वह 15 लाख करोड़ रु. के कर्ज बाजार से उठायेगी। यह कर्ज वह सरकारी बांड या प्रतिभूतियां जारी करके उठायेगी। इन प्रतिभूतियों पर सरकार को ब्याज की दरें कम से कम इतनी रखनी पड़ेंगी कि वे मुद्रास्फीति की दर से काफी ऊपर बनी रहें। इनके प्रति तभी आकर्षकता बनी रह सकती है जबकि ब्याज दरें निवेशकों को लुभाएं और वार्षिक हिसाब लगाने पर इन पर अच्छा प्रतिफल मिले। इसे देखते हुए बाजार में सोने की कीमतों को भी इस प्रकार नियन्त्रित रखना होगा कि वे भी मुद्रास्फीति की दर से ऊपर न निकल पाए, मगर डालर के लगातार महंगा होने की वजह से यह समीकरण गड़बड़ा सकता है। फिलहाल रुपये के मुकाबले डालर की विनिमय दर 82 रु. के करीब पहुंच चुकी है। इसका असर सोने की कीमतों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। अतः बहुत स्वाभाविक है कि बैंक ब्याज दरें नए वित्तीय वर्ष में भी बढ़ाने के लिए भी रिजर्व बैंक को मजबूर होना पड़े नए वित्तीय वर्ष में स्वयं सरकार ही सबसे बड़ी कर्ज उठाने वाली संस्था होगी और इसे उठाए बिना उसका कार्य नहीं चल सकता, क्योंकि उसकी विभिन्न पूंजीगत व अन्य परियोजनाओं को लागू करने के लिए यह कर्ज जरूरी होगा अतः उसे खुद ही बाजार से ऋण प्राप्त करने के लिए निवेशकों या कर्जदाताओं को लुभाने के लिए बेहतर ब्याज देने के वादे करने होंगे। इसमें सबसे बड़ी भूमिका रिजर्व बैंक ही होगी, क्योंकि मुद्रास्फीति या महंगाई को संभालने के लिए मौद्रिक उपाय करना भी उसकी जिम्मेदारी है। ऐसा लगता है कि रिजर्व बैंक ने इसकी तैयारी अभी से करनी शुरू कर दी है और बैंक रेपो रेट या अन्तबैंकिंग ब्याज दरों में वृद्धि इस क्रम में समय पूर्व तैयारी है। जाहिर है इन बढ़ी ब्याज दरों का असर जमीन पर भी पड़ेगा, और वाणिज्यिक बैंकों से विभिन्न उपभोक्ताओं को मिलने वाला ऋण भी और महंगा होगा। अपेक्षाकृत महंगा ऋण देने का उल्टा असर बैंक में जमा करने वाले को भी मिलेगा और उनकी जमा धन राशियों पर भी ब्याज दर इसी अनुपात में बढे़गी। इसका सीधा असर महंगाई या मुद्रास्फीति पर पड़ेगा। इस चक्रवृद्धि घेरे को तभी तोड़ा जा सकता है जबकि विकास वृद्धि की दर में इसे बांधे रखने की क्षमता हों। इसके लिए हमें उन आंकड़ाें की तरफ देखना होगा जो विश्व आर्थिक मंच पर आक्सफैम ने जारी किए थे और इनमें कहा गया था कि देश के पचास प्रतिशत लोगों के हिस्से में देश की केवल तीन प्रतिशत सम्पत्ति ही आती है जबकि चालीस प्रतिशत सम्पत्ति पर धनाढ्य वर्ग के एक प्रतिशत लोगों का कब्जा है। ये आंकड़े देश के सामान्य लोगों की क्रय क्षमता का अन्दाजा भर देते हैं जबकि इसके साथ ही देश की कुल जनसंख्या 140 करोड़ में से 81 कराेड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें सरकार स्वयं मुफ्त अनाज देती है। अतः अर्थ व्यवस्था में सुधार के लिए भारत का 70 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र ही मुख्य भूमिका में आने के लिए मजबूर होता है। इस क्षेत्र की रीढ़ कृषि, व्यवस्था को अधिक से अधिक मजबूत बना कर ही हम आम आदमी की क्रय क्षमता में वृद्धि कर सकते हैं।