शिक्षण संस्थान और अन्तर्राष्ट्रीय मानक - Punjab Kesari
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शिक्षण संस्थान और अन्तर्राष्ट्रीय मानक

आईआईटी मुम्बई ने क्यूएस रैंकिंग में इस बार 149वां स्थान प्राप्त किया।

आईआईटी मुम्बई ने क्यूएस रैंकिंग में इस बार 149वां स्थान प्राप्त किया। संस्थान की रैंकिंग पिछले वर्ष के मुकाबले 23 रैंक ऊपर है। आठ साल के इतिहास में यह पहली बार है जब किसी भारतीय संस्थान ने टॉप 150 विश्वविद्यालयों में जगह बनाई है। इससे पहले 2016 में 147वां रैंक प्राप्त कर इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस बैंगलुरु ने मुकाम हासिल किया था। क्यूएस रैंकिंग सूची में एमआईटी अमेरिका ने लगातार बारहवीं बार शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। इसके बाद यूके की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी है। नैशनल यूनि​वर्सिटी ऑफ सिंगापुर पिछले साल के रैंक 11 से तीन स्थान ऊपर चढ़कर चोटी के 10 विश्वविद्यालयों में शामिल होने वाला पहला एशियाई विश्वविद्यालय बन गया है। क्यूएस लिस्ट में इस बार काफी उतार-चढ़ाव दिखाई दिया है। आईआईएससी 155वें रैंक से 70 स्थान गिरकर 225वें स्थान पर आ गया है। ठीक इसी तरह आईआईटी दिल्ली 174वें स्थान से गिरकर 197वें स्थान पर आ गया है। आईआईटी मद्रास 250 से 285 पर आ गया है। जबकि आईआईटी कानपुर 264 से 278 पर आ गया है। आईआईटी मुम्बई की छलांग सराहनीय है लेकिन अन्य भारतीय संस्थान अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ते जा रहे हैं। लगभग 50 हजार से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों के साथ भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली है। उच्च शिक्षा का लगातार विस्तार भी हो रहा है लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय मानकों पर यह संस्थान काफी पीछे है।
भारत स्वयं को विश्व गुरु मानता है। भारत में ही दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय 450 ई.  में खुला था, जिसे हम नालंदा विश्वविद्यालय के नाम से जानते हैं। नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। इसकी स्थापना गुप्त काल के दौरान 5वीं सदी में कुमार गुप्त प्रथम ने की थी। देश-विदेश के छात्र यहां शिक्षा के लिए आते थे। नालंदा में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, यूनान, मंगोलिया समेत कई देशों के छात्र शिक्षा ग्रहण करते रहे हैं। आज स्थिति यह है कि विश्व गुरु भारत के छात्र शिक्षा के लिए विदेशों में भाग रहे हैं। अभिभावक भी अपने बच्चों को विदेशी विश्वविद्यालयों में शिक्षा दिलाने के इच्छुक हैं। वे बच्चों को विदेश भेजने के लिए लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं। भारत की प्रतिभाओं का लगातार पलायन हो रहा है। उच्च शिक्षा का क्षेत्र अब भी पर्याप्त फंडिंग, छात्रों को रोजगार मिलने मेें दिक्कतें, अध्यापन के निम्न स्तरीय मानक, खराब प्रबंधन और  जटिल रेगुलेटरी प्रक्रिया जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत चीन को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। इस दृष्टि से उच्च शिक्षा की मांग भी तेजी से बढ़ेगी।
भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी होने के बावजूद इसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ये चुनौतियां पठन-पाठन की गुणवत्ता, सरकारी-निजी भागीदारी, विदेशी संस्थानों का प्रवेश, रिसर्च क्षमता में वृद्धि और फंडिंग, इनोवेशन, अन्तर्राष्ट्रीयकरण, वैश्विक अर्थव्यवस्था की बदलती मांग जैसे क्षेत्रों में हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती मांग को देखते हुए बीते दो दशकों में अनेक प्रयास हुए हैं लेकिन नई चुनौतियां भी लगातार उभर रही हैं। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (एआईएसएचई) के अनुसार 18-23 आयु वर्ग में भारत का ग्रॉस एनरोलमेंट अनुपात (जीईआर) 271 फीसदी (एआईएसएचई 2019-20) है। यह 36.7 फीसदी के वैश्विक औसत से बहुत कम है। छात्र जो शिक्षा ग्रहण करते हैं और रोजगार के लिए उन्हें जिस कौशल की जरूरत होती है उनमें भी बड़ा अंतर होता है। इसकी प्रमुख वजह है उच्च शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता की कमी। इसके अलावा पाठ्यक्रम में कौशल विकास का न होना भी एक कारण है। उच्च शिक्षा संस्थान इन दिनों शिक्षकों की भीषण कमी से जूझ रहे हैं। अनुमान है कि इन संस्थानों में 30 से 40 फीसदी फैकल्टी की जगह खाली है, क्योंकि उन पदों के लिए योग्य लोग ही नहीं मिलते हैं। इससे छात्र-शिक्षक अनुपात असंतुलित हो गया है। हाल के दशकों में सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त उच्च शिक्षा संस्थानों में फंडिंग का ट्रेंड देखें तो केंद्रीय विश्वविद्यालयों को ज्यादा फंडिंग हुई है। हमें व्यवस्था को मजबूत बनाने की जरूरत है ताकि गुणवत्ता सुनिश्चित हो। इससे रोजगार पाने योग्य ग्रेजुएट की संख्या बढ़ेगी।
इस समय उच्च शिक्षा में सुधारों पर ध्यान देना होगा। छात्रों को विभिन्न तरह के कौशल विकसित करने के पर्याप्त अवसर मिलने चाहिए। हमें अलग-अलग विषयों में रिचर्स पर जोर देना होगा। 
उच्च शिक्षा और उभरते ट्रेंड के बीच तालमेल होना जरूरी है। ​यह शिक्षा ऐसी हो ​की छात्र भविष्य के जीवन के लिए  तैयार हो सकें। इसलिए  अध्यापन का कार्य भविष्य को ध्यान में रखकर हो, जिसमें छात्रों को तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य में एक ऐसे अनजाने भविष्य के लिए तैयार किया जा सके, जहां खेल के सभी नियम बदले हुए होंगे लेकिन इसके साथ हमारा पारम्परिक ज्ञान, कौशल, मूल्य और संस्कृति भी अक्षुण्ण रहे। उच्च शिक्षा को किसी नौकरी के ​लिए  डिग्री हासिल करने का माध्यम मात्र न माना जाए, बल्कि इसे व्यक्ति की पूर्ण क्षमता विकसित करने का जरिया समझा जाना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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