शिक्षक वह व्यक्ति है जो बच्चों के व्यक्तित्व का विकास कर उनमें अच्छे मूल्यों और आदर्शों को विकसित करता है। जिससे कि वो आगे चलकर देश के उत्तम नागरिक बनें। शिक्षकों के कंधों पर बहुत बड़ा दायित्व होता है। वास्तव में वे ही देश के भाग्य निर्माता होते हैं। स्कूल एक बगीचे के समान होता है और बच्चे छोटे-छोटे पौधे के समान होते हैं। शिक्षक की भूमिका एक कुशल माली के समान होती है, जिसकी जिम्मेदारी पौधों की देशभाल सावधानीपूर्वक करना, उन्हें हरा-भरा रखना तथा उन्हें विकसित करने के लिए समय-समय पर खाद-पानी देना ताकि वह सौंदर्य और पूर्णता को प्राप्त कर सकें। शिक्षक भी यही कार्य करता है। वह अपने अनुभव और कौशल द्वारा बच्चों के विकास में सहायता करता है। बच्चे स्कूलों में शिक्षकों से ही ज्ञान पाते हैं। यह भी सच है कि प्रत्येक बच्चे की बुद्धि इतनी परिपक्व नहीं होती कि वह सही गलत की पहचान खुद कर सके। ऐसी स्थिति में शिक्षक ही बच्चों के मार्गदर्शक होते हैं।
राजधानी दिल्ली के एक प्राइमरी स्कूल में एक शिक्षिका द्वारा बच्ची को पहले कैंची से मारा गया और फिर उसे पहली मंजिल से नीचे फैंका गया। गनीमत है कि बच्ची जीवित बच गई लेकिन इस घटना ने स्कूली बच्चों के अभिभावकों को चिंतित कर दिया है। इस घटना ने न केवल बहुत सारे सवाल खड़े किए हैं, बल्कि शिक्षकों की भूमिका को भी संदेह के घेरे में ला दिया है। इससे पहले भी उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक प्राइवेट स्कूल में दो का टेबल नहीं सुनाने पर एक शिक्षक ने बच्चे के हाथ पर ड्रिल मशीन चला दी। राजस्थान के जालौर में मटके से पानी पीने पर अध्यापक ने 9 साल के मासूम बच्चे को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई। पटना में एक टीचर ने पांच साल के बच्चे को इतना पीटा कि उसके हाथ का डंडा टूट गया। उसने इतने पर भी बस नहीं किया और वह लात-घूंसों से बच्चे पर टूट पड़ा और उसे तब तक पीटता रहा जब तक बच्चा बेहोश नहीं हो गया। फीस न देने पर बच्चों से मारपीट की खबरें आती रहती हैं। कानूनी तौर पर स्कूली बच्चों को पीटना तो दूर डांटने-फटकारने पर भी सख्त मनाही है।
प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभावक तो इतने सजग हैं कि वह मामूली शिकायत मिलने पर ही शिक्षकों की शिकायत लेकर स्कूल पहुंच जाते हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों में कई बार शिक्षकों की कुंठा की घटनाएं सामने आ जाती हैं। यद्यपि बच्चों को यातनाएं देने वाले शिक्षकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाती है और मामला कुछ दिनों बाद शांत हो जाता है। एक सामान्य मनोदशा का व्यक्ति बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता। ऐसी घटनाओं के कारण तलाशे जाने की जरूरत है कि शिक्षक हिंसक क्यों हो उठते हैं? उनकी कुंडा के पीछे पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक कारण हो सकते हैं। आखिर उस शिक्षक की मनोदशा कैसी है कि वह हिंसक होकर बच्चों पर अत्याचार ढाने लगे।
शिक्षकों के मनोविज्ञान और मनोदशा का क्या कोई आंकलन किया जाता है। क्या उनमें शिक्षक बनने की योग्यता हासिल करने लायक संवेदनशीलता है। अगर बच्चों के प्रति उसके हृदय में कोई संवेदनशीलता या मानवीय दृष्टिकोण नहीं है तो वह शिक्षक नहीं शैतान के समान है। कई बार बच्चों का शरारतीपन या उदंडता पर गुस्सा अभिभावकों को भी आ जाता है तो स्वाभाविक है कि शिक्षकों को भी कभी-कभी गुस्सा आ जाता है। लेकिन इस गुस्से में शिक्षकों का बर्बरता की सीमा पार करना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता। अब वह दौर नहीं है जब अभिभावक अपने बच्चों को स्कूली शिक्षकों को सौंप कर यह कहते थे कि अब हमारी जिम्मेदारी खत्म और बच्चों को संवारने का काम आपका है। तब अभिभावक शिक्षकों द्वारा बच्चों को डांटने-फटकारने पर नाराज नहीं होते थे। जिस तरीके से शिक्षा का व्यवसायीकरण हो चुका है उसमें शिक्षकों का कोई सम्मान नजर नहीं आता। स्थितियां काफी बदल चुकी हैं, फिर भी शिक्षक के उत्तरदायित्व को कम नहीं आंका जा सकता। शिक्षक के बिना शिक्षा की प्रक्रिया चल ही नहीं सकती।
यदि शिक्षक योग्य नहीं होंगे तो शिक्षा की प्रक्रिया ठीक तरह से नहीं चल सकेगी। आज शिक्षक का कार्य केवल बच्चों को आकर्षित करना ही नहीं बल्कि बच्चों को समझने के लिए उन्हें बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना भी जरूरी है। अगर शिक्षक किसी मानसिक हालात से गुजर रहा है तो उसकी मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग की व्यवस्था भी शिक्षण संस्थाओं में होनी चाहिए। संस्थान सरकारी हो या प्राइवेट शिक्षकों की कुंठा को परखने के लिए भी व्यवस्था होनी चाहिए अन्यथा शिक्षकों के बच्चों को पीटने की दिल दहला देने वाली घटनाएं सामने आती रहेंगी। बच्चों को मार कर नहीं प्यार से कंट्रोल करना चाहिए। हिंसक व्यवहार से बच्चों का कोमल मन प्रभावित हो जाता है। अगर हर बच्चे को अच्छा शिक्षक मिले तो वह बहुत कुछ करके दिखा सकता है। शिक्षकों की नियुक्ति से पहले यह भी देखना जरूरी है कि वह बच्चों के प्रति अपने व्यवहार को लेकर कितना सजग और सहनशील रहता है। अगर ऐसी घटनाएं होती रहीं तो यह समाज के लिए और स्कूली प्रबंधन के लिए चिंता की बात है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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