अर्थव्यवस्था और घरेलू बजट - Punjab Kesari
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अर्थव्यवस्था और घरेलू बजट

भारत की अर्थव्यवस्था ऐसा मुद्दा है जिसका सीधा सम्बन्ध आम आदमी की अर्थव्यवस्था से जुड़ा रहता है।

भारत की अर्थव्यवस्था ऐसा मुद्दा है जिसका सीधा सम्बन्ध आम आदमी की अर्थव्यवस्था से जुड़ा रहता है। आम आदमी की अर्थव्यवस्था जाहिर तौर पर महंगाई व मुद्रा (रुपये) की क्रय शक्ति से जुड़ी होती है। महंगाई जब बढ़ती है तो रुपये की क्रय क्षमता में गिरावट आती है और इससे आम आदमी की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाती है जिसे घरेलू बजट कहा जाता है। भारत में उदारीकरण व वित्तीय सुधार होने के बाद अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदला है जिसे अधिकाधिक खर्च की अर्थव्यवस्था कहा जाता है। खर्च का सीधा सम्बन्ध आमदनी से होता है और हम जानते हैं कि आक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 40 प्रतिशत से अधिक सम्पत्ति पर केवल एक प्रतिशत लोगों का ही अधिकार है। इसका मतलब यह निकलता है कि शेष साठ प्रतिशत सम्पत्ति पर 99 प्रतिशत लोगों का अधिकार है। इनमें से भारत के साठ प्रतिशत के लगभग लोग ऐसे हैं (80 करोड़ से ज्यादा) जिनका जीवन सरकार द्वारा मुफ्त में दिये गये अनाज से चलता है। अतः जाहिर तौर पर इन लोगों की आमदनी इतनी भी नहीं है कि ये बाजार भाव पर सुलभ अनाज को खरीद सकें। इससे समूचे भारत की आम आदमी की अर्थव्यवस्था का अन्दाजा हम आसानी से लगा सकते हैं। बेशक यह तस्वीर अच्छी नहीं है मगर इस तस्वीर को बेहतर बनाने के लिए रिजर्व बैंक जो उपाय कर रहा है उनसे कुछ अपेक्षाओं का पैदा होना स्वाभाविक है और लोकतन्त्र में यह जरूरी प्रक्रिया होती है क्योंकि इस व्यवस्था में लोगों की चुनी हुई सरकार ही होती है जिसकी जवाबदेही सर्वप्रथम लोगों के ही प्रति होती है। रिजर्व बैंक ने अपनी हाल की बैठक में अन्तरबैंकिंग रोकड़ा कारोबार के लिए कर्ज पर ब्याज की दर पहले के ही समान 6.5 प्रतिशत रखने का फैसला किया है। इसका सीधा प्रभाव यह पड़ेगा कि बैंकों से कर्ज लेना और महंगा नहीं होगा और जिन लोगों ने विभिन्न मदों में बैंकोंं से कर्जा लिया हुआ है उनकी ईएमआई या मासिक ऋण अदायगी नहीं बढ़ेगी। बैंक ने यह फैसला इस उम्मीद पर किया है कि भारत की सकल अर्थव्यवस्था में सम्यक वृद्धि आयेगी जिससे चौरफा बाजार में खरीदारी या लिवाली का माहौल बनेगा। इसके लिए निजी क्षेत्र मे पूंजी निवेश बढ़ना आवश्यक है जिससे वाणिज्यिक व व्यापारिक और उत्पादन क्षेत्र में गति आ सके। क्योंकि जब तक यह गति नहीं आयेगी तब तक बाजारों में माल की मांग नहीं बढे़गी। इसके साथ ही मुद्रा स्फीति या महंगाई को काबू में रखना भी रिजर्व बैंक की जिम्मेदारी होती है और इस सम्बन्ध में वह हर तिमाही बाद समीक्षा करता रहता है। यदि रिजर्व बैंक के गवर्नर श्री शक्ति कान्त दास का यह विचार है कि वर्तमान महंगाई की दर को छह प्रतिशत से ऊपर जाने के बावजूद ब्याज दरों को स्थिर रखकर इस पर लगाम लगाई जा सकती है तो इसे निश्चित रूप से सकारात्मक सोच ही कहेंगे मगर यह सोच तभी फलीभूत होगी जबकि अर्थव्यवस्था के मूल मानकों में भी समानुपाती सुधार दर्ज होता जाये। 
भारत में उत्पादन क्षेत्र में वृद्धि दर में यथानुरूप सुधार नहीं हो रहा है और दूसरी तरफ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के प्रमुख बैंक अपनी ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं। उत्पादन क्षेत्र में भी वृद्धि के आसार वैश्विक स्तर पर नहीं बन पा रहे हैं जिसकी वजह से चालू वित्त वर्ष 2023-24 में भारत की सकल वृद्धि दर 6.3 प्रतिशत रहने को ही विश्व बैंक उपलब्धि मान रहा है। हमें याद रखना चाहिए कि वर्ष 2011-12 में भारत 9.8 प्रतिशत वृद्धि दर दर्ज करने का रिकार्ड काम कर चुका है। इस आंकड़े को इसके बाद भारत अभी तक छूने में नाकाम रहा है। अब कोराना काल के बाद भारत यदि 6.3 प्रतिशत की वृद्धि दर प्राप्त कर लेता है तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह सबसे तेज गति से विकास अर्थव्यवस्था का प्रमाण माना जायेगा। इसका मतलब यह है कि भारत की अन्तर्निहित आर्थिक शक्ति कहीं से कम नहीं है। सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि इस आर्थिक शक्ति के फलों का हम अपने समाज में क्या बराबर बंटवारा करने में सक्षम हो रहे हैं? यदि भारत की कुल 135 करोड़ के लगभग आबादी में 25 हजार रुपये महीने से अधिक की आय कमाने वाले केवल दस प्रतिशत लोग ही हैं तो हमे अपनी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की समीक्षा करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। इसके लिए हमें समूचे अर्थतन्त्र की ही समीक्षा करनी होगी। 
रिजर्व बैंक अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए समय-समय पर  जरूरी कदम उठाता है और देश में औद्योगिक से लेकर कारोबारी माहौल को बेहतर बनाने के उपाय भी करता है परन्तु अन्तिम फैसला तो वर्तमान आर्थिक तन्त्र में बाजार की शक्तियां ही करती हैं। यही कारण है कि विश्व के बहुत से देश आर्थिक संरक्षणवाद को प्रश्रय देते लग रहे हैं। भारत जैसे देश में सर्वाधिक मायने इस बात के होते हैं कि सामान्य नागरिक का घरेलू बजट उसकी आय के घेरे में कितना सुकून देने वाला रहता है। यह सुकून उसे तभी मिलता है जब उसे अपने बच्चों की शिक्षा से लेकर उनके खाने-पीने और आवास का प्रबन्ध करने में कोई बड़ी कठिनाई पेश न हो। क्योंकि सरकार विभिन्न शुल्कों व करों के रूप में जनता से ही धन वसूल कर उन्हीं पर खर्च करती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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