तीन तलाक पर दोहरी कवायद ! - Punjab Kesari
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तीन तलाक पर दोहरी कवायद !

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आज लोकसभा में नये तीन तलाक विधेयक को लेकर जो कुछ हुआ वह इस मायने में चौंकाने वाला है कि राज्यसभा में पिछले साल का पुराना तीन तलाक विधेयक अभी तक पड़ा हुआ है। लोकसभा ने पिछले वर्ष भी विधेयक को पारित कर दिया था मगर यह कानून इसलिए नहीं बन सका कि राज्यसभा ने बहुमत से इसे प्रवर समिति के पास भेज दिया था। अब लोकसभा ने जो आज विधेयक पारित किया है वह भी राज्यसभा में पारित होने के लिये भेजा जायेगा और इस सदन की संरचना को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इसका हश्र फिर से पिछले साल वाला होगा मगर लगभग इस एक साल के अन्तराल में यह हुआ कि सरकार ने तीन तलाक पर अध्यादेश जारी कर दिया था। यह अध्यादेश राज्यसभा में विधेयक के लम्बित रहने के बावजूद किया था।

अध्यादेश में पिछले वर्ष पारित विधेयक में कुछ बदलाव भी किये गये थे। यह कहा जा रहा है कि इससे मुस्लिम महिलाओं का सशक्तीकरण होगा। यह उनके जायज हकों की बात है। भारतीय संविधान मंे मुस्लिम समाज में उनके धार्मिक कानून शरीया के अनुसार घरेलू मामलात हल करने की इजाजत दी गई है। इसमें सम्पत्ति की विरासत आदि मुख्य मामले होते हैं। शरीया में महिलाओं के जो अधिकार हैं वे उन्हें पाने की पक्की हकदार होती हैं। इसमें निकाह या शादी का अहम किरदार होता है क्योंकि उसके आधार पर ही सम्पत्ति से जुड़े मामले हल होते हैं मगर हिन्दोस्तान की यह बहुत ही दिलरुबा खासियत है कि 1955 में बने ‘हिन्दू कोड बिल’ पर मुस्लिम समाज के घरेलू कानूनों का प्रभाव है।

हिन्दुओं के किसी धर्म शास्त्र से लेकर नीति पुस्तिका में तलाक शब्द या विवाह विच्छेद का जिक्र नहीं आया है। नारी के परित्यक्त होने के अवश्य सन्दर्भ आये हैं। इसका अर्थ यही निकलता है कि हिन्दू समाज मंे तलाक की अनुमति नहीं थी अथवा समाज में एेसी कोई अवधारणा ही नहीं थी। इसी प्रकार सम्पत्ति में स्त्री या महिला के अधिकार का भी हमें कहीं उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु मुस्लिम धर्म की ‘कुरान शरीफ’ में इन दोनों ही विषयों पर विस्तृत रूप से विवेचना की गई है और पारिवारिक कलह की स्थिति में स्त्री और पुरुष दोनों को ही एक सुनिश्चित पद्धति अपनाने के बाद एक-दूसरे से जुदा होने का तरीका बताया गया है। इसी प्रकार पारिवारिक सम्पत्ति में उसके हक की व्याख्या भी कुरान शरीफ में ही की गई है। दरअसल लगभग 1500 वर्ष पहले जिस इस्लाम धर्म की स्थापना हुई थी उसका प्रमुख हिस्सा समाज सुधार भी था। इसी वजह से इसमें समाज की पुरानी मान्यताएं और परंपराएं तोड़ते हुए नई परिपाटी स्थापित की गई थी जिसे मुस्लिम समाज के लिए जरूरी बनाया गया।

विधवा विवाह को भी मुस्लिम समाज में 1500 वर्ष पहले मान्यता दे दी गई थी और स्त्री के स्वतन्त्र जीवन के अधिकार को स्वीकार किया गया था लेकिन कालान्तर में हर समाज में कुछ न कुछ कुरीतियों की शुरूआत भी होती है जिसमें एक ही बार में तीन तलाक कहकर पत्नी से छुटकारा पाने की परम्परा भी उभरी। इसके अलग-अलग कारण रहे जिनमें से एक कारण शाही शासनतन्त्र या राजतन्त्र भी रहा। इसका प्रभाव हिन्दू समाज में भी रहा जिसके चलते इसमें बहुपत्नी विवाह का चलन जारी था मगर हिन्दू कोड बिल के जरिये भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दू स्त्रियों को तलाक पाने और पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा पाने का अधिकार दिया। दरअसल हिन्दू कोड बिल बाबा साहेब अम्बेडकर का सपना था जिसे पं. नेहरू ने ही पूरा किया था।

बाबा साहेब ने भारत की विविधता के जश्न के तौर पर इस बिल को तैयार किया था और समाज को आगे ले जाने की सोच जाहिर की थी। अतः जिस तरह आज संसद में तीन तलाक के मसले पर जमकर बहस हुई है उसका सामाजिक बदलाव से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं है क्योंकि मुस्लिम समाज में बदलाव केवल इसी समाज के नेता ला सकते हैं क्योंकि उन्हें अपने धार्मिक कानून शरीया के पारिवारिक मामलात से सम्बन्धित नियमों को पूरी निष्ठा से लागू करना होगा और एक ही बार में तीन तलाक इसका हिस्सा नहीं है। इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने बहुमत से इसे गैर संवैधानिक करार दिया था।

अतः इस्लाम के नियमों के अनुसार स्त्री का सशक्तीकरण जिस हद तक है उस पर नये तीन तलाक कानून से कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है, इसके विपरीत यह समस्या जरूर खड़ी हो जायेगी कि क्या मुस्लिम पद्धति से होने वाले निकाहनामे के करार के टूटने से पहले ही मुस्लिम पुरुष सजा का हकदार बन जायेगा क्योंकि तीन तलाक असंवैधानिक घोषित हो चुका है। अतः हमें यह ध्यान रखना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने इस बाबत फैसला देते हुए क्या कहा था। इस पीठ के एक न्यायमूर्ति ने राय जाहिर की थी कि संसद चाहे तो इस बारे में कानून बना सकती है मगर उसे शरीया के दायरे में प्रवेश करने का जोखिम उठाना होगा और एेसा करते ही कोई भी सरकार संविधान के आधारभूत सिद्धान्तों के खिलाफ चली जायेगी जिसमंे प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। इसी वजह से न्यायलय की पीठ ने बहुमत से फैसला दिया था कि इस बारे मंे किसी नये कानून की जरूरत नहीं है।

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