बिहार के पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में हुई श्री लालू प्रसाद द्वारा आयोजित रैली से जो संदेश देश में गया है वह यह है कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की भी उतनी ही जरूरत है जितनी की ताकतवर सरकार की। लगभग 17 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियाें ने इस रैली में हिस्सा लेकर विपक्षी एकता की जरूरत पर जोर दिया और अपने-अपने तरीके से सत्ताधारी दल भाजपा की आलोचना की। लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दो पहिये होते हैं जिनके सहारे इसकी गाड़ी चलती है। विपक्ष जनता के उस पक्ष की रहनुमाई करता है जो सत्ता की प्रशासनिक कार्रवाई से विसंगतियां पैदा करती हैं। उनको उजागर करना विपक्ष का धर्म होता है जिससे सत्तापक्ष उन्हें दूर कर सके। इसीलिए लोकतंत्र को लोकलज्जा से चलने वाली व्यवस्था कहा जाता है। िवचारों की विभिन्नता लोकतंत्र की आत्मा इसीलिए कहलाई जाती है कि जिससे सत्तापक्ष अपनी नीतियों की पक्की तसदीक जनहित की कसौटी पर कड़ाई से कर सके।
यह इतनी खूबसूरत व्यवस्था है कि इसके तहत कभी भी सत्तारूढ़ दल निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता और अपने विचारों को दूसरों पर नहीं लाद सकता। बदले की भावना से काम करना लोकतंत्र में पूरी तरह वर्जित ही नहीं बल्कि प्रतिबंधित है क्योंकि किसी भी पार्टी की सरकार को केवल संविधान के अनुसार ही काम करना पड़ता है। इसके बावजूद राजनीतिक दल एक-दूसरे पर सत्ता में अदल-बदल होने पर इस तरह के आरोप लगाते रहते हैं। एेसे ही आरोप पटना रैली में भी लगाए गए जिस पर आश्चर्य की जरूरत नहीं है क्योंकि राजनीति का स्तर जिस तरह पिछले 25 सालाें में गिरा है उसमें इस तरह की कुरीतियों का पैदा होना स्वाभाविक है। दीगर सवाल यह है कि देशभर में राजनीति का वैचारिक स्तर किस मोड़ पर आकर ठहरा हुआ है? इसकी पड़ताल किए जाने की जरूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि लालू प्रासाद अभी भी मजबूत जनाधार वाले नेता हैं।
उनका जनाधार गांवों के गरीबाें से लेकर पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्गों तक में फैला हुआ है। मगर बिहार की राजनीति लोकजनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष श्री राम विलास पासवान की भूमिका के बिना पूरी नहीं हो सकती क्योंिक उनका जनाधार भी दलितों से लेकर अल्पसंख्यक वर्गों तक फैला हुआ है मगर वह फिलहाल सत्तारूढ़ भाजपा के साथ हैं जहां तक श्री नीतीश कुमार का सवाल है वह कथित सामाजिक न्याय की लड़ाई का चेहरा भर रहे हैं जिसे लेकर कभी भाजपा तो कभी लालू जी राजनीति करते रहे हैं। मगर वह भी अब भाजपा के साथ हैं। अतः लालू जी की विपक्षी राजनीति के लिए बिहार में पूरा मैदान साफ है लेकिन लालू जी की ताकत को अब सिर्फ बिहार तक सीमित करके आंकना गलत होगा क्योंकि उनमें उत्तर भारत के पिछड़े व अल्पसंख्यक वर्गों को संगठित करने की अपूर्व क्षमता इन इलाकाें में किसी प्रभावी विपक्षी नेतृत्व के न होने की वजह से पैदा हो चुकी है। उनके साथ ही नीतीश कुमार के साथी रहे श्री शरद यादव में भी यह क्षमता है कि वह इस खाली जगह को भर सकें।
यही वजह रही कि उन्होंने तीन महीने पहले अपनी पार्टी की पटना रैली को संयुक्त विपक्ष की रैली का स्वरूप दे दिया और उसमें पं. बंगाल की मुख्यममंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने भी शिरकत की। हालांकि इसमें कांग्रेस के नेता श्री गुलाम नबी आजाद भी आए मगर इसका केन्द्र बिन्दू नीतीश कुमार का लालूजी का साथ छोड़कर भाजपा से हाथ मिलाना ही रहा अर्थात् कमोबेश यह बिहार केन्द्रित ही रही लेकिन जिन लोगों ने 1974 का जे.पी. आंदोलन देखा है वे जानते हैं कि स्व. जय प्रकाश नारायण ने भी गांधी मैदान से अपना आन्दोलन तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री स्व. अब्दुल गफूर को हटाने के लिए ही शुरू किया था। नीतीश बाबू सृजन घोटाले की आंच से घिर चुके हैं और यह मामला भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का बिहार में बड़ा मुद्दा बन सकता है। हालांकि लालू जी का पूरा परिवार ही भ्रष्टाचार के ओरोपों से जूझ रहा है मगर उन्हें सृजन घोटाला उठाने से कोई नहीं रोक सकता जिसमेें वर्तमान बिहार सरकार में शामिल राजनीितक दलों के नेताओं का नाम आ रहा है। मगर विपक्ष को अपनी एकता राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने के लिए किसी जे.पी. जैसे निर्विवाद व्यक्तित्व की जरूरत पड़ेगी।
विपक्ष वह कहां से लाएगा? कुछ लोगों की सोच है कि लोकतंत्र में खाली जगह कभी नहीं रहती और कोई न कोई एेसा महान व्यक्तित्व जरूर होगा जो सारी राजनीतिक परिस्थितियों का विचारमग्न होकर पर्यवेक्षण कर रहा होगा। जेपी. भी 1974 से पहले दलविहीन राजनीति की बात करते थे और दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में पचास-साठ लोगों को सम्बोधित करके चले जाते थे परन्तु उनके साथ देश की आजादी की लड़ाई में जान खपाने की मजबूत विरासत ही नहीं बल्कि सत्ता को लात मारने के संस्कार भी थे। मौजूदा संदर्भों में इसकी परिभाषा दूसरी बेशक हो सकती है मगर उसका निर्लिप्त भाव से निर्विवाद होना जरूरी है तभी अलग-अलग विचारधाराओं वाले राजनीितक दलों को एक मंच पर उसी प्रकार लाया जा सकता है जिस प्रकार पूर्व में जेपी. की तीखी आलोचना करने वाला जनसंघ भी 1974 में उनकी छत्रछाया में विपक्षी एकता में शामिल हो गया था। मगर विपक्ष का यह मानना पूरी तरह गलत होगा कि भाजपा सरकार की नीतियों के प्रति आम जनता का मोहभंग हो रहा है। इसकी इसी वर्ष परीक्षा प्रधानमंत्री के गृह राज्य गुजरात में ही होगी और विपक्ष इसका बेसब्री के साथ इंतजार करना चाहता है।