जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री और नेशनल कान्फ्रेंस के नेता डाॅ. फारूक अब्दुल्ला का ईद के दिन श्रीनगर के समीप हजरत बल में जिस तरह कुछ लोगों ने विरोध किया उससे यही पता चलता है कि घाटी में कुछ अराजक तत्वों और सिरफिरे लोगों ने भारत विरोध को ही अपना धर्म बना लिया है। हकीकत तो यह है कि ईद के दिन उन्होंने डाॅ. अब्दुल्ला को केवल इसलिए जूते-चप्पल दिखाने की जुर्रत की कि उन्होंने ‘भारत माता की जय’ और ‘जय हिन्द’ का उद्घोष किया था। डाॅ. अब्दुल्ला संविधान की शपथ लेकर ही इस राज्य के तीन बार मुख्यमन्त्री रह चुके हैं और उनकी पार्टी भी भारतीय संविधान के तहत जवाबदेह ‘चुनाव आयोग’ में पंजीकृत है। उन्होंने एक दिन पहले जब दिल्ली में भारत माता की जय का उद्घोष किया था तो वह इस देश के प्रति उनकी निष्ठा का प्रतीक सभी प्रकार के विवादों से ऊपर उठ कर था परन्तु मुस्लिम कट्टरपंथियों ने आजादी से पहले से इस नारे को इस्लाम विरोधी बताने की हिमाकत शुरू कर दी थी जबकि मादरे वतन की राह में खुद को न्यौछावर करने की ताईद इस्लाम करता है।
दरअसल आजादी से पहले यह मुस्लिम लीग का शगूफा था जिसने भारत के दो टुकड़े कराये परन्तु यह भी सच है कि स्वतन्त्र भारत में भारत माता की जय बोलना ही राष्ट्रभक्ति का प्रमाण नहीं कहा जा सकता परन्तु एेसा बोलने वाले के खिलाफ प्रदर्शन करना निश्चित रूप से राष्ट्रद्रोह का प्रतीक है। भारत माता सभी की माता है चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान अथवा किसी अन्य मजहब का मानने वाला। डाॅ. अब्दुल्ला ने तो कट्टरपंथियों को केवल एक रास्ता दिखाया है और ताल ठोक कर कहा है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के रहने वाले सभी भारतीय हैं और भारत माता की सन्तान हैं तो उसकी जय बोलने में कैसा परहेज? इसमें कौन सा धर्म आड़े आ सकता है। निश्चित रूप से भारत मां का चित्रण एक साकार स्वरूप है जिस पर कुछ मुस्लिम उलेमा एतराज करते हैं परन्तु मां के पैरों में जन्नत की पैरोकारी तो इस्लाम भी करता है।
अतः सम्पूर्ण भारत को एक मां के रूप में विचार कर उसकी जय बोलने में कहीं कोई रुकावट नहीं आती बेशक एक देवी के रूप में उसकी परिकल्पना पर उलेमाओं के एतराज को धर्म के नजरिये से जायज माना जा सकता है मगर एक मां के रूप में उसके वृहद निराकार स्वरूप पर कोई एतराज नहीं किया जा सकता। आजादी के दीवानों के हाथ मंे तिरंगा और मुंह पर भारत माता की जय का तराना स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान रहता था और उसमें हिन्दू-मुसलमान सभी होते थे मगर डाॅ. अब्दुल्ला ने इसके साथ ही जय हिन्द का नारा भी लगाया और साफ किया कि इसी मुल्क की खिदमत में उन्हें निहां होना है। उनके बाप-दादा इसी मुल्क में पैदा हुए। जरा कोई कश्मीर का इतिहास उठा कर पढे़ और देखे कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के दिये गये नारे ‘जय हिन्द’ के लिए कश्मीरियों ने कितनी कुर्बानियां दी हैं तो उनकी आंखें खुल जायेंगी। कर्नल हबीबुर्रहमान कश्मीर के ही थे जो नेता जी के सैनिक लेफ्टिनेंट थे लेकिन क्या सितम है कि अब कश्मीर में जय हिन्द कहने को ही ‘कुफ्र’ बना दिया गया है।
यहां तक कि मुल्क के वजीरे आजम तक कश्मीर में जाकर जय हिन्द बोलने की हिम्मत नहीं दिखा पाते। श्रीनगर में आयोजित सार्वजनिक सभा में अनेकों बार जय हिन्द का उद्घोष करने वाले पिछले प्रधानमन्त्री डाॅ. मनमोहन सिंह थे लेकिन डाॅ. अब्दुल्ला को भी अब अपनी इसी हिम्मत को कायम रखना होगा और श्रीनगर में भी वही बोलना होगा जो वह नई दिल्ली में बोलते हैं। यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि लोकसभा में उनकी भाषा दूसरी हो और श्रीनगर की विधानसभा में दूसरी। उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि मजहब की बुनियाद पर पाकिस्तान निर्माण का सबसे सख्त विरोध महात्मा गांधी के साथ उन्हीं के पिता स्व. शेख अब्दुल्ला ने किया था। कश्मीर की हिन्दू-मुस्लिम मिली-जुली कश्मीरी संस्कृति का एहतराम करते हुए ही शेख साहब ने अपनी पार्टी ‘मुस्लिम कान्फ्रेंस’ का नाम बदल कर 1935 में ही नेशनल कान्फ्रेंस किया था और उसमें उनके सिपहसालार कश्मीरी पंडित ही थे। यही वजह थी कि जब 26 अक्टूबर 1947 को इस रियासत के महाराजा हरिसिंह ने अपने रजवाड़े का भारतीय संघ में विलय किया था तो राज्य को विशेष दर्जा देने के साथ यह शर्त भी रखी थी कि इसके वजीरे आजम शेख अब्दुल्ला ही होंगे और रियासत के विलय पत्र पर तब पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के हस्ताक्षर भी कराये थे।
हालांकि कालान्तर में एेसे हालत बने कि स्वयं पं. नेहरू को ही 1953 में शेख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करना पड़ा था और शेख साहब को नजरबन्द करना पड़ा था। एेसे हालात क्यों बने इसकी तफ्सील में जाये बगैर इतना समझ लिया जाना चाहिए कि 1974 में स्व. इन्दिरा गांधी को शेख साहब के साथ ही समझौता करके इस सूबे में राजनैतिक हालात सामान्य करने पड़े। अभी तक लोग भूले नहीं हैं कि इसके बाद जुम्मे की नमाज के बाद घाटी में किस तरह जय हिन्द के नारे लगते थे मगर 1984 के बाद से सूबे की सियासत में जो बदलाव आना शुरू हुआ उसमें सूबाई सियासी तंजीमों ने सरहद पार की हिमायत से एेसे मंसूबों पर चलना शुरू कर दिया जिससे भारत माता का मुकुट कहा जाने वाला यह राज्य लहूलुहान होने लगा और पाकिस्तानी झंडे कुछ सिरफिरों के हाथ में लहराने लगे। रही-सही कसर स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव ने इस प्रदेश में छह साल तक राज्यपाल शासन लागू करके पूरी कर दी और पूरे राजनैतिक वातावरण को हिन्दू-मुस्लिम दायरों में बंटने के लिए छोड़ दिया। अतः डाॅ. अब्दुल्ला ने भारत माता की जय बोल कर उस राजनैतिक निश्चय का एेलान किया है जो आने वाले वक्तों में यहां के युवाओं को सोचने पर मजबूर करेगा कि उनका मुस्तकबिल तभी महफूज रह सकता है जब भारत मजबूत होगा और हर कश्मीरी इसे मादरे वतन मानते हुए इसके आगोश में ही सुकून की सांस लेगा। डाॅ. अब्दुल्ला को 130 करोड़ भारतवासी अपनी दुआओं से नवाज रहे हैं कि उन्होंने कश्मीरियों को सच का आइना दिखाया है।
देखना तकरीर की लज्जत कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है