आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में जबरदस्त परिवर्तन आया। उदार नीतियों के चलते औद्योगिकीकरण और शहरीकरण बढ़ा। गांव से शहरों की ओर पलायन भी बढ़ा लेकिन जैसे-जैसे उदारीकरण का लाभ लोगों तक पहुंचता गया और उनकी क्रय शक्ति भी बढ़ती गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की अर्थव्यवस्था अब विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। इसके बावजूद शहरों और गांव में रहने वाले भारतीयों के खर्च में काफी अंतर देखने को मिला। भारत में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है। ग्रामीण विकास न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली अधिकांश आबादी के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि राष्ट्र की समग्र आर्थिक वृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण है। देश के विकास की प्रक्रिया में ग्रामीण विकास को अब पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। गांव वाले खुश होंगे तो देश भी खुशहाल होगा। वैश्विकरण के इस दौर में शहरों और गांव में खान-पान की आदतों में अंतर खत्म होता जा रहा है।
गांव में बसने वाले लोग भी अब चीजें खरीदने में खुलकर पैसे खर्च कर रहे हैं। इसका असर यह हुआ है कि अब शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच खपत का अंतर कम हो गया है। ताजा घरेलू उपभोग खर्च सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ है कि अगस्त 2023-जुलाई 2024 के दौरान गांव और शहरी क्षेत्रों में खपत का फासला एक साल पहले की तुलना में घटा है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने सर्वेक्षण के आंकड़े जारी कर दिए हैं। उनसे पता चलता है कि प्रति व्यक्ति कुल मासिक उपभोग व्यय में खाद्य वस्तुओं की हिस्सेदारी 2023-24 के दौरान ग्रामीण इलाकों में 47.04 फीसदी जबकि शहरों में 39.7 फीसदी है। एक साल पहले यानी 2022-23 में यह आंकड़ा क्रम से 46.4 फीसदी और 39.2 फीसदी था। एनएसओ के सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2023-24 की अवधि में ग्रामीण परिवारों का मासिक घरेलू खर्च 2023-24 में नॉमिनल कीमतों पर 9.2 फीसदी बढ़कर 4,122 रुपये हो गया। इस दौरान शहरी परिवारों का मासिक घरेलू खर्च 8.3 फीसदी बढ़कर 6,996 रुपये हो गया। इन आंकड़ों में विभिन्न सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के जरिये परिवारों को मिलने वाली मुफ्त वस्तुओं के मूल्यों को शामिल नहीं किया गया है। आंकड़ों से पता चलता है कि अनाज पर गांवों और शहरों दोनों इलाकों में परिवारों के खर्च में क्रमश: 4.99 फीसदी और 3.76 फीसदी की वृद्धि हुई। एक साल पहले यह आंकड़ा क्रमश: 4.91 फीसदी और 3.64 फीसदी रहा था। यह ऐसे समय में दिखा है जब ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में अनाज पर औसत मासिक प्रति व्यक्ति मात्रात्मक खपत में गिरावट आई है।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि ग्रामीण उपभोग में वृद्धि की रफ्तार तेज रहने के कारण गांव और शहरी परिवारों के बीच औसत मासिक उपभोग व्यय में अंतर 2023-24 में 69.7 फीसदी तक कम हो गया है जबकि एक साल पहले यानी 2022-23 की इसी अवधि में 71.2 फीसदी था। यह सभी आंकड़े ग्रामीण अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर तो पेश करते हैं मगर आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि खाद्य वस्तुओं पर खर्च की हिस्सेदारी बढ़ने का एक बड़ा कारण महंगाई है। मुद्रा स्फीति पिछले एक साल से काफी तेज रही है। सब्जियाें, फलों और दालों सहित लगभग सभी खाद्य पदार्थों की कीमतों में लगातार बढ़ौतरी हुई है। ऐसे में निश्चित तौर पर परिवारों का बजट प्रभावित हुआ है।
अब सवाल यह है कि क्या गांव वालों की खान-पान की आदतों में बदलाव आ रहा है। आमतौर पर कोई भी रुझान एक साल के भीतर नहीं बदलता। दूसरी तरफ कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि यह आंकड़े इस बात का प्रमाण हैं कि देश में गरीबी का स्तर कम हुआ है और इन आंकड़ों में यह भी दिखाई देता है िक देश की समृद्धि का फायदा शहरी लोगों तक ही नहीं बल्कि ग्रामीणों को भी मिल रहा है। केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा चलाई जा रही सामाजिक कल्याण योजनाओं से भी लोग लाभान्वित हो रहे हैं। गांव के लोग भी अब बेवरेज और प्रोसैस्ड फूड पर अच्छा खासा खर्च कर रहे हैं लेकिन उपभोग व्यय में बिहार सबसे पीछे है। तेलंगाना, तमिलनाडु जैसे राज्यों में ग्रामीण उपभोग व्यय भी बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश के शहरी उपभोग व्यय से अधिक है। बिहार में प्रति व्यक्ति मासिक शहरी उपभोग व्यय 5080 है जबकि तेलंगाना व तमिलनाडु का ग्रामीण मासिक व्यय क्रमशः 5435 व 5701 रुपए हैं। उत्तर प्रदेश का शहरी मासिक व्यय 5395 तो झारखंड का 5393 है। दिल्ली में शहरी इलाके में उपभोग व्यय 8534 व ग्रामीण इलाके में 7400 रुपए हैं।
अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय के बावजूद ताजा आंकड़े राहत देने वाले हैं। ग्रामीण विकास को आर्थिक विकास का चालक बनाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना है। गांव में बुनियादी ढांचा िवकसित करना और उनके उत्पादों को बाजार तक पहुंचाना भी महत्वपूर्ण है। अगर गांव वालों को अपने उत्पादों का उचित मूल्य मिले आैर उनकी जेब में पैसा बचे तो ही वे बाजार में खरीदारी करने निकलेंगे। इससे मांग बढ़ेगी तो उत्पादकता भी बढ़ेगी। इसिलए ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में भागीदारी बढ़ाना जरूरी है।