भारत में इंटरनेट क्रान्ति होने के बाद जिस प्रकार ‘ट्रोल आर्मी’ का उदय हुआ है उससे सार्वजनिक जीवन में कार्यरत प्रमुख व्यक्तियों के बारे में रचनात्मक आलोचना की जगह सड़क-छाप व भद्दी-भद्दी गालियां आदि देने की नकारात्मक व अश्लील प्रवृत्ति ने भी जन्म लिया है। लोकतन्त्र में तीखी आलोचना की इजाजत है मगर शालीनता के दायरे में। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि शालीनता या नैतिकता अथवा अश्लीलता समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सापेक्ष अवधारणा (रिलेटिव कांसेप्ट) होती है। उनका यह तर्क अनुचित है क्योंकि ‘गाली’ को सापेक्षता के दायरे में रख कर नहीं देखा जा सकता वह समाज के हर वर्ग में ‘गाली’ ही होती है और अश्लीलता के घेरे में ही आती है। मगर इससे भी बड़ा सवाल तब पैदा होता है जब कुछ लोग भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका या इसके न्यायमूर्तियों की उनके द्वारा दिये गये फैसलों से नाराज होकर निन्दा करते हैं और ‘संविधान सम्मत नागरिक आचरण’ की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं। पिछले कुछ समय से भारत के प्रधान न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ के खिलाफ कुछ लोग न केवल बेहूदा व अश्लील ट्रोल कर रहे हैं बल्कि उनकी व्यक्तिगत आलोचना करने में सारी मर्यादाएं लांघ रहे हैं। इन लोगों की समझ में प्रधान न्यायाधीश भी कोई साधारण राजनीतिज्ञ हैं जिनकी आलोचना सार्वजनिक रूप से की जा सकती है और उन्हें गालियां तक दी जा सकती हैं।
सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि प्रधान न्यायाधीश ही देश के संविधान के रक्षक राष्ट्रपति को पद व गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं और यदि देश में कभी ऐसा अवसर आ जाये जब राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति में से कोई भी अपने पद पर न हो तो वह ही राष्ट्रपति के पद को अस्थायी रूप से संभालते हैं। ऐसा भारत में एक बार हो चुका है जब 1969 में डा. जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति चुनाव हुआ था और उसमें तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी एक प्रत्याशी बन गये थे। तब सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश स्व. हिदायतुल्लाह ने अस्थायी रूप से राष्ट्रपति पद संभाला था। अतः श्री चन्द्रचूड़ को गाली देना सीधे संविधान को गाली देने की समान ही माना जायेगा और ऐसा करने वालों के लिए भारतीय दंड संहिता में उचित सजा का प्रावधान है। इसके साथ ही ट्रोल आर्मी के सदस्यों को यह भी सोचना चाहिए कि भारत की न्यायपालिका ‘सरकार’ का अंग नहीं होती और इसकी प्रमुख जिम्मेदारी पूरे देश में संविधान का शासन देखने की होती है। इसके पास सरकार द्वारा बनाये गये कानूनों को ही संविधान की कसौटी पर कस कर ‘अवैध’ करार देने का अधिकार होता है। न्यायपालिका की अपनी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं होती और इसका काम यही होता है कि किसी भी राजनैतिक विचारधारा की लोगों द्वारा चुनी गई सरकार हर हालत में संविधान के अनुसार काम करे। इसीलिए कहा जाता है कि भारत में ‘संविधान का शासन’ होता है चाहे सरकार कांग्रेस की हो अथवा भाजपा की लेकिन यह हमारी न्यायपालिका और प्रधान न्यायाधीश श्री चन्द्रचूड़ का बड़प्पन और महानता है कि वह अपने बारे में किये गये ट्रोलों का कभी संज्ञान नहीं लेते और अपना कार्य ‘विक्रमादित्य’ की भांति करते रहते हैं परन्तु भारत के लोकतन्त्र प्रेमी इस स्थिति को सही नहीं मानते और उनका कहना रहा है कि इस बारे में संविधान के अनुच्छेद 19 (ए) के तमाम उपबन्धों को लागू करके दोषियों को सजा मिलनी चाहिए और दंड संहिता की विभिन्न धाराओं का प्रयोग किया जाना चाहिए। यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की दूरदृष्टि ही थी कि उन्होंने 1950 में ही संविधान में पहला संशोधन करके यह सुनिश्चित किया था कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का उपयोग हिंसा भड़काने या समाज में वैमनस्य पैदा करने के लिए नहीं किया जा सकता और आलोचना शालीनता के दायरे में रह कर ही की जा सकती है। इस संशोधन को तभी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी जिसे खारिज कर दिया गया था। उस समय के हिन्दू महासभा के नेता एन.सी. चटर्जी इस संशोधन के सख्त खिलाफ थे।
इतिहास के इन दस्तावेजों की रोशनी में हमें ट्रोल आर्मी के असभ्य व निन्दनीय व्यवहार की समालोचना करनी चाहिए और सोचना चाहिए कि क्या हम अपने लोकतन्त्र को ‘गाली तन्त्र’ में बदल देना चाहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय या इसके प्रधान न्यायाधीश के हाथ अपने संवैधानिक दायित्वों से बंधे होते हैं और वे जो भी फैसला देते हैं वह केवल संविधान की ‘रुह’ से ही निकलता है। अतः मणिपुर राज्य की स्थिति के बारे में उनके द्वारा दिये गये निर्णय या टिप्पणियों को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। मगर तमिलनाडु के एक राजनैतिक टिप्पणीकार कहे जाने वाले व्यक्ति ‘बदरी शेषाद्रि’ ने इस बारे में एक वीडियो बनाई और उसे इंटरनेट पर डाल दिया। इसमें कहा गया है कि ‘‘सर्वोच्च न्यायालय स्वयं को कितना बड़ा समझ रहा है, मुझे इसके बारे में शब्द नहीं मिल रहा है। प्रधान न्यायाधीश को एक रिवाल्वर दे दिया जाना चाहिए और उनसे कहा जाना चाहिए कि वह मणिपुर में जाकर शान्ति-व्यवस्था कर दें। क्या आप सरकार के कार्यक्षेत्र में नाम का भी दखल दे सकते हैं? आप वहां की राज्य सरकार के खिलाफ क्या खता देख रहे हैं? वहां दो समूह आपस में लड़ रहे हैं—यह पहाड़ी इलाका है—-साथ ही बहुत उलझावों से भरी धरती है’’। इस वीडियो के खिलाफ तमिलनाडु के पेराम्बदूर के एक वकील ने एफआईआर दर्ज कराई जिसका संज्ञान लेते हुए इलाके की पुलिस ने दंड संहिता की विभिन्न सम्बन्धित धाराओं में शेषाद्रि के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और उसे मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जहां से उसे 11 अगस्त तक न्यायिक हिरासत में रखने के आदेश दिये गये।
गौर से देखा जाये तो तमिलनाडु पुलिस ने संविधान के अनुसार कदम उठा कर शेषाद्रि जैसे लोगों को समझाने की कोशिश की है कि संविधान का शासन पूरे देश में देखने की जिम्मेदारी से बंधे भारत के न्यायाधीश को ओछी व संकीर्ण राजनीति में नहीं घसीटा जा सकता। वह कोई राजनैतिक व्यक्ति भी नहीं हैं कि अपना दर्द बयां कर सकें और सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधान न्यायाधीश के अपने संवैधानिक दायित्व निभाने के काम में कोई भी व्यक्ति अड़ंगा नहीं लगा सकता है। भारत की न्यायपालिका तो वह है जिसने 12 जून, 1975 को इलाहाबाद में तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को ही कानूनी नुक्तों के तहत अवैध करार दे दिया था।