भारत की सबसे बड़ी खूबसूरती यह रही है कि जब-जब भी इसकी राषट्रीय सुरक्षा को कहीं से भी खतरा पैदा हुआ है तो पूरा देश एक साथ उठ कर खड़ा हो गया है और उत्तर से लेकर दक्षिण तक हर हिन्दू-मुसलमान एक आवाज में बोलने लगा है मगर वतनपरस्ती कभी भी सियासी बिसात की मोहताज नहीं हो सकती। इस मुल्क का इतिहास गवाह है जय चन्द और मीर जाफर का नाम आते ही आज भी लोग नफरत से गर्दनें मारने लगते हैं। इसलिये इस मुल्क के लोगों को यह समझाने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रभक्ति किसे कहते हैं। सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त वह है जो खेतों में दिन-रात मेहनत करता है या रिक्शा चलाता है और बिना यह देखे कि उसकी मेहनत का लाभ कोई हिन्दू उठायेगा या मुसलमान उठायेगा अपना काम चेहरे पर बिना कोई शिकन लाये करता रहता है।
इन्हीं लोगों के भरोसे गांधी जी ने आजादी की जंग जीती थी और इन लोगों को सबसे पहला सबक यह सिखाया था कि आजाद भारत में वे बिना किसी खौफ या डर के अपने मन की बात हुकूमत के सबसे ऊंचे औहदे पर बैठे इंसान से बिना हिचक कह सकेंगे। गांधी ने जब लोकतन्त्र को तफसील से आजादी से पहले अपने अखबार में बताना शुरू किया तो ‘‘आह्वान किया कि लोग अंग्रेजी हुकूमत का डर अपने दिल से सबसे पहले निकाल कर अपनी बात खुल कर कहना सीखें क्योंकि आजाद भारत की यही पुख्ता नींव होगी और इसी बुनियाद पर भारत का लोकतन्त्र खड़ा किया जायेगा। गांधी ने यह भी लिखा कि लोकतन्त्र में सरकारें लोगों की निगरानी नहीं करती हैं बल्कि लोग सरकारों की निगरानी करते हैं जिससे किसी भी तौर पर कोई भी सरकार उस अमानत में खयानत न कर सके जिसे लोगों ने ही उसके सुपुर्द किया है।
अपने ही लोगों पर जो सरकार अविश्वास करने लगे तो समझा जाना चाहिए कि अत्याचारों को वैधानिक दर्जा देने का तरीका खोज लिया गया है।’’ गांधी ने यह तब लिखा था कि जब अंग्रेज सरकार हिन्दोस्तानियों को तिरंगा लेकर आजादी का नारा बुलन्द करने पर लाठियों से पीट रही थी और गोलियां तक चलवा रही थी और अपना विरोध करने वाले कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल रही थी। उन पर राजद्रोह और देशद्रोह के मुकदमें चलाये जा रहे थे। उनकी सम्पत्तियां कुर्क कराई जा रही थीं मगर क्या दीवानापन था आजादी के परवानों का कि वे आने वाली पीढि़यों को खुशी देने के लिए हंसते-हंसते फांसी का फन्दा तक चूम गये। हमें आज हर हालत में इन्हीं कुर्बानियों का कर्ज चुकाना है और अपने देश के लोकतन्त्र को हर खतरे से महफूज रखते हुए हर हिन्दोस्तानी में यह हौंसला भरना है कि सूबों से लेकर केन्द्र तक उसी के वोट से चुनी हुई सरकारें हुकूमत पर काबिज हैं जिनका पहला काम उसकी निजी स्वतन्त्रता की रक्षा इस तरह करना है कि किसी भी मुल्क फरोश को बख्शा न जा सके लेकिन 1975 में स्व. इदिरा गांधी ने ऐसी गलती कर दी थी कि उन्होंने भारत के आम लोगों की जबान पर ताला लगाने की भूल कर डाली और हुकूमत का खौफ उनके दिलों में इस कदर भर दिया कि वे अपने दिल की बात खुद कर किसी के सामने न कर सकें। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी मंे लोगों के दैनिक जीवन को सहूलियतों से भर दिया।
रेलगाड़ियां समय पर चलने लगीं। जमाखोर और मुनाफाखोर थर-थर कांपने लगे, दफ्तरों में लोग सही वक्त पर आकर बिना रिश्वत लिये काम करने लगे। महंगाई की दर जीरो पहुंच गई मगर इसके साथ ही उन्होंने अखबारों को वही लिखने के लिये मजबूर कर दिया जो सरकार चाहती थी और एक पुलिस कांस्टेबल का डर लोगों में इस तरह भर दिया कि उसकी जबान से निकला लफ्ज ही कानून की किताब हो। यह सब कुछ इमरजेंसी में लोगों में डर पैदा करके ही हुआ क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं उसे सरकार देख रही है। उस समय इस निजाम का विरोध जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने खुलकर किया था और गिफ्तारियां दी थीं। तब न तो कम्यूटर था और न नेटवर्क था, न मोबाइल फोन थे और न फेसबुक या ट्वीटर था। इसके बावजूद लोगों में डर बैठ गया था कि अगर उन्होंने अपने मन की बात किसी दूसरे से कही तो पुलिस के आने में देर नहीं लगेगी। इन्दिरा जी ने पहला कदम उठा लिया था जिसकी भरपाई उस समय के पुलिस व सुरक्षा प्रशासन ने कर डाली।
आजाद भारत में यह ऐसी नजीर थी कि हर राजनैतिक दल ने तौबा कर डाली कि वे सपने में भी हिन्दोस्तानियों की जबान बन्द करने की बात नहीं सोचेंगे और न उनकी निगरानी करने की खता करेंगे। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि उस समय आयकर विभाग किस तरह छापा डाला करता था और सियासी विरोधियों को तंग किया करता था। अतः यह बात समझ से परे है कि क्यों मौजूदा सरकार ने हर नागरिक के कम्प्यूटर से लेकर फोन व लैपटाप और सोशल मीडिया पर होने वाली बातों की निगरानी करने का जिम्मा चुनीन्दा जांच एजेंसियों को दिया है। राज्यसभा में आज इसी मुद्दे पर काफी हंगामा हुआ। बिना शक हर सरकार का यह जिम्मा बनता है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ करने वालों पर कड़ी नजर रखे मगर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि हर नागरिक मंे खुद के निगरानी के घेरे में होने का डर इस तरह पैदा कर दिया जाये कि वह अपने दिल की बात ही किसी से न कह सके। हर आदमी के जिन्दगी को देखने के नजरिये से सियासी नजरिये में फर्क होता है।
राज्यसभा में आज सदन के नेता वित्त मन्त्री श्री अरुण जेतली ने जवाब में कहा कि 2009 में कांग्रेस की सरकार में ही यह आदेश लाया गया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर सीबीआई समेत विभिन्न वित्तीय जांच एजेंसियों को आशंकित लोगों की निजी जानकारियों की निगरानी करने का हक होगा। यह तो सही है कि देशद्रोहियों, आतंकवादियों और घोटालेबाजों पर निगरानी जरूरी है लेकिन इसकी आड़ में आम नागरिक की निजता में दखल नहीं होना चाहिये। लोकतन्त्र में यह सन्देश कभी नहीं जाना चाहिए कि डर का माहौल पैदा करके सत्ता चलाई जा रही है। भारत के आजाद होने के तुरन्त बाद पं. जवाहर लाल नेहरू ने यह तकरीर तब की थी जब कांग्रेस पार्टी के सामने टिकने की किसी दूसरे राजनैतिक दल में कूव्वत नहीं थी। उन्होंने कहा था कि ‘लोकतन्त्र की पहली शर्त भय मुक्त माहौल होता है क्योंकि डर कभी भी लोगों में राजनैतिक चेतना पैदा नहीं होने देता जिसके पैदा हुए बिना लोगों की सरकार लोगों के लिये नहीं बन सकती।’’