त्रासदी के बावजूद हिमांशी ने राष्ट्र को रास्ता दिखाया - Punjab Kesari
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त्रासदी के बावजूद हिमांशी ने राष्ट्र को रास्ता दिखाया

22 अप्रैल को पहलगाम की बैसरन वादी में हुए आतंकी हमले के बाद कश्मीर वादी में बदलाव…

22 अप्रैल को पहलगाम की बैसरन वादी में हुए आतंकी हमले के बाद कश्मीर वादी में बदलाव की लहर नज़र आ रही है। पहली बार कश्मीर वादी इस दर्दनाक घटना के विरोध में बाक़ी देश के साथ खड़ी है। लोगों ने सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किए। इस बार भारत सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि बैसरन के भयानक हमले के खिलाफ। पहलगाम में टैक्सी चालकों ने तख्तियां पकड़ी हुईं थी, I Am Indian. वह नारे लगा रहे थे, ‘हम हिन्दोस्तानी हैं” और ‘हिन्दोस्तान हमारा है ‘। ऐसे दृश्य वादी में पहले नहीं देखे गए, तब भी नहीं जब सब कुछ सामान्य था। कश्मीर घाटी पाकिस्तान के खिलाफ बिल्कुल एकजुट थी। पाकिस्तान के खिलाफ प्रदर्शनों का नेतृत्व वही सिविल सोसाइटी कर रही थी जो कभी भारत सरकार के खिलाफ सड़कों पर निकलती थी। जिन मस्जिदों से कभी कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने की धमकी दी गई, उन्हीं मस्जिदों से मारे गए टूरिस्ट के प्रति शोक प्रकट किया गया और पाकिस्तान की निन्दा की गई। कई मस्जिदों में लोगों ने काली पट्टियां बांधी हुई थीं। जामिया मस्जिद में मौलवी मीरवाइज़ जो कभी अलगाववाद के प्रवक्ता थे, ने इस हत्या कांड के बाद कहा कि इस हमले ने लोगों के दिलों को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रदर्शन कर कश्मीर के लोगों ने आतंकवाद के प्रति अपनी पूर्ण अस्वीकृति प्रकट कर दी है। श्रीनगर के लाल चौक जहां कभी टूरिस्ट जाने से घबराते थे, वहां दुकानदारों ने हमले के विरोध में दुकानों के बाहर काले झंडे लगाए। कश्मीर के प्रमुख समाचार पत्रों ने मुख्य पृष्ठ को काला कर घटना का समाचार छापा।

यह बात कश्मीरियों को समझ आ गई है कि बुलेट उनकी रोज़ी रोटी पर भी चलाया गया। पिछले साल वहां 2.3 करोड़ टूरिस्ट आए थे। यह साल भी अच्छा चल रहा था कि गोलियां चला दी गईं। धारा 370 हटाए जाने के बाद कुछ देर बेचैनी रही थी पर बेहतर हुई स्थिति के कारण कश्मीरियों ने हालात से समझौता कर लिया था। इसके लिए उन्हें सबक़ सिखाया गया है। कश्मीर पर विशेषज्ञ लै.जनरल (रिटायर्ड) केजेएस ढिल्लों का साफ़ कहना है कि, “पहलगाम का हमला टूरिस्ट के खिलाफ नहीं था, वह कश्मीरियों की रोज़ी रोटी के खिलाफ था। आज स्थानीय लोग शान्ति प्रक्रिया में साझेदार हैं। वह पुराने काले दिनों में वापिस नहीं लौटना चाहते”।

कश्मीरियों को समझ आ गई है कि यह कोई जेहाद नहीं है। हमला सुरक्षा बलों पर या व्यवस्था पर नहीं किया गया। हमला निहत्थे लोगों पर किया गया। भारी संख्या में होटल और एयर बुकिंग रद्द कर दी गईं है। यह बड़ा धक्का है।होटल वाले से खच्चर वाले सब प्रभावित हैं। पहलगाम में ही रोज़ाना 10000 टूरिस्ट आ रहे थे। यह सब एकदम ग़ायब हो गया है। बाक़ी टूरिस्ट स्थल से भी यही समाचार हैं। अब वहां केवल ख़ाली बैठे स्थानीय लोग और सुरक्षा बल रह गए हैं। विधानसभा में पहली बार सर्वसम्मति से दहशतगर्दों के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित किया गया। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि 26 साल के बाद बिना किसी आह्वान के लोग बाहर निकले हैं। इस बदलाव को हमें क़ायम रखना है। उमर अब्दुल्ला का भाषण अत्यंत भावुक था। उनका कहना था, “मेज़बान होने के नाते सुरक्षा की ज़िम्मेवारी मेरी थी। इन के परिवारजनों से मैं कैसे माफी मांगूं? मेरे पास शब्द नहीं हैं…उन बच्चों से क्या कहूं जिन्होंने अपने वालिद को खून से सना हुआ देखा है ? उस नेवी अफ़सर की विधवा को क्या कहूं जिसकी शादी चंद दिन पहले हुई थी?”

चाहे उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि उनके पास शब्द नहीं हैं पर जो शब्द उन्होंने कहे वह एक अत्यंत संवेदनशील इंसान के शब्द हैं। आजकल तो हर असफलता के लिए दूसरे पर दोष डाला जाता है पर यहां वह आगे आकर ज़िम्मेवारी क़बूल कर रहे थे जबकि पुलिस या सुरक्षा बल उनके अधीन नहीं हैं। आजकल के माहौल में वह अपवाद है। उन्होंने खच्चर वाले सैयद अदिल हुसैन शाह की क़ुर्बानी का भी ज़िक्र किया। उसकी बहादुरी से पता चलता है कि वहां कैसा बदलाव आया है। उसके गरीब पिता का कहना था, “अदिल ने टूरिस्ट को बचाने के लिए जान दे दी, इसे कश्मीरियत कहते हैं”। उस दिन जो 26 मारे गए उनमें से केवल अदिल कश्मीरी था। उसने आतंकी का सामना कर पूछा कि वह बेक़सूरों को क्यों मार रहे हैं? उस समय दो परिवार हथियारबंद आतंकियों का सामना कर रहे थे। आतंकी को रोकने के लिए अदिल ने उसके हथियार छीनने की कोशिश की जिस पर उसे तीन गोलियां मारी गई और वहां ही उसकी मौत हो गई। एक गाइड ने 11 लोगों के परिवार को बचाया। पुणे से गए असावरी जगदाले ने बताया जब वह लोग उस अफ़रातफ़री के बचकर निकले तो कैब चालक और खच्चर वालों ने उन्हें बचाया। बरस रहीं गोलियों की परवाह किए बिना शॉल बेचने वाला साजिद बट्ट एक घायल को पीठ पर उठा कर भाग निकला और उसकी जान बचा दी।

अदिल अपने परिवार में एकमात्र कमाने वाला था। वह एक तरफ़ हट सकता था, आतंकी उसे कुछ नहीं कहते पर उसने आगे आकर उन्हें चैलेंज किया। उसकी बहादुरी का सम्मान न केवल जम्मू-कश्मीर सरकार बल्कि भारत सरकार को भी करना चाहिए। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि कई लोग इस घटना को लेकर साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। कई जगह कश्मीरी छात्रों को परेशान किया गया और हमले भी किए गए। कई अपने घर कश्मीर लौटने पर मजबूर हो गए। ऐसी घटनाओं से सख्ती से निपटना चाहिए। जो ऐसा कर रहे हैं वह न केवल देश का अहित कर रहे हैं पाकिस्तान के मक़सद को भी पूरा करने में लगे हैं। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जे.एफ.रिबेरो जिन्होंने पंजाब में आतंकवाद समाप्त करने में बड़ी भूमिका निभाई थी ने लिखा है, “आतंकवाद को समाप्त करने का एकमात्र रास्ता है कि उस समुदाय के दिल जीते जाएं जिनसे आतंकी आते हैं”। मैं स्वीकार करता हूं कि अतीत में कश्मीरियों ने भी बहुत ग़लतियां की हैं पर अगर अब वह बदलना चाहते हैं और मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए।

हमले करने के पाकिस्तान के दो बड़े मक़सद थे, कश्मीरियों की रोज़ी रोटी पर वार करना और देश में साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करना। इसीलिए टूरिस्ट को धार्मिक रूप पर निशाना बनाया गया। पाकिस्तान हिन्दू–मुस्लिम तनाव बढ़ता देखना चाहता है। हमें इस जाल में नहीं फंसना। आगरा से बहुत विचलित करने वाला समाचार मिला है जहां एक स्वयंभू गाय रक्षक ने बिरयानी बेचने वाले एक मुसलमान को गोली मार दी और फिर गर्व से कहा कि, “मैंने पहलगाम हमले का बदला ले लिया”। यह अत्यंत दुख की बात है कि राजनीतिक और धार्मिक नेता ऐसी हरकतों की निन्दा करने से घबराते हैं। जो लोग नफ़रत फैलाने में लगे हुए हैं वह देश विरोधी हैं। भारतीय जनता पार्टी पर बहुत ज़िम्मेवारी है। उन्हें यह प्रदर्शित करना है कि इस चुनौतीपूर्ण समय जब चीन और पाकिस्तान इकट्ठे समस्या खड़ी कर रहे हैं और दूसरे बड़े देश चुपचाप तमाशा देख रहे हैं,उनमें देश को एकजुट रखने की क्षमता है। जम्मू-कश्मीर के पूर्व वित्त मंत्री हसीब ऐ द्राबू ने इसे ‘टरनिंग पॉयंट’ कहा है क्योंकि आतंक का विरोध सिविल सोसाइटी कर रही है। इस मौक़े को हाथ से जाने नहीं दिया जाना चाहिए।

अंत में गुलमेहर कौर जिसके पिता 1999 में जम्मू-कश्मीर में आतंकियों से लड़ते शहीद हो गए थे ने सही कहा है कि आतंकवाद की सही पराजय तब होती है जब हम हिंसा को विभाजित नहीं करने देते। सबसे सशक्त हिमांशी नरवाल जिसके पति नौसेना अधिकारी विनय नरवाल को मार दिया गया था, की अपील है कि ‘हमें मुसलमानों और कश्मीरियों को टार्गेट नहीं करना चाहिए। हमें शान्ति चाहिए और मुझे न्याय चाहिए”। 9 आतंकी शिविरों पर ‘आप्रेशन सिंदूर’ के द्वारा एयर स्ट्राइक कर हिमांशी और दूसरे पीड़ितों को ‘न्याय’ देने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। पर वह हृदय विदारक दृश्य भूलना आसान नहीं जब स्तब्ध हिमांशी अपने मारे गए पति के शव के पास बेबस बैठी थी। कुछ दिन पहले विवाह हुआ था और बांह में चूड़ा नज़र आ रहा था। अपनी निजी त्रासदी को एक तरफ़ रख कर यह महिला अद्वितीय बहादुरी, संवेदनशीलता, देशभक्ति और समझदारी का परिचय दे रही है। ऐसी हालत में तो इंसान सुधबुध खो बैठता है पर वह देश को रास्ता दिखाने की कोशिश कर रही है। उसकी आवाज़ देश की अंतरात्मा की आवाज़ है, जो आवाज़ पिछले कुछ वर्षों में धीमी पड़ चुकी है।

हिमांशी जैसे युवा यह आशा देते हैं कि अभी कुछ बचा है, सब कुछ ख़त्म नहीं हो गया। पर यह अत्यंत दुख की बात है कि कुछ लोग हिमांशी के भी पीछे पड़ गए हैं। उसे ट्रोल किया जा रहा है। चरित्र हनन की कोशिश हो रही है यहां तक मांग की गई कि इस विधवा को उसके पति की पैंशन नहीं मिलनी चाहिए। जिन्होंने आजतक कभी बंदूक़ नहीं उठाई, आतंक का सामना नहीं किया ऐसे डिजिटल शूरवीर हिमांशी पर गिद्धों की तरह टूट पड़े हैं। अगर इनमें इतना जोश है तो इन्हें बीएसएफ़ में भर्ती कर पाकिस्तान सीमा पर भेज देना चाहिए। पर यह कैसा देश हमारा बन रहा है? यहां कोई सही बात नहीं कर सकता ?यह नफ़रत हमें कहां पहुंचाएगी? हम क्यों अपने दुश्मनों की मुराद पूरी करने में लगे हैं?

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