क्या गजब के म्युनिसपलिटी चुनाव हुए हैं कश्मीर घाटी के इलाके में पड़ने वाले दस जिलों की नगर पालिकाओं में कि इनमें से 598 वार्डों में से 420 में मतदान हुआ ही नहीं। इन 420 वार्डों में से 184 वार्डों में कोई प्रत्याशी खड़ा ही नहीं हुआ जबकि 236 वार्डों में अकेले प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिये गये। इस प्रकार कुल 25 नगर पालिकाओं में मतदान हुआ ही नहीं और जिन नगर पालिकाओं में नामचारे के चुनाव भी हुए उनमें आधी सीटें खाली पड़ी हुई हैं। अतः सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है कि इन चुनावों का क्या मतलब है जिनमें मतदाताओं की शिरकत ही नहीं हुई? कश्मीर घाटी में 1951 से लेकर अब तक हुए किसी भी चुनाव में इस बार सबसे कम 4.27 प्रतिशत मतदान हुआ है। इससे पहले 1989 के लोकसभा चुनावों में घाटी में सबसे कम 5.18 प्रतिशत मतदान रिकार्ड किया गया था जबकि उस समय आतंकवाद ने इस इलाके में जबर्दस्त तरीके से सिर उठा रखा था।
पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में चार चरणों में स्थानीय निकाय चुनाव सम्पन्न हुए जिनमें किसी प्रकार की हिंसक वारदात नहीं हुई। अतः इन चुनावों की एकमात्र उपलब्धि यही कही जा सकती है परन्तु जहां तक लोकतन्त्र का सवाल है वह घाटी में बदहाल नजर आया है किन्तु राज्य के जम्मू क्षेत्र में मतदान में उत्साह रहा और यहां 80 प्रतिशत तक मतदान रिकार्ड किया गया। राज्य की सम्पूर्णता में यह विरोधाभास चिन्ता का विषय माना जाना चाहिए। यदि कश्मीर की बारामूला नगर पालिका के एक वार्ड मंे केवल ‘तीन’ वोट पड़ते हैं और इनमें ‘दो’ वोट पाने वाला कांग्रेस का प्रत्याशी अपने भाजपा के ‘एक’ वोट पाने वाले प्रतिद्वन्द्वी के मुकाबले विजयी घोषित कर दिया जाता है तो इसे हम किस दृष्टि से देखेंगे? किसी वार्ड के हजारों मतदाताओं में से अगर केवल ‘तीन’ मतदाता ही वोट डालने आयें और उनका वोट एक ही प्रत्याशी को पड़े तो उसकी विजय निश्चित है लेकिन एेसी विजय के हम क्या मायने निकाल सकते हैं? अगर मतदाताओं के सामने मतदान के दिन तक प्रत्याशियों के नाम ही न खोले जायें और मतदान केन्द्र पर जाकर उन्हें पता लगे कि चुनाव में कौन-कौन उम्मीदावर जोर आजमा रहे हैं तो एेसे चुनावों की विश्वसनीयता को किस श्रेणी में रखेंगे?
एेसा नहीं है कि घाटी में अलगाववादियों ने चुनाव बहिष्कार की अपील पहली बार की हो परन्तु कई दशक बाद एेसा पहली बार जरूर हुआ है जब इस राज्य की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों विशेषकर नेशनल कान्फ्रेस और 1990 में बनी पीडीपी ने चुनावों के बहिष्कार की अपील की है। 2005 के म्युनिसपलिटी चुनाव और 2011 के पंचायत चुनावों के बहिष्कार की अपील अलगाववादी संगठन विशेष रूप से हुर्रियत कान्फ्रेस ने की थी। इसके बावजूद इन चुनावों में क्रमशः 45 प्रतिशत व 80 प्रतिशत मतदान हुआ था। इनमें 2011 के पंचायत चुनावों में 80 प्रतिशत तक मतदान होना इस तथ्य का सबूत था कि घाटी के ग्रामीण इलाकों में लोकतन्त्र की नींव कितनी गहरी और कितनी मजबूत है।
बेशक इन दोनों ही वर्षों में राज्य में चुनी हुई लोकप्रिय सरकारें थी मगर अलगाववादियों का रुख चुनाव बहिष्कार का ही था। इसका नतीजा क्या हम यह निकाल सकते हैं कि राज्य के क्षेत्रीय दलों के रुख और हुर्रियत कान्फ्रेंस जैसे अलगाववादी संगठन के रुख में कहीं कोई साझापन है? संभवतः एेसा नहीं है क्योंकि क्षेत्रीय दल 1974 के बाद (इंदिरा-शेख समझौता होने के बाद) से लगातार लोकतान्त्रिक प्रणाली में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं और आतंकवाद की समस्या 1989 से शुरू हुई है।
इस आतंकवाद ने क्षेत्रीय दलों के राजनैतिक ढांचे को तहस-नहस करने के लिए भी कहर ढहाया है और उसके स्थानीय नेतृत्व को अपना निशाना बनाने में उसने कोई कमी नहीं की। इसके बावजूद राज्य में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का आतंकवादी कुछ नहीं बिगाड़ सके। बेशक इन चुनावों में कांग्रेस व भाजपा ने शिरकत की मगर घाटी मंे केवल 4.27 प्रतिशत मतदान का होना बताता है कि इन दलों की इस इलाके में हैसियत हाशिये पर ही है क्योंकि इन्हें इस क्षेत्र की नगरपालिकाओं के हर वार्ड में प्रत्याशी तक नहीं मिल सका। लोकतन्त्र तभी सम्पूर्णता पाता है जब इसमें लोगों की शिरकत पूरे जज्बे के साथ हो और उनमें अपने मत के अनुसार प्रत्याशी को चुनने की चाह हो। जब लोकतन्त्र में विकल्प सीमित कर दिये जाते हैं तो वह अपनी विश्वसनीयता खो देता है। बेशक जिन 4.27 प्रतिशत लोगों ने मत देने का विकल्प चुना है उसका सम्मान भी होना चाहिए परन्तु यह 93.73 प्रतिशत लोगों की सुप्त आवाज की कीमत पर निकला हुआ नतीजा ही माना जायेगा। अतः लोकतन्त्र में एेसे चुनावों से सन्तुष्ट होने का कोई अर्थ नहीं है।
राजनैतिक रूप से यदि ये चुनाव इस महत्वपूर्ण राज्य के लोगों का किसी भी आधार पर विभाजन करते हैं तो वह गंभीर मसला है और इसे सुलझाने का प्रयत्न करने मंे अगर हम कोताही बरतते हैं तो वह हमारे राष्ट्रीय हित में किस प्रकार हो सकता है क्योंकि समूची जम्मू-कश्मीर रियासत का भारतीय संघ में विधिवत विलय हुआ था। अतः यह जरूरी था कि चुनाव घोषित करने से पहले पूरे राज्य में ऐसा वातावरण बनना चाहिए था खास कर घाटी में जिससे चुनावी राजनैतिक प्रक्रिया बेरोक-टोक और बिना किसी खतरे के पूरी हो सके। इसके लिए सुरक्षा व्यवस्था से लेकर चुनावी रस्मों रिवाज के माहौल को बनाने के प्रयास किये जाने जरूरी थे। सवाल यह है कि जब जम्मू क्षेत्र के 80 प्रतिशत लोग केवल भाजपा या कांग्रेस के प्रत्याशियों में से अपना विकल्प चुनने के लिए मतदान केन्द्रों तक जाने का सफर तय कर लेते हैं तो कश्मीर घाटी मंे केवल 4.27 प्रतिशत लोग ही क्यों यह जहमत उठाते हैं ? जाहिर है उन्हें अपने राजनैतिक विकल्प सीमित लगे। लोकतन्त्र के रक्षक चुनाव आयोग को इन मुद्दों पर विचार करना होगा।