लाल झंडे के वजूद का संकट - Punjab Kesari
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लाल झंडे के वजूद का संकट

2019 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के मैजिक की हर तरफ चर्चा है। राहुल गांधी की हार की

2019 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के मैजिक की हर तरफ चर्चा है। राहुल गांधी की हार की भी चर्चा जरूर होती है लेकिन वामपंथियों को लेकर आम लोग बहुत कम चर्चा कर रहे हैं। देश में  करीब 52 वर्षों से अपनी जड़ों को मजबूत किये वामपंथी  नेता इस लोकसभा चुनाव में पूरी तरह धराशायी हो गये। वामपंथी केवल 5 सीटों पर रह गए। 2014 के चुनाव में वाममोर्चा को 12 सीटें मिली थीं। इस बार केरल से उसे एक सीट जबकि तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन में शामिल होकर उसने चार सीटें जीतीं। वाममोर्चा अपने मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में खाता भी नहीं खोल सका। इससे स्पष्ट है कि लाल झंडे के वजूद पर ही संकट खड़ा हो चुका है। 
1967 में जब लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई थी तब 1967 के लोकसभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पहली बार 59 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ा और 19 सीटों पर जीत हासिल की। उसके बाद 1971 में अपनी सीटों में और इजाफा करते हुये लोकसभा चुनावों में 25 सीटों पर कब्जा जमा लिया। 1980 के चुनावों में तो वामपंथियों ने 37 सीटों के साथ देश में लाल झंडा लहरा दिया था। 90 का दशक भारत के लिये राजनीतिक इतिहास का सबसे खराब और अस्थिर दौर रहा। नरसिम्हा राव ने जैसे-तैसे बहुमत का जुगाड़ कर सरकार बनाई। 
1996 और 1999 के बीच देश में तीन बार चुनाव हुये लेकिन वामपंथियों ने राजनीतिक अस्थिरता में भी अपनी स्थिरता बनाये रखी।  2004 के चुनावों में भी माकपा को 43 सीटें हासिल हुई थीं। 2009 के चुनावों में वाममोर्चा केवल 16 सीटों पर रह गया। वामपंथी किले में जबरदस्त सेंधमारी हुई। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ को तृणमूल ने ध्वस्त कर दिया। दक्षिण भारत के अपने मजबूत गढ़ों में भी वाममोर्चा लगातार सिमटता रहा। 2014 में मोदी लहर ने वाममोर्चा को बहुत नुकसान पहुंचाया और इस बार तो उसका बचा-खुचा गढ़ केरल भी हाथ से निकल गया। 
केरल में वाममोर्चा को केवल एक सीट मिली है। तमिलनाडु एक प्रोग्रेसिव और धर्मनिरपेक्ष राज्य है। राज्य का इतिहास जीवा जैसे बड़े कम्युनिस्ट नेताओं और एस.पी. चिथन जैसे ट्रेड यूनियन नेताओं का रहा है। वहां द्रमुक के साथ मिलकर 4 सीटों पर जीत हासिल करना कोई हैरान कर देने वाली बात नहीं। केरल में सबरीमला मंदिर की परम्पराओं को बरकरार रखने के लिये चले आंदोलन के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने काफी मेहनत की। जिस तरह से सबरीमला मुद्दे को लेकर हिन्दू लामबंदी हुई वह केरल के लिये नई बात थी। हालांकि इसका फायदा भाजपा को मिलना चाहिये था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मेहनत भाजपा ने की लेकिन फायदा कांग्रेस को मिला। राहुल गांधी के वायनाड से चुनाव लड़ने का फायदा कांग्रेस को मिला। सबरीमला आन्दोलन तीन महीने चला। विजयन के नेतृत्व में एलडीएफ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू कराने के लिये भाजपा कार्यकर्ताओं को जेल में भी डाला। 
इस सबके बावजूद भाजपा लोगों के वोट को अपने पक्ष में तब्दील नहीं कर पाई। यह सही है कि लोग विजयन सरकार की नीतियों से नाराज थे। विजयन सरकार को सबक सिखाने के लिये उन्होंने कांग्रेस को बेहतर विकल्प समझा। कभी वामपंथियों की पंजाब में मौजूदगी थी। एक दौर ऐसा भी था जब इनकी टिकट पर पंजाब से कई बार सांसद और विधायक चुने गये। 1957 के लोकसभा चुनावों में संयुक्त पंजाब की झज्जर सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रताप सिंह सांसद चुने गये थे। 1971 के चुनावों में संगरूर और बठिंडा सीट जीती थी। 1977 के चुनाव में फिल्लौर संसदीय सीट भी जीती थी। अब पंजाब की राजनीति में भी कामरेड दिखाई नहीं देते। हर जगह उसके वोट प्रतिशत में भी कमी आई। पश्चिम बंगाल में भी उसके मत भाजपा को ट्रांसफर होते दिखाई दे रहे हैं। 
पश्चिम बंगाल में उसे केवल 7.47 फीसदी वोट मिले हैं। समय के साथ देेश का जनमानस बदलता गया लेकिन वामपंथी दलों ने अपना मानस नहीं बदला। तीन दशकों से दुनिया काफी बदल चुकी है लेकिन वामपंथ अपनी रूढ़िवादी नीतियों के चलते अमेरिकी विरोध पर अड़ा हुआ है। जिस सर्वहारा और हाशिये के समाज के पक्ष में वामपंथ लड़ता रहा है उनके लिये अनेक कल्याणकारी योजनायें चल रही हैं। पिछले पांच वर्ष में मोदी सरकार की योजनाओं का लाभ भी लोगों को ​िमला है। वाममोर्चा के भीतर की कलह भी असफलता के लिये पूरी तरह जिम्मेदार है। मतभेदों के चलते कई दिग्गजों को अपमानित किया गया और वे वाममोर्चा से अलग हो गये। वामदलों ने खुद को बदलने की कोशिश नहीं की। भारत में पैदा होकर भी उनके नेता भारतीयता से दूर भागते रहे।  साइकिल लेकर चलने वाले मेहनतकश कामरेड अब रहे नहीं। कामरेड भी अब कारों में घूमने लगे। ऐसे में भारतीयों ने उनसे दूरी बना ली।

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