राज्यपाल की भूमिका पर विवाद - Punjab Kesari
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राज्यपाल की भूमिका पर विवाद

राज्यपालों की भूमिका के बारे में विवाद खड़े होना भारत में कोई नई बात नहीं है लेकिन अब

राज्यपालों की भूमिका के बारे में विवाद खड़े होना भारत में कोई नई बात नहीं है लेकिन अब जो नई बात हो रही है वह यह है कि कुछ राज्यपाल अब चुनी हुई सरकारों के उन प्रशासनिक कार्यों में भी दखल देने के प्रयास करने लगे हैं जिनकी जिम्मेदारी संविधानतः पूरी तरह किसी भी राज्य के मुख्यमन्त्री या उसके मन्त्रिमंडल की होती है। पहले विपक्षी दलों को यह आम शिकायत राज्यपालों से हुआ करती थी कि वे केन्द्र की विशेष राजनैतिक दल की सरकार के कहने पर संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करके राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करते हैं। केन्द्र व राज्यों के सम्बन्धों के बारे में सरकारिया आयोग की सिफारिशों से लेकर समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों से भी निदेशक तालिका बनी। परन्तु राज्यपालों की नियुक्ति विशुद्ध राजनैतिक होती है अतः इसका आंशिक हल वाजपेयी सरकार के तत्कालीन गृहमन्त्री श्री लालकृष्ण अडवानी ने यह निकाला कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाये जाने के बाद उस फैसले की तसदीक संसद के दोनों सदनों द्वारा भी करानी पड़ेगी जिसके न होने पर राष्ट्रपति शासन निरस्त हो जायेगा।
भारत के लोकतन्त्र के हित में यह बहुत महत्वपूर्ण फैसला था। मगर इससे पहले 80 व 90 के दशकों में भारत में यह बहस भी चली थी कि किसी प्रदेश में राज्यपाल की नियुक्ति करने से पहले केन्द्र वहां के मुख्यमन्त्री से भी सलाह-मशविरा करके उसे विश्वास में ले। इस मुद्दे पर केवल बहस होकर ही रह गई मगर कोई ठोस नतीजा नहीं निकला और बात आयी-गई हो गई। संवैधानिक रूप से राज्यपाल की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति महोदय का है मगर भारत की संसदीय प्रणाली में इसे व्यवहारिक रूप में लागू करने के नियम भी जानते हैं। राज्यपालों का चुनाव केन्द्र सरकर द्वारा ही करके उन्हें नियुक्त करने की सलाह राष्ट्रपति को दी जाती है। बेशक राज्यपाल केवल राष्ट्रपति की प्रसन्नता के रहने तक ही अपने पद पर बना रह सकता है मगर वह भारत के संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है और किसी भी राज्य में संविधान का पालन होते देखना उसका दायित्व होता है। मगर उस स्थिति में क्या किया जा सकता है जब स्वयं राज्यपाल ही संविधान के दायरे से बाहर जाकर काम करने लगे और चुनी हुई सरकार के कार्यों में इस प्रकार अड़ंगा लगाने लगे कि उस जनता के वोट के अधिकार के कोई मायने ही न रहें जिसके बूते पर सरकार चुन कर आयी है।
यहां सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राज्यपाल विधानसभा का अंग नहीं होता जबकि राष्ट्रपति संसद के अंग होते हैं। अतः यह राज्यपाल के लिए जरूरी हो जाता है कि वह संविधान का शासन देखने की गरज से विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक अपने विचाराधीन न रखे। मगर तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि तो 2021 में इस राज्य के राज्यपाल निवास में जाने के बाद खुद को ‘राजाधिराज’ समझ रहे हैं और इस राज्य में अपनी समनान्तर सत्ता राजशाही की तरह ही चलाना चाहते हैं। हुजूर ने एक बार तो तमिलनाडु का नाम तक बदल दिया था। मगर विगत 8 जुलाई को इस राज्य की द्रमुक पार्टी के मुख्यमन्त्री श्री एम.के. स्टालिन ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सीधे पत्र लिख कर जो रवि की शिकायत की है वह स्वतन्त्र भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास की अनोखी घटना है। उन्होंने राष्ट्रपति को लिखा है कि आर.एन. रवि राज्य की शान्ति के लिए एक खतरा बन चुके हैं। किसी संवैधानिक मुखिया के पद पर बैठे व्यक्ति के लिए यदि किसी राज्य की जनता द्वारा चुना हुआ मुख्यमन्त्री इस प्रकार के उदगार व्यक्त करता है तो यह संविधान की नजर से ही यह बहुत बड़ा प्रश्न है। स्टालिन ने आर.एन. रवि द्वारा किये गये कार्यों की शिकायत की पूरी फेहरिस्त राष्ट्रपति के पास भेजी है और कहा है कि वह राज्य में साम्प्रदायिकता भड़काने का काम कर रहे हैं। पाठकों को याद होगा कि श्री रवि ने पिछले दिनों किस तरह आधी रात को स्टालिन सरकार के एक मन्त्री को बर्खास्त करने के आदेश जारी कर दिये थे जबकि मुख्यमन्त्री स्टालिन ने इस बाबत उनसे कोई सिफारिश नहीं की थी हालांकि उस मन्त्री पर भ्रष्टाचार के आरोप केन्द्रीय जांच एजेंसियों ने लगाये गये थे और उसे गिरफ्तार करके न्यायालय के सामने पेश भी कर दिया था। यह सीधे मुख्यमन्त्री के कार्य क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश था जिसकी वजह से राज्यपाल महोदय को एक घंटे बाद ही अपना आदेश निलम्बित करना पड़ा था।
राज्यपाल के औहदे पर बैठे व्यक्ति की ‘नीयत’ का बहुत महत्व होता है। इसी राज्य में दस वर्षों तक पंजाब के मुख्यमन्त्री रहे अकाली दल के श्री सुरजीत सिंह बरनाला भी राज्यपाल रहे और केन्द्र में अलग-अलग राजनैतिक दलों की सरकारें भी रहीं मगर चेन्नई में कभी पत्ते तक के खड़कने की आवाज नहीं सुनी गई। मगर जब से श्री रवि सिंहासन पर बैठे हैं हर महीने कोई न कोई नया विवाद चेन्नई से लेकर दिल्ली तक को खड़कता रहता है। राज्यपाल को विशेष अधिकार तभी संविधान देता है जब किसी राज्य की सरकार संविधान की शर्तों के दायरे में काम न कर रही हो अथवा वह बहुमत खो चुकी हो या उस राज्य में पूर्ण बहुमत की स्थायी सरकार बनना असंभव हो गया हो। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि किस राजनैतिक दल की बहुमत की सरकार है क्योंकि राज्यपाल का पद पूर्ण रुपेण ‘अराजनैतिक’ होता है। इसी वजह से किसी भी राज्यपाल की कोई नीति तो होती ही नहीं है (क्योंकि नीति तो केवल चुनी हुई सरकार की ही होती है) बल्कि केवल ‘नीयत’ होती है। और यह नीयत हर परिस्थिति में संविधान के दायरे में रहते हुए ही होनी चाहिए। श्री रवि को संविधान सभा में राज्यपाल के पद के सृजन के बारे में चली लम्बी बहस को एक बार जरूर पढ़ लेना चाहिए और राज्य में संविधान के संरक्षक के प्रतिनिधि के गौरव को कायम रखना चाहिए।

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