मेरा यह निश्चित मत रहा है कि भारत के उन हिन्दू तीर्थ स्थलों को देश के मुसलमानों को राष्ट्रहित व ‘मुत्तैहदा कौमियत’ के सिद्धांत में यकीन रखते हुए हिन्दुओं को स्वतः ही सौंप देना चाहिए जिनका उल्लेख हिन्दू धर्मशास्त्रों में पवित्र स्थलों के तौर पर हुआ है। शास्त्रों में विश्वनाथ धाम परिसर में ज्ञानवापी क्षेत्र का उल्लेख प्रमुखता से मिलता है अतः ज्ञानवापी मस्जिद की तामीर जाहिराना तौर पर मन्दिर पर ही की गई है। काशी या बनारस ऐसा ही क्षेत्र है जिसे हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भगवान शंकर की नगरी कहा गया है और इसके ‘विश्वनाथ धाम’ परिक्षत्र का विवरण कई हिन्दू धर्म ग्रन्थों में आता है। इससे भारतीय मुसलमानों का पूरे देश में सम्मान बढे़गा और दोनों मजहबों के लोगों के बीच कटुता के बीज बोकर जो तत्व साम्प्रदायिक राजनीति की विषबेल पूरे भारत पर फैला देने चाहते हैं उन्हें जबर्दस्त धक्का पहुंचेगा तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता को मजबूती मिलेगी। इस मुद्दे पर मुस्लिम उलेमा गौर फरमाएं और अपनी कौम के आगे बढ़कर सोचने का रास्ता खोजें। इसके साथ ही हिन्दुओं को भी इतिहास की कब्रें खोद कर पुरानी घटनाओं की आड़ में छिपना बन्द करना पड़ेगा और इस बहाने मुसलमानों के खिलाफ अनर्गल प्रचार करना बन्द करना होगा।
इतिहास में जो घट चुका है उसे वापस मोड़ा नहीं जा सकता और उसके अपने कारण थे। वे कारण सही या गलत हो सकते हैं मगर उनके लिए आज की पीढि़यों को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है और न ही इसके लिए उनसे प्रतिशोध लेने की भावना को पनपाया जा सकता है। एेसी सोच केवल जाहिल लोग ही पाल सकते हैं क्योंकि वे अतीत के सपने में जीना चाहते हैं। भारत तो वह देश है और इसकी हिन्दू संस्कृति इतनी उदार औऱ विभिन्न मत-मतान्तरों को मानने वाली है कि यहां एक मुसलमान फकीर साईं बाबा तक को पूजा जाता है। धर्मान्धता और कट्टरपन का भारत में कभी कोई स्थान नहीं रहा है। इसीलिए जिस हिन्दू की जो मर्जी होती है वह उसी देवता की मूर्ति स्थापित कर उसे पूजने लगता है। 33 करोड़ देवी-देवताओं को मानने वाले हिन्दू समाज में कुल देवता से लेकर ग्राम देवता और इष्ट देवता की परंपरा रही है और साथ ही पीर-फकीरों और ऋषि-मुनियों से लेकर पूजा-पाठ कराने वाले पंडितों और कुल पुरोहितों को भी लोग मानते रहे हैं।
यही भारत है जिसके हुसैनी ब्राह्मण मोहर्रम के दिनों में हजरत इमाम हुसैन की याद में ताजिये भी निकालते हैं हालांकि वे ब्राह्मण हैं। मगर किसी भी काल या समय में कोई भी कौम इतिहास में नहीं जी सकती है। बेशक इतिहास यह प्रमाण देता है कि 1669 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने फरमान जारी कर काशी के विश्वनाथ धाम में विध्वंस किया था और मथुरा के श्री कृष्ण जन्म स्थान मन्दिर स्थान पर भी तोड़-फोड़ की गई थी जिसकी वजह से मन्दिर की मूर्तियां राजस्थान के राजपूत राजा सुरक्षित निकाल कर ले गये थे। उदयपुर जिले के नाथ द्वारा मन्दिर में स्थापित कृष्ण भगवान की मूर्ति उन्हीं में से एक है। परन्तु यह उस समय की राजनीति का ही एक अंग था क्योंकि उसी औरंगजेब ने देहरादून के निकट सिखों के गुरु रामराय साहिब को गुरुद्वारे के लिए जमीन भी दी थी और अपने मराठा सिपहसालार आपा गंगा धर को दिल्ली के चांदनी चौक में गौरी शंकर मन्दिर बनवाने की इजाजत भी दी थी। फिर भी काशी का सम्बन्ध भारत की असमिता से जुड़ा हुआ है और ठीक ऐसा ही मामला मथुरा के कृष्णजन्म स्थान के बारे में भी है। हालांकि मथुरा का मामला काशी से अलग है। मगर भारत के मुसलमानों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे राष्ट्रहित में ये दोनों स्थान हिन्दुओं को साैंप दें और अदालती कार्रवाई न करें।
भारत चूंकि हिन्दुओं का भी उतना ही देश है जितना कि मुसलमानों का है अतःदोनों समुदायों में आपसी समझ का होना जरूरी है। अगर हमें इतिहास ही देखना है तो पंजाब में मनाई जाने वाले लोहड़ी त्यौहार का भी देखें जो केवल इसलिए मनाया जाता है कि दुल्हा-भट्टी युवक अपने क्षेत्र में होने वाले मुस्लिम आक्रमणों से बहू-बेटियों की रक्षा करते थे और खुद मुसलमान थे। हीर के प्रेम में दीवाना हुआ रांझा सब तरफ से निराश होकर नाथ सम्प्रदाय का जोगी हो गया था जबकि वह भी मुसलमान था। पंजाब के ही फकीर बुल्लेशाह और बाबा फरीद ने पंजाबियों को सिर्फ इंसान बनने की तौकीद की। बुल्ले शाह ने तो यहां तक कहा कि,
‘‘जो गल समझ लई तो रौला की
राम, रहीम ते मौला की।’’