लोकतन्त्र का संवैधानिक ढांचा - Punjab Kesari
Girl in a jacket

लोकतन्त्र का संवैधानिक ढांचा

देश के सुविख्यात कानूनविद श्री कपिल सिब्बल जब यह कहते हैं कि भारतीय…

देश के सुविख्यात कानूनविद श्री कपिल सिब्बल जब यह कहते हैं कि भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में न तो संसद सर्वोच्च है और न ही कार्यपालिका सर्वोच्च है, बल्कि यह संविधान है जिसे सर्वोच्चता प्राप्त है। भारत के संविधान निर्माता हमें जो विरासत सौंप कर गये हैं उसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका के कार्य करने के दायरे इस प्रकार सुनिश्चित हैं कि इन तीनों में कोई भी एक-दूसरे के कामों में हस्तक्षेप न करे मगर जहां तक न्यायपालिका का सवाल है तो उसे ही इस शर्त पर यह जिम्मेदारी दी गई कि वह देश में संविधान के शासन को कहीं से भी खतरा होने पर सचेत कर सके। इसके तार श्री कपिल सिब्बल के वक्तव्य से जाकर जुड़ते हैं। क्योंकि संविधान ही सर्वोच्च न्यायालय को यह जिम्मेदारी सौंपता है मगर इसका मतलब यह नहीं निकलता कि न्यायपालिका संसद से ऊपर मानी जाये या संसद न्यायपालिका से ऊपर समझी जाये। तर्क दिया जा सकता है कि संसद के पास कानून बनाने का अधिकार होता है अतः वह सर्वोच्च होती है मगर इसके साथ ही संविधान ही सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को संविधान की कसौटी पर कसने का अधिकार देता है लेकिन इसके साथ ही संविधान संसद को यह अधिकार देता है कि वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किये गये कानूनों की पुनः समीक्षा करके संविधान में संशोधन करके उन्हें वैध रूप में ला सके। अतः संसद को संवैधानिक संशोधन करने का अधिकार है तो न्यायपालिका को उसे संविधान की कसौटी पर कसने का अधिकार है। एेसा स्वतन्त्र भारत में कई बार हो चुका है।

सबसे पहले एेसी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता देने वाले संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रथम चुनावों से पहले ही पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा लाये गये पहले संविधान संशोधन के साथ हुआ। यह संशोधन अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तहत हिंसा उपजाने वाले विचारों की अभिव्यक्ति पर लगा। इस संशोधन को तब सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई जिसे तत्कालीन न्यामूर्तियों ने संविधान के अनुरूप पाया और वैध करार दिया। यह कार्य 1951 में ही हो गया। इसके बाद 1969-70 में जब एक अध्यादेश जारी करके तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अवैध घोषित किया मगर इन्दिरा जी ने तब संसद में संविधान संशोधन करके अपने निर्णय को लागू किया। एेसा ही पूर्व राजे-रजवाड़ों के प्रिविपर्स उन्मूलन के मामले में भी हुआ। अतः इससे सिद्ध होता है कि सर्वोच्च न्यायालय और संसद दोनों अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोच्च हैं मगर एेसा संविधान के दायरे में ही होता है। यह केवल संविधान ही है जो संसद और सर्वोच्च न्यायालय को अपनी वरीयता कायम करने के लिए देता है। संसद और सर्वोच्च न्यायालय एेसा करके क्या एक-दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप करते हैं? एेसा बिल्कुल भी नहीं हैं क्योंकि दोनों संस्थाओं ने अपने-अपने हकों के दायरे में रहते हुए ही संविधान के अनुरूप कार्य किया। अतः उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ का यह कहना कि सर्वोच्च न्यायालय सुपर संसद बन रहा है और वह संसद को निर्देश नहीं दे सकता तार्किक सत्य से परे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में संसद द्वारा पारित वक्फ संशोधन विधेयक की कुछ शर्तों पर सवालिया निशान लगाये हैं। इस पर भाजपा के सांसद निशिकान्त दुबे का यह कहना कि इससे धर्म युद्ध या गृहयुद्ध की स्थिति बन रही है। एेसा करके उन्होंने देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना का नाम लेकर उन पर इसकी जिम्मेदारी लादने का प्रयास किया है, वह संविधान सम्मत नहीं कहा जा सकता क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी सीमाओं के भीतर ही कार्य किया है। दरअसल यह बहस ही बेमानी है कि सर्वोच्च अदालत और संसद में कौन बड़ा है क्योंकि दोनों ही संस्थान संविधान से अधिकार लेकर ही अपना-अपना काम कर रहे हैं। मगर यह भी हकीकत है कि संसद के दायरे से कोई भी बड़े से बड़े संवैधा​िनक पद पर विराजमान व्यक्ति बाहर नहीं है। यहां तक कि संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति भी इसके दायरे में आते हैं। संसद का सीधा मतलब भारत के लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों की संस्था ही होता है। इस देश के लोगों ने ही 26 जनवरी, 1950 को संविधान को अपनाने का एेलान किया। अतः कह सकते हैं कि भारत के लोकतन्त्र में लोग ही सर्वोच्च होते हैं। इसी वजह से इसे गणतन्त्र भी कहा जाता है।

दूसरा मामला सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर ही सरकारों द्वारा उनके पास भेजे गये विधेयकों को तीन महीने की अवधि में निपटाने का है। इसे हम निर्देश नहीं कह सकते हैं क्योंकि राष्ट्रपति स्वयं उस संविधान के संरक्षक हैं जिसे भारत पर लागू किया गया। राष्ट्रपति का कर्त्तव्य भी संविधान को लागू होते देखना है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय का काम भी कमोबेश यही है। राष्ट्रपति किसी भी पेचीदा कानूनी मसले पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह ले सकते हैं। मगर इससे सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोच्चता कायम नहीं होती है। बल्कि इससे राष्ट्रपति के संविधान के संरक्षक होने को ही बल मिलता है। भारत में केन्द्र सरकार जो भी नया कानून बनाती है या पुराने कानूनों में संशोधन करती है उसे राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद ही लागू किया जाता है और सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को संविधान की कसौटी पर कसता है तो इससे सर्वोच्च न्यायालय के राष्ट्रपति से ऊपर होने का भाव नहीं जगता है। यह सब इसीलिए होता है क्योंकि संविधान इसकी इजाजत देता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने यह कहा है कि उन पर कार्यपालिका व विधायिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया जा रहा है। उनकी यह आशंका निराधार भी नहीं है क्योंकि निशिकान्त दुबे ने पुरानी सभी मर्यादाओं को तोड़ते हुए मुख्य न्यायाधीश पर ही आरोप लगा दिया है। उनके कथनों को देशवासी गंभीरता से नहीं लेते हैं । इसका प्रमाण उनके बयानों से उनकी पार्टी भाजपा द्वारा हाथ झाड़ लेना है। भारत के लोगों की एक विशेषता यह भी है कि उनका न्यायपालिका पर विश्वास अडिग है। यही वजह है कि भारत का लोकतन्त्र पूरी दुनिया में सबसे बड़ा है और भारत की न्यायपालिका का रुतबा विदेशों तक में बहुत ऊंचे पायदान पर रखकर देखा जाता है। इसकी व्यवस्था भी हमारे पुरखे ही संविधान बनाते समय करके गये हैं। भारत की रगों में उस सम्राट विक्रमादित्य का भी खून दौड़ता है जो न्याय की कुर्सी पर बैठते ही सब प्रकार के आग्रहों से दूर हो जाता था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

ten − nine =

Girl in a jacket
पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।