कांग्रेस अधिवेशन और मोदी की लोकप्रियता - Punjab Kesari
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कांग्रेस अधिवेशन और मोदी की लोकप्रियता

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में शुरू से ही तीन विचारधाराओं का आपसी द्वंद्व रहा…

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में शुरू से ही तीन विचारधाराओं का आपसी द्वंद्व रहा है। इनमें सर्वप्रमुख गांधीवादी समाजवाद की विचारधारा रही है उसके बाद कम्युनिस्ट विचारधारा रही और तीसरे नम्बर पर राष्ट्रवाद की विचारधारा रही। आजादी के 76 वर्षों में वर्तमान में राष्ट्रीय राजनीति का प्रमुख विमर्श राष्ट्रवाद बना हुआ है जिसकी कर्णधार सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी है। हाल ही में देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस का गुजरात के अहमदाबाद में राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ जिसमें राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने की कोशिश की गई। अगर बेबाक नजरिये से देखा जाये तो यह भाजपा की कांग्रेस के ऊपर स्पष्ट विजय है क्योंकि उसे भाजपा के विमर्श पर खेलना पड़ रहा है। इसका मतलब यह भी हुआ कि 2014 के बाद से जब से कांग्रेस सत्ता से खारिज हुई है, यह पार्टी अपना कोई एेसा विमर्श नहीं गढ़ सकी जिस पर आकर कांग्रेस या विपक्षी पार्टियों को आकर खेलना पड़े।

तर्क दिया जा सकता है कि विगत 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने संविधान के खतरे में आने का विमर्श खड़ा किया था और उस पर भाजपा को आकर खेलना पड़ा था। मगर यह तात्कालिक ही साबित हुआ जिसका लाभ कांग्रेस पार्टी को इस प्रकार मिला कि लोकसभा में इसकी सीटें 54 से बढ़ कर 99 हो गईं और भाजपा की सीटें 302 से घट कर 240 रह गईं। मगर लोकसभा चुनावों के बाद तीन राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा व दिल्ली में हुए चुनावों में कांग्रेस की करारी पराजय ने सिद्ध कर दिया कि संविधान बचाने का विमर्श तात्कालिक ही था जिसकी वजह से अपने अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस को राष्ट्रवादी विमर्श पर लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा।

इसकी मूल वजह यह है कि 2014 के बाद से प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार राजनीति के आधारभूत मानकों को बदला है, उसकी गिरफ्त से देश की राजनीति बाहर नहीं निकल पा रही है अतः विपक्षी पार्टियां हर चुनाव में स्वयं को चौराहे पर खड़ा पाती हैं। श्री मोदी ने अपनी पार्टी की मूल विचारधारा को जिस राष्ट्रवादी तेवर में ढाला है उसके मूल में हिन्दुत्व के होने की वजह से विपक्षी दलों को अपनी जमीन तलाशने में दिक्कत होती है। वास्तव में यह लड़ाई बिल्कुल नहीं है बल्कि भारत भूमि के प्रति समर्पण की कटिबद्धता की लड़ाई है क्योंकि भारत में धर्म परिवर्तन के साथ जिस प्रकार नागरिकों की आस्था की प्रतिबद्धताएं बदलती हैं उसका असर भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज पर पड़े बिना नहीं रहता।

भारत में जन्मे धर्मों के अनुयायी भारतीयों की आस्थाएं भारत में ही रहती हैं जबकि भारत से बाहर जन्मे धर्मों के अनुयायियों की आस्थाएं विदेशी धार्मिक स्थलों के प्रति हो जाती हैं। यहीं से यह मसला राष्ट्रवाद का स्वरूप लेता है जिसका प्रदर्शन हम स्वतन्त्रता के बाद से ही देखते आ रहे हैं। बेशक स्वतन्त्रता से पूर्व कांग्रेस पार्टी को भी अंग्रेज राष्ट्रवादी पार्टी मानते थे क्योंकि यह भारत को एक संघीय ढांचे का देश मानती थी। परन्तु भाजपा के संघीय ढांचे में समग्र अखंड भारत आता रहा है और इसका आधार हिन्दू तीर्थस्थलों का आपस में एक-दूसरे से जुड़ना रहा है। हिन्दू तीर्थ स्थल पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में रहे हैं। इसकी जड़ें हमें ब्रिटिश इंडिया में मिलती हैं। 1919 तक श्रीलंका इसका भाग था। 1935 तक म्यांमार इसका हिस्सा था और 1947 तक पाकिस्तान व बंगलादेश इसी का अंग थे। यदि और पीछे जाया जाये 1879 तक अफगानिस्तान भी ब्रिटिश इंडिया का भाग था।

हिन्दू राष्ट्रवाद के नजरिये से यह समग्र भू-भाग ही भारतीय खंड था। परन्तु अंग्रेजों द्वारा 1947 में जो हिस्सा भारत के रूप में सौंपा गया उसमें हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए शुरू में बहुत कम जगह थी और महात्मा गांधी जैसी महान हस्ती के होते हुए कांग्रेस की विचारधारा ही राष्ट्रीय विचारधारा बनी।

बाद में पं. जवाहर लाल नेहरू ने इसी विचारधारा को आगे बढ़ाया। परन्तु इस विचारधारा के समानान्तर भाजपा या जनसंघ की विचारधारा 1967 तक केवल उत्तर भारत को छोड़ कर अन्य राज्यों में अपनी पैठ नहीं बना सकी क्योंकि इन राज्यों की संस्कृति उत्तर भारत के राज्यों से पूरी तरह भिन्न थी। इन राज्यों के अधिकतर लोगों का खानपान व रहन-सहन एक जैसा ही था जिस पर धर्म की छाप नहीं थी। पिछली 6 अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी का स्थापना दिवस भी बीता है। हालांकि जनसंघ की स्थापना अक्टूबर 1951 में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी। परन्तु 1980 में जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की गई थी। जनता पार्टी में जनसंघ ने स्वयं को 1977 में विलय कर लिया था मगर 1980 के आते-आते यह पार्टी टूट गई और जनवरी 1980 में जो चुनाव हुए उनमें बची-खुची जनता पार्टी केवल 31 सीटें ही जीत पाई थी और इनमें से 16 सांसद जनसंघ खेमे के थे। उस समय भाजपा के संस्थापकों में एक मुस्लिम नेता मिर्जा सिकन्दर बख्त भी थे। वह इस पार्टी के उपाध्यक्ष भी रहे और बाद में बनी भाजपा नीत वाजपेयी सरकारों में विदेश व उद्योग मन्त्री भी रहे। मूलतः वह संगठन कांग्रेस से थे। उनकी पार्टी का भी 1977 में जनता पार्टी मेें विलय हो गया था।

मगर 1980 में भारतीय जनता पार्टी ने जिन पांच सिद्धान्तों को अंगीकार किया वे थे, राष्ट्रवाद, लोकतन्त्र, सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता, गांधीवादी समाजवाद और मूल्य आधारित राजनीति। तब से लेकर पार्टी इन्हीं सिद्धान्तों को लेकर चलने का दावा करती रही परन्तु 1984 के चुनावों में केवल दो सीटों पर सिमटने के बाद 1989 के चुनाव आने तक बीच में अयोध्या का राम मन्दिर निर्माण का मुद्दा उठने पर इसकी सीटें 60 से ऊपर होती गई और 1999 के चुनावों तक ये 180 से ऊपर तक पहुंच गईं।

दरअसल हिन्दुत्व के राष्ट्रवाद के पर्यायवाची बनने का यह एेसा दौर था जिसे अटल बिहारी वाजपेयी जैसा उदारपंथी नेता चला रहा था। 2014 में श्री मोदी ने इसी चेहरे का रंग-रूप पलटा और देश की जनता ने भाजपा को अपने बूते पर ही लोकसभा में बहुमत प्रदान कर दिया। मगर 2004 से 2014 के बीच भाजपा की सीटों में गिरावट बताती है कि भाजपा के राष्ट्रवादी विमर्श की उदारता को तब तक लोगों ने संशय की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया था। इस संशय को 2014 में श्री मोदी ने दूर करने में सफलता प्राप्त इस प्रकार की उन्होंने राजनीति के आन्तरिक नियामकों को ही बदल डाला। इसकी एक वजह यह भी रही कि 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस के पास कोई राष्ट्रव्यापी लोकप्रिय चेहरा नहीं था। 2014 के चुनावों में श्री मोदी ने बहुत चतुराई से इस खाली जगह को भरने में भी सफलता प्राप्त की और भाजपा को कांग्रेस के स्थायी विकल्प के रूप में बदल डाला।

अब कांग्रेस पार्टी यदि भाजपा को उसके बनाये विमर्श पर ही घेरना चाहती है तो उसे नाकामी का मंुह देखना पड़ सकता है। 1980 में गांधीवादी समाजवाद को अपनाने के बावजूद भाजपा को तब तक सफलता नहीं मिली जब तक कि उसने चरम राष्ट्रवाद को हिन्दुत्व के कलेवर में नहीं अपनाया। इसी प्रकार कांग्रेस को अपने ही विमर्श पर खेलने से सफलता मिल सकती है बशर्ते वह गांधी के सिद्धान्तों पर अडिग रहते हुए कम्युनिस्ट विचारों को आगे न बढ़ाये। कांग्रेस के राज में ही बाजारमूलक अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त अपनाया गया था जिसका असर आज हमें राजनीति पर सर्वत्र देखने को मिल रहा है। भाजपा को इससे कोई गुरेज नहीं है क्योंकि बाजारवाद का जनसंघ अपने स्थापनाकाल से ही समर्थक रहा है।

अतः कांग्रेस को भाजपा के विमर्श क्षेत्र में आकर खेलने के बजाय अपने ही विमर्श क्षेत्र में खेलना पड़ेगा। मगर इसमें सबसे बड़ी बाधा श्री मोदी की लोकप्रियता है। जिसके दो आयाम प्रमुख हैं। एक लोकमूलक व दूसरा भारत मूलक। इनकी तफ्सील फिर कभी करूंगा मगर इतना स्पष्ट है कि श्री मोदी ने जो विभिन्न जन कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं उनका लाभ देश के कम से कम 90 करोड़ लोगों को मिल रहा है। ये लोग ही भाजपा की रीढ़ बने हुए हैं।

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