कांग्रेस पार्टी के पिछले 137 वर्ष के गौरवशाली इतिहास में ऐसा समय बहुत कम देखने को मिला है जब इसका कोई शीर्षस्थ नेता ‘जन सरोकारों’ के ‘राष्ट्रीय मुद्दों’ से बेखबर होकर अपने पद के कर्त्तव्यों और दायित्वों से ‘बेपरवाह’ दिखाई पड़ा हो। यह कैसी विडम्बना है कि कांग्रेस ने अपने सबसे अधिक संक्रमण काल में लोकसभा में अपनी अगुवाई एक ऐसे नेता अधीर रंजन चौधरी के हाथों में सौंपी हुई है जिसके पार्टी के इतिहास से लेकर भारत के इतिहास तक के बारे में ज्ञान को कोई भी सड़क छाप नेता कभी भी चुनौती देने लगता है और लोकसभा में जिसके बोलने पर चारों तरफ उपहास का माहौल पैदा हो जाता है। क्या इसे कांग्रेस पार्टी की भीतरी राजनीति का अतर्द्वन्द समझा जाये या अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने की विधा। जिस ‘गीता प्रेस गोरखपुर’ को ‘गांधी शान्ति पुरस्कार’ देने के मुद्दे पर पूरे देश में कोहराम मचा हुआ है उस बारे में माननीय चौधरी का बयान आया है कि पुरस्कार देने वाली जिस पांच सदस्यीय सर्वोच्च समिति के वह सदस्य थे, उसने उन्हें पुरस्कार देने की प्रक्रिया में शामिल ही नहीं किया और न ही उन्हें इस बारे में कोई सूचना दी गई।
पुरस्कार चयन समिति के पांच सदस्य होते हैं। यह व्यवस्था 1995 में इस पुरस्कार की स्थापना के समय ही कर दी गई थी कि चयन समिति के अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होंगे और प्रधान न्यायाधीश के साथ लोकसभा में विपक्ष के नेता के अलावा दो सदस्य समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति होंगे। वर्तमान चयन समिति में लोकसभा अध्यक्ष को इसी कोटे से सदस्य बनाया गया। पुरस्कार का फैसला चयन समिति तभी कर सकती है जब कम से कम तीन सदस्य इसकी बैठक में शामिल हों। सवाल यह पैदा होता है कि समिति में विपक्ष के नेता के होते हुए यह अपना कार्य गुपचुप तरीके से किस प्रकार कर सकती है। संस्कृति मन्त्रालय से समिति के बारे में ‘बा-खबर’ रखने के लिए श्री चौधरी को किसने रोका था ? जब लोकसभा में सबसे बड़े विरोधी दल का नेता होने के कारण उन्हें विपक्ष के नेता की हैसियत सभी संसदीय व्यावहारिक कार्यों के लिए बख्शी गई है तो उन्हें अपना काम और भी ज्यादा जिम्मेदारी के साथ हमेशा जागरूक व सचेत होकर करना चाहिए था। मगर क्या कयामत है कि मान्यवर चौधरी कह रहे हैं कि उन्हें अंधेरे में रखकर पुरस्कार की घोषणा कर दी गई। एेसा करके शायद चौधरी सोच रहे हैं कि उनकी पार्टी उन्हें सन्देह का लाभ दे देगी और जनता में यह सन्देश पहुंचेगा कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी लोकतान्त्रिक नियमों की धज्जियां उड़ाने में विश्वास रखती है मगर इससे वह खुद ही अपने निकम्मेपन और अकर्मण्यता को जगजाहिर कर रहे हैं और बता रहे हैं कि वह इस सम्मान के योग्य नहीं हैं जो कांग्रेस पार्टी ने उन्हें ‘अता’ किया हुआ है। यह तो ऐतिहासिक तथ्य है कि गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार को ‘गांधी हत्याकांड’ में गिरफ्तार किया गया था और वह ‘मनुस्मृति’ के कट्टर समर्थक थे। श्री चौधरी क्या विपक्षी नेता की हैसियत पाकर इतनी गफलत में भर गये थे कि उन्हें इस बात की खबर ही नहीं थी कि जिस हैसियत की वजह से उन्हें विभिन्न सरकारी चयन समितियों में शामिल किया गया है उनके प्रति उनकी नैतिक व संवैधानिक जिम्मेदारी क्या होती है?
गीता प्रेस को 2021 का गांधी शान्ति पुरस्कार दिया गया है। आजादी के बाद से कांग्रेस पहली बार विपक्ष में नहीं बैठी है। 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद जब प्रथम बार यह पार्टी अपने लगभग डेढ़ सौ सासंदों के साथ विपक्ष में आयी थी तो इसके नेता केरल के स्व. सी.एम. स्टीफन थे। वह हिन्दी बहुत कम जानते थे मगर उन्होंने लोकसभा में दिये गये अपने भाषणों से पूरी संसद को न केवल हिला दिया था बल्कि पूरे भारत को झकझोर भी दिया था। गीता और रामायण को संसद में उद्घृत करके उन्होंने भारतीय व हिन्दू संस्कृति के उन तारों को सस्वर झनझना दिया था जो इस देश की पहचान समझे जाते हैं। उन्होंने लोकसभा में श्रीमती इंदिरा गांधी की अनुपस्थिति का एहसास ही नहीं होने दिया था क्योंकि 1977 में वह रायबरेली लोकसभा सीट से अपना चुनाव हार गई थीं।
लोकसभा में विपक्ष के नेता का रुतबा कितना ऊंचा होता है इसके बारे में किसी और को नहीं मगर सबसे पहले कांग्रेस पार्टी को ही सोचना चाहिए। मगर क्या दिल्लगी हो रही है कांग्रेस पार्टी से कि इसका लोकसभा का नेता खुद इकरार कह रहा है कि हुजूर मैं काबिल हूं मुझे तो मेरी लापरवाहियों ने ही ‘झाड़’ पर चढ़ा रखा है। भारत में चुनावी वर्ष चल रहा है और चौधरी के खाते में लोकसभा में दिया गया एक भी बयान एेसा नहीं है जिसे कांग्रेस पार्टी अपने ‘जन-विमर्श’ का हिस्सा बना सके, उल्टे ऐसे बयान जरूर मिल जायेंगे जिनका उपयोग भाजपा अपने विमर्श में करती रहती है। खुदा खैर करे-