कांग्रेस घोषणापत्र और जनता - Punjab Kesari
Girl in a jacket

कांग्रेस घोषणापत्र और जनता

NULL

कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र से साफ कर दिया है कि वर्तमान लोकसभा चुनाव आम जनता और राजनीति द्वारा रचे जा रहे उस ‘मायाजाल’ के बीच में हो रहे हैं जिसमें संविधान द्वारा प्रदत्त एक वोट के अधिकार की सामर्थ्य और शक्ति को आसमानी चकाचौंध की भेंट चढ़ाने की करामात हो रही है। पार्टी अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के इस वक्तव्य का स्वागत किया जाना चाहिए कि हिन्दोस्तान की ‘असलियत’ ही चुनावों का एजेंडा हो सकती है। अतः घोषणा पत्र में प्रथक किसान बजट का प्रवधान आज के भारत की जरूरत है और केन्द्र सरकार की खाली पड़ी 22 लाख नौकरियों को भरना कुलबुलाती नौजवानी की मांग है। राजनैतिक दलों के घोषणापत्र राष्ट्रीय विकास की दिशा तय करने के दस्तावेज होते हैं जिसमें प्रत्येक हिन्दोस्तानी के लिए जगह होनी चाहिए।

इसलिए सबसे अन्तिम पायदान पर खड़े 20 करोड़ लोगों को यदि कांग्रेस पार्टी प्रत्येक महीने छह हजार रु. उनके खातों में डलवाने का वादा करती है तो इसे गरीबों के सशक्तीकरण का एेसा जरिया माना जायेगा जिसे वर्तमान बाजार मूलक अर्थव्यवस्था लगातार अनदेखा करती रही है परन्तु सबसे खुशी की बात यह है कि 1991 में आर्थिक उदारवाद शुरू करने वाली कांग्रेस पार्टी ने स्वयं सार्वजनिक संस्थानगत विकास प्रक्रिया की महत्ता को समझा है और घोषणा की है कि वह शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी संस्थानों को मजबूत करेगी और सकल उत्पाद का छह प्रतिशत इस पर खर्च करेगी। बदलते भारत में इसके लिए कांग्रेस पार्टी का घोषणापत्र लिखने वाली विद्वान राजनीतिज्ञों की पूरी टीम बधाई की पात्र है क्योंकि पहली बार इस देश में ऐसा हुआ है कि किसी राजनीतिक पार्टी ने अपने घोषणापत्र में शिक्षा को एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना है।

शिक्षा को जिस तरह पिछले तीस साल के दौरान बाजार में बिकने वाली सामग्री बना दिया गया है उससे औसत भारतीय की अपने बच्चों को स्तरीय व उच्च शिक्षा दिलाने की क्षमता टूट चुकी है और इसे सेठों ने नया उद्योग बना दिया है जिसमें शानदार मुनाफा होता है। यदि अपने सकल उत्पाद का हम छह प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर खर्च करते हैं तो मोटे हिसाब से यह दस लाख करोड़ के करीब आयेगा। इतनी धनराशि से तो हम पूरे देश में शिक्षा क्रान्ति लाकर राष्ट्रपति और चपरासी के बेटे को एक समान स्तरीय शिक्षा देने में निकट भविष्य में समर्थ हो सकते हैं। ऐसा होने पर भारत स्वयं वैज्ञानिक सोच का आधुनिक राष्ट्र बन जायेगा जिसमें किसी गरीब के बच्चे की मेधा आर्थिक अभाव की वजह से कचरा या कूड़ा बीनने में नष्ट नहीं होगी।

भारत को समर्थ और शक्तिवान बनाने का यह ऐसा रास्ता है जिसकी कल्पना कभी महात्मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू ने ही नहीं बल्कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और सरदार भगत सिंह ने भी की थी। यही हालत स्वास्थ्य क्षेत्र की भी है इसका भी बाजार इस तरह फला-फूला है कि इस क्षेत्र में लगी बीमा कम्पनियों का निजी अस्पतालों से बना अपवित्र गठजोड़ गरीब बीमार मरीज के शरीर के अंगों का ही बड़ा बाजार विकसित कर रहा है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर सबसे पहला हक गरीबों का ही होता है और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी सरकार की होती है लोकतन्त्र में सभी नागरिकों को शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा देना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होती है जिसे वह निजी क्षेत्र के जिम्मे नहीं छोड़ सकती, क्योंकि निजी क्षेत्र का जो भी विकास होता है वह सकल राष्ट्रीय सम्पत्ति स्रोतों के जरिये ही होता है और उन पर सबसे गरीब और सबसे अमीर आदमी का बराबर का हक होता है।

अतः सरकार की ही यह जिम्मेदारी होती है कि वह गरीब आदमी का हक उसे जायज तरीके से दिलाये लोकतन्त्र में अपने एक वोट से अपनी सरकार गठित कराने वाले गरीब आदमी को यह अधिकार संविधान ही देता है कि वह सरकार से कहे कि ‘मेरा हक–इत्थे रख’ यदि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को भी भारत में निजी क्षेत्र के जिम्मे छोड़ दिया जाता है तो फिर सरकार की क्या जरूरत है ? दरअसल हमने जिस गलत राह को आर्थिक उदारीकरण के जोश में पकड़ा है उसी की वजह से आज बैंकों के दस लाख करोड़ रु. से अधिक मिट्टी बन चुके हैं और विजय माल्या से लेकर नीरव मोदी जैसे लोग आज भारत की प्रभुसत्ता को मुंह चिढ़ा रहे हैं। जबकि किसी किसान द्वारा अपना कर्जा अदा न करने की सूरत में यही बैंक उस पर फौजदारी की दफाएं लगा कर उसे जेल में बन्द करा देते हैं और उसकी सम्पत्ति को कुर्क करा लेते हैं। कांग्रेस घोषणापत्र में किसी कर्जदार किसान के ऊपर फौजदारी की दफाएं लगाने को हटाने का वादा किया गया है।

इस सन्दर्भ में मुझे अभी तक के आजाद भारत के सबसे बड़े किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह की याद आ रही है जो कहा करते थे कि किसान कर्जा न दे तो ‘चोर’ और पूंजीपति कर्जा न दे तो ‘शाह’ गौर से देखा जाये तो राहुल गांधी की सदारत में जारी हुआ यह घोषणापत्र हमें पं. नेहरू और इन्दिरा गांधी की कांग्रेस की याद दिलाता है जिसमें भारत के समावेशी विकास का वादा हुआ करता था और गरीबी को सीमित करने के उपाय इस प्रकार होते थे कि सरकार स्वयं शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों की भरपाई करने की जिम्मेदारी ले और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों को राजनीतिक नेतृत्व की दूरदर्शिता और राष्ट्रीय समर्पण पर छोड़े। इस मोर्चे पर भारत के लोगों का माथा हमेशा ऊंचा रहा और विज्ञान से लेकर शस्त्र-शास्त्र में हमने प्रगति के नये-नये अध्याय लिखे और इस तरह लिखे कि 1971 में भारत से दुश्मनी दिखाने वाले पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो टुकड़ों में बांट कर फेंक दिया और स्वयं को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र भी 1974 में ही घोषित कर दिया।

हम जो आज कृषि क्षेत्र में बहुतायत में उत्पादन की समस्या से जूझते हुए किसान आत्महत्याओं के दौर से गुजर रहे हैं उसका मूल कारण बाजार की वे शक्तियां ही हैं जिन्होंने किसानों की उपज को मुफ्त में मिली सौगात समझ रखा है वरना कोई बताये कि किसी फैक्ट्री में बनी लोहे की कील 70 रु. किलो और चार महीने तक खेत में खून-पसीना बहा कर उगाये गये आलू की कीमत किसान को मुश्किल से पांच रु. किलो ही मिल पाती है। इसलिए ‘किसान बजट’ का होना रेल बजट के होने से बहुत जरूरी है। पता नहीं क्यों अभी तक हम कृषि मूलक भारत में कृषि बजट की आवश्यकता से मुंह चुरा रहे थे। जब 60 प्रतिशत भारतीय खेती पर ही निर्भर हों तो भारत का बजट खेतों से होकर ही गुजरेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *


Girl in a jacket
पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।