स्वतन्त्र भारत की राजनीति में जब-जब भी धर्म या जातिगत समूहों के आधार पर मतदाताओं को गोलबन्द करने का प्रयास हुआ है तब-तब ही सामाजिक व आर्थिक आधार पर सामान्य नागरिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है परन्तु जिस तरह पिछले तीस वर्षों में राजनीति इन्हीं दोनों खम्भों के इर्द-गिर्द घूमती रही है उसमें ये दोनों ही उपाय एक-दूसरे की काट बनकर सामने आये हैं। मंडल आयोग को जब 1989 में स्व. वी.पी. सिंह ने लागू किया था तो उसे उस समय चल रहे राम मन्दिर आन्दोलन की काट के रूप मे ‘कमंडल के विरुद्ध मंडल’ को देखा गया था। यह भाजपा के उदय और कांग्रेस के पराभव काल के रूप में भी देखा गया। इसकी वजह यह थी कि देश को आजादी दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी का वोट आधार हथियाने के लिए जातिगत आधार पर क्षेत्रीय दलों का उदय इस प्रकार हुआ कि यह पार्टी उत्तर भारत में हाशिये पर एक पर्यवेक्षक की भूमिका में आ गई परन्तु मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ समाहित) व राजस्थान आश्चर्यजनक रूप से एेसे राज्य रहे जिनमें अर्ध सामन्ती समाज होने के बावजूद जातिगत दलों की दाल नहीं गल पाई।
यह छोटा विरोधाभास नहीं है कि उत्तर भारत के जो राज्य अपेक्षाकृत अधिक प्रगतिशील समझे जाते थे और जिनमें सामन्ती प्रभाव (पूर्व राजा-महाराजाओं की रियासतें) कम थीं वहां जातिवादी दल अपनी जमीन बनाने में कामयाब हो गए। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा प्रमुख रूप से आते हैं। जातिगत आधार पर मतदाताओं की गोलबन्दी करके राजनीति में जो सफलता क्षेत्रीय दलों जैसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल आदि को मिली वह साम्प्रदायिक आधार पर हुई गोलबन्दी का एेसा जवाब था जिसमें अल्पसंख्यक समाज विशेषकर मुस्लिम समाज के लिए अपनी राजनीतिक हैसियत को जताना भारी पड़ने लगा था और इसने कोई दूसरा विकल्प न देखते हुए क्षेत्रीय जातिगत दलों का पल्ला पकड़ना ही बेहतर समझा परन्तु किसी भी लोकतन्त्र की राजनीति का यह स्थाई भाव नहीं हो सकता क्योंकि इस प्रकार बने सत्तारूढ़ गुटों या दलों में कभी भी भारत का समावेशी स्वरूप नहीं समा सकता किन्तु कांग्रेसी नेताओं ने जिस प्रकार ब्राह्मण समाज के सम्मेलन में हरियाणा में शिरकत करके इस प्रकार की राजनीति को स्थायी भाव देने का प्रयास किया है वह कांग्रेस की संस्कृति से दूर-दूर तक मेल नहीं खाता है।
तात्कालिक लाभ के लिए एेसे वर्ण या जाति मूलक सम्मलेनों में जब कोई राष्ट्रीय स्तर का राजनीतिज्ञ जाकर उसकी महत्ता बढ़ाता है तो वह समूचे समाज (हिन्दू-मुस्लिम-इसाई-सिख आदि) के शेष वर्गों को अपनी-अपनी जाति के आधार पर गोलबन्द होने का उत्प्रेरक बन जाता है। ब्राह्मण हों या वैश्य, क्षत्रिय अथवा दलित वर्ग के लोग, सभी की हैसियत एक बराबर होती है और सभी के पास केवल एक वोट का अधिकार होता है। चुनाव आयोग में पंजीकृत कोई भी राजनीतिक दल जातिगत आधार पर सम्मेलनों का आयोजन नहीं कर सकता और न ही धार्मिक आधार पर हिन्दू या मुस्लिम सम्मेलनों का आयोजन कर सकता है। अतः इस प्रकार के सम्मेलनों में जब कोई राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का नेता जाता है तो वह जातिगत या धार्मिक आधार पर भेद समझने को जायज ठहराने लगता है जबकि भारतीय संविधान एेसे भेद को पूरी तरह नकारता है और जाति आधार पर गैर-बराबरी समाप्त करने की ताईद करता है। यही वजह थी जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी एनडीए सरकार के प्रधानमन्त्री बने थे तो उन्हें ब्राह्मण समाज के सम्मेलन का बुलावा आया था। इसका जिक्र उन्होंने स्वयं लोकसभा में करते हुए कहा था कि “मुझे ब्राह्मण समाज की तरफ से हो रहे सम्मेलन के सम्मान समारोह में बुलाया गया है। मैंने उसे अस्वीकृत कर दिया। इसमें यदि आज मैं चला गया तो कल को कान्यकुब्ज ब्राह्मण समाज की तरफ से बुलावा आता है तो क्या करूंगा (वाजपेयी जी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे)। राजनीतिज्ञों का एेसे सम्मेलनों में जाना उचित नहीं है।”
इसी प्रकार जब मनमोहन सरकार के दौरान पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी रक्षामन्त्री बने तो उन्हें सीधे ही कान्यकुब्ज ब्राह्मण सभा का निमन्त्रण आ गया। उन्होंने भी इसे स्वीकार नहीं किया। सवाल यह है कि राजनीतिज्ञ का जन्म किसी भी जाति में हो सकता है मगर राजनीति की कोई जाति नहीं होती अतः राजनीतिज्ञ की भी कोई जाति नहीं होती मगर कुछ लोग जातियों को पकड़ कर बैठ जाते हैं और उसी में अात्मगौरव का अनुभव करने लगते हैं जबकि उन्हें भी मालूम होता है कि भारतीय संस्कृति में जाति एेसा अभिशाप है जो इसके मानवतावाद के सिद्धान्त को तहस-नहस करता है परन्तु ठीक इसके विपरीत मध्यप्रदेश में कांग्रेस अध्यक्ष श्री कमलनाथ ने जो तीक्ष्ण तार्किकता दिखाई है वह इस देश की मिली-जुली संस्कृति का व्यावहारिक पक्ष है। उन्होंने घोषणा की है कि यदि उनकी पार्टी राज्य में सत्ता में आती है तो वह हर ग्राम पंचायत में गौशाला बनायेगी। इसमें कहीं भी किसी को एेतराज नहीं हो सकता क्योंकि इस देश में आज ‘गाेरक्षकों’ की नहीं बल्कि ‘गोपालकों’ की जरूरत है। मध्यप्रदेश तो एेसा राज्य है जिसके कण-कण में भारत की महान संस्कृति के अवशेष बिखरे पड़े हैं। इस राज्य में गाय और गांव अलग–अलग करके नहीं देखे जाते हैं।
अतः प्रत्येक पंचायत में गौशाला का निर्माण सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से धर्म मूलक न होकर संस्कृति मूलक होगा परन्तु सामाजिक चेतना में भी यह राज्य पीछे नहीं रहा है और खेती का ढंग जिस तरह से बदल रहा है और इसका तेजी के साथ मशीनीकरण हो रहा है उसे देखते हुए गाय के दुधारू न रहने पर उसका पालन-पोषण गंभीर समस्या भी बन चुकी है। बेहतर होता श्री राहुल गांधी विभिन्न वर्णों और जातियों में बंटे समाज की समस्याओं के निवारण के लिए कोई एेसी ही तकनीक निकालते मगर उनके अतिउत्साही सलाहकारों और कारिन्दों ने तो यहां तक कह डाला कि कांग्रेस के डीएनए में ब्राह्मण तत्व हैं। यह वाहियात तर्क है और कांग्रेस पार्टी की प्रतिष्ठा पर दाग लगाने वाला कथन है। यदि कांग्रेस का कोई डीएनए पूर्व में रहा है तो वह केवल ‘कौमी इत्तेहाद’ का रहा है। एेसी प्रतिगामी सोच वाले लोगों की पहचान श्री राहुल गांधी जितनी जल्दी कर लें उतना ही देश की राजनीति के लिए बेहतर होगा। उन्हें याद रखना चाहिए कि वह उन जवाहर लाल नेहरू के वंशज हैं जिनके नाम से पहले पंडित जरूर लगता था मगर वह ब्राह्मणवादी पोंगापंथी परंपराओं के सख्त खिलाफ थे और मानते थे कि एक मेहतर और एक ब्राह्मण को एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन खाना चाहिए। जन्म या जातिगत आधार पर कोई भी व्यक्ति पूज्य या बड़ा नहीं हो सकता।