क्या कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने अपने अच्छे कामों पर खुद ही पानी फेरने की कला सीख रखी है? पार्टी के वरिष्ठ नेता व मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री दिग्विजय सिंह की बयानबाजियों को देखकर तो यही कहा जा सकता है। एक तरफ जब श्री राहुल गांधी अपनी भारत-जोड़ो यात्रा के अन्तिम चरण में जम्मू- कश्मीर में हैं और चार महीने पहले कन्याकुमारी से शुरू हुई उनकी यात्रा ने पूरे देश में एक वैकल्पिक राजनैतिक विमर्श खड़ा करने में भी सफलता प्राप्त कर ली है तो श्री दिग्विजय सिंह द्वारा इस पूरी मेहनत पर पानी फेरते हुए पुराने विवादास्पद मुद्दों को हवा देने का क्या अर्थ निकाला जा सकता है? पाकिस्तान के खिलाफ 2019 में भारतीय सेना द्वारा की गई बालाकोट कार्रवाई जिसे ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के नाम से जाना जाता है, उसके सबूत मांग कर श्री दिग्विजय सिंह क्यों अनाश्यक रूप से सेना को राजनीति में लाना चाहते हैं जबकि एक नेता होते हुए उन्हें यह भलीभांति मालूम होगा कि भारत के लोग राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में सेना को घसीटना जरा भी पसन्द नहीं करते। इसी प्रकार उन्होंने 2019 के चुनावों से पहले हुए पुलवामा कांड पर भी सवाल उठाते हुए मोदी सरकार द्वारा उसके सबूत अभी तक संसद में न रखे जाने का मसला उठाया। पुलवामा एक आतंकवादी कार्रवाई थी जिसमें भारतीय शस्त्र बलों के 40 जवान शहीद हुए थे। राहुल गांधी ने दिग्विजय के बयान से असहमति जताते हुए साफ कहा कि सेना के शौर्य पर सवाल उठाना सही नहीं है। कांग्रेस पार्टी ने भी उनके बयान से किनारा कर िलया है।
मूल सवाल यह है कि श्री सिंह गड़े मुर्दे उखाड़ कर कौन सा राजनैतिक पैंतरा चलना चाहते हैं? क्या उन्हें उम्मीद है कि इन दोनों मुद्दों पर वह देशवासियों का नजरिया बदल सकते हैं। यदि वह एेसा सोचते हैं तो भारत के जनमानस को नहीं पहचानते। भारतीयों की सोच तो यह है कि जब 1962 में भारत चीन के मुकाबले युद्ध भी हार गया था, तब भी भारत के लोगों की सोच यही थी कि भारतीय सेना ने चीनी सेनाओं का मुकाबला पूरी वीरता और शौर्य के साथ किया था। उनके हौंसले व कर्त्तव्य पराणयता में कोई कमी नहीं थी। राजनीतिज्ञों का पहला कर्त्तव्य होता है कि वे अपने देश की सेनाओं के सम्मान को किसी भी शक से ऊपर रखने के लिए अपनी दल-गत राजनीति को एक तरफ रखें। अतः बड़ा ही स्पष्ट है कि सेना की कार्रवाइयों पर राजनीति नहीं की जा सकती और न उसकी कार्रवाई की ओट में कोई राजनीतिक बिसात बिछाई जा सकती है।
सेना का मुख्य कार्य देश की सरहदों की सुरक्षा करना होता है और यह काम वह अपना सर्वस्व बलिदान करके भी निभाती है। मगर एक प्रश्न और भी खड़ा होता है कि क्या कांग्रेस पार्टी के भीतर नेताओं द्वारा सार्वजनिक बयानबाजी करने का कोई मानक सिद्धान्त भी है? राजनैतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का यह मतलब नहीं होता कि कोई भी नेता किसी भी राष्ट्रीय राजनैतिक मुद्दे या विषय पर अपनी पार्टी के सुविचारित विमर्श से अलग कुछ भी बोल दे। श्री दिग्विजय सिंह ने तो यह बयानबाजी भारत-जोड़ो यात्रा के दौरान ही जम्मू क्षेत्र के ही सतवारी इलाके में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए की। उन्हें कम से कम यह विचार करना चाहिए था कि राहुल गांधी जिस उद्देश्य के लिए यह यात्रा कर रहे हैं क्या उसके किसी विचार तारतम्य में उनका यह बयान सही बैठता है? जब श्री गांधी स्वयं यह लगातार कह रहे हैं कि उनकी इस यात्रा का उद्देश्य राजनैतिक नहीं है और वह देश की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए वैकल्पिक विमर्श खड़ा करने के लिए निकले हैं तो इसमें बालाकोट व पुलवामा कहां से आ गया? अतः जाहिर तौर पर कांग्रेस के नेता जयराम रमेश को उनके इस बयान से पार्टी को अलग करना पड़ा और कहना पड़ा कि पार्टी श्री सिंह के विचारों से सहमत नहीं है। भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी का अपना गौरवशाली इतिहास व परंपराएं रही हैं। स्वतन्त्रता पूर्व महात्मा गांधी के समय से ही इस पार्टी में आन्तरिक लोकतन्त्र जम कर रहा है और इस हद तक रहा है कि स्वयं महात्मा गांधी के विरुद्ध ही कई नेताओं ने असहमति होने पर विद्रोह किया।
पहला विद्रोह तो 1924 में राहुल गांधी के ही प्र-पितामह पं. मोती लाल नेहरू ने किया था जब उन्होंने देशबन्धु चितरंजन दास के साथ मिलकर कांग्रेस से अलग होकर स्वराज पार्टी का गठन किया था। उस समय मोती लाल जी के सुपुत्र पं. जवाहर लाल नेहरू अपने पिता के विचारों से सहमत नहीं थे और कांग्रेस में ही रहे थे। दूसरी बार 1938 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अलग फारवर्ड ब्लाक पार्टी बनाई। अतः वैचारिक असहमति किसी भी राजनैतिक दल में हो सकती है परन्तु उसकी शर्त यह होती है कि असहमति आधारभूत सिद्धान्तों पर न होकर लक्ष्य प्राप्त करने के मार्गों पर होती है। मोती लाल नेहरू महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस लेने के खिलाफ थे और सुभाष चन्द्र बोस सैनिक संघर्ष द्वारा भी भारत की आजादी का रास्ता चाहते थे। अब श्री दिग्विजय सिंह तय कर लें कि पुलवामा व बालाकोट के मुद्दों पर उनके अपनी पार्टी से क्या मतभेद हैं? उन्होंने ये मुद्दे अनावश्यक व अकारण ही उठाकर कांग्रेस पार्टी की यात्रा को पटरी से उतारने की गलती कर डाली और अपने बड़बोलेपन की वजह से यात्रा के उद्देश्य को संकीर्ण नजरिया देने का भ्रम पैदा कर दिया। गांधीवाद कहता है कि साधन व साध्य की शुचिता किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अभीष्ट होती है। राहुल गांधी नफरत के खिलाफ यदि यह यात्रा निकाल रहे हैं तो राजनैतिक तरीकों का विरोध नहीं बल्कि राजनैतिक सोच का वैचारिक विकल्प होना चाहिए जिसे राहुल गांधी मोहब्बत का विचार बता रहे हैं।