जब स्व. इन्दिरा गांधी ने 25 जून 1975 को पूरे देश मंे इमरजेंसी लगा दी थी तो भूदान आन्दोलन और सर्वोदय अभियान के प्रणेताओं में से एक आचार्य विनोबा भावे ने इसे ‘अनुशासन पर्व’ का नाम देकर आम जनता को सन्देश दिया था कि वह अपने मूलभूत नागरिक अधिकारों के स्थगित हो जाने की बेला में आत्मानुशासन का पालन करते हुए सरकारी तन्त्र के काम को सरल बनायें। आचार्य गांधीवादी नेता थे और इमरजेंसी के दौरान जेल में बन्द किये गये जय प्रकाश नारायण के सर्वोदय आन्दोलन में साथी भी थे। तब आचार्य जी की प्रतिष्ठा पूरे भारत में ‘सरकारी सन्त’ की हो गई थी परन्तु भारत एेसा देश है जहां राजनीतिज्ञों और शहंशाहों से भी बड़ा रुतबा उन फकीरों का रहा है जिन्हें सत्ता से किसी प्रकार का सरोकार नहीं रहता और जो शाहों को भी मात्र एक इंसान समझते हैं। एेसे ही दौर मंे जैन तेरापंथ के धर्मगुरु देवलोकवासी आचार्य तुलसी ने अपने सूत्र वाक्य को दोहराया कि ‘निज पर शासन फिर अनुशासन।’
आचार्य तुलसी का यह सूत्र नया नहीं था, मगर इमरजेंसी के दौर में यह सत्ता में बैठे शासकों को चुनौती दे रहा था कि स्वयं को अनुशासित किये बिना वे राष्ट्र में अनुशासन नहीं ला सकते हैं। अतः सरकारी सन्त और लोक सन्त के एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अलग-अलग रास्ता अपनाये जाने का यह सटीक उदाहरण कहा जा सकता है। उपराष्ट्रपति श्री वैंकया नायडू ने अपनी पुस्तक के विमोचन के अवसर पर सांसदों और विधायकों के लिए सदन के भीतर व बाहर व्यवहार मूलक आचार संहिता बनाने की बात कही है। यह विचार देश की राजनीति के बिगड़ैल स्वरूप को देखते हुए पृथकता में व्यवहार स्वरूप में लागू होना मुमकिन नहीं है क्योंकि विधायक व सांसद जिस वातावरण से गुजर कर सदनों में पहुंचते हैं उसमें चुनावी जीत के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं और जीतने के बाद अपने जनाधार को बनाये रखने के लिए वे किसी भी प्रकार के बर्ताव को उचित समझते हैं।
दिक्कत तो यह पैदा हो रही है कि मन्त्री के पदों पर बैठे लोग तक उस शालीनता और नैतिकता को अनावश्यक मानने लगे हैं जो किसी भी संविधान की कसम उठाने वाले व्यक्ति के लिए जरूरी शर्त होती है। जहां तक सदनों के भीतर व्यवहार का सवाल है उसके लिए पहले से ही हमारे संिवधान निर्माताओं ने आचार नियमावली (मैनुअल) बनाई हुई है। इसका पालन होते देखना सदनों के अध्यक्षों का काम होता है मगर हम देख रहे हैं कि सारे नियम किस धड़ल्ले से हवा में उड़ाये जा रहे हैं। सदन में जब भी कोई सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर बोलता है तो उसके आगे से कोई भी अन्य सदस्य गुजरना नहीं चाहिए मगर इसका जमकर उल्लंघन होता है। सदन में बैठे सदस्य को नियमावली के अनुसार पूरे शांत तरीके से बैठना चाहिए और एेसी कोई भी हरकत नहीं करनी चाहिए जिससे सदन की कार्यवाही में लगे लोगों का ध्यान विचलित हो। मसलन सदन के भीतर बैठकर अपने बालों में कंघी करने से लेकर आपस में बतियाना या पान मसाला या इलायची खाना या चुइंगम चबाना अथवा इसे एक-दूसरे को देना तक नियम विरुद्ध है मगर राज्यसभा में ही देखा जा सकता है कि किस प्रकार कुछ सांसद यह कार्य बेधड़क तरीके से करते हैं परन्तु इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि सत्तापक्ष में बैठे सांसद विपक्षी सांसदों का मुकाबला बराबर का होहल्ला मचा कर करते हैं और इस काम में कभी-कभी मन्त्री तक शामिल हो जाते हैं।
16वीं लोकसभा अब समाप्त होने को है मगर पिछले साढे़ चार वर्षों में एेसे अवसर एक बार नहीं बल्कि कई बार आये जब मन्त्री ही अपने स्थानों पर उठकर बराबर का शोर-शराबा करने लगे। इसके साथ ही सदन की कार्यवाही चलाने के मामले में भी विपक्ष की ओर से सावधानीपूर्वक दबी हुई प्रतिकूल टिप्पणियां कई बार की गईं मगर एेसा नहीं है कि पिछले साढे़ चार वर्ष में ही हमें एेसे नजारे देखने को मिले हैं, इससे पहले पिछली सरकारों के कार्यकाल में भी एेसा होता रहा है। अतः चाहे अनुशासन का मामला हो या व्यवहार का, सीधे राजनैतिक संस्कृति से जुड़ा हुआ है। इसे पृथक रूप से हल करने का प्रयास दूध से पानी निकालने की तरह ही होगा। दूध से पानी तभी निकलेगा जब समूचे दूध को उस हद तक उबाला जाये कि उसमें से पानी का तत्व वाष्प बन कर उड़ जाये। यह काम तभी हो सकता है जब राजनैतिक संस्कृति को शुद्ध किया जाये। हमें विधायक व सांसद वैसे ही मिलेंगे जैसे उनका राजनैतिक पालन-पोषण होगा।
सबसे पहले तो इन्हें वह दीक्षा दी जानी जरूरी है कि हर हालत में वे वही बोलें जो भारत का संविधान बोलता है मगर भारत में तो जैसे बिगड़ैल बोलों की प्रतियोगिता चल रही है। जिसे देखो वही सौ गज नापने को तैयार बैठा है मगर फाड़ता एक गज भी नहीं। दरअसल यह लोकतन्त्र में अराजकता को जायज बनाने की असफल प्रक्रिया है। इसका उत्तर ‘निज पर शासन फिर अनुशासन’ से ही मिल सकता है। लोकतन्त्र में चुने हुए प्रतिनिधियों को हमारे संविधान निर्माताओं ने निडर और निर्भय होकर जनता के सवाल उठाने की इजाजत इस हद तक दी है कि उनके सदन के भीतर कहे गये किसी भी शब्द को किसी भी अदालत मंे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसका केवल सदन के निर्धारित नियमों से ही वास्ता होता है क्योंकि सदन के भीतर अध्यक्ष की निगेहबानी में जनता सर्वोच्च है और सत्ता में बैठी हुई सरकार उसके प्रति जवाबदेह। अतः लोकतन्त्र में सदस्यों के अधिकारों की कीमत पर नियन्त्रित करने का कोई भी प्रयास साध्य नहीं हो सकता। हमें अगर देखना है तो यह देखें कि कहीं साधन की अपवित्रता कहीं साध्य को अपवित्र तो नहीं कर रही है।