आगामी लोकसभा चुनावों में जीत के लिए जिस तरह राजनीतिक बाजियां बिछाई जा रही हैं उनसे अभी तक सिर्फ हार से बचने की कोशिशें ही नजर आ रही हैं। एक-दूसरे पर आरोप–प्रत्यारोप का जो दौर चल रहा है उससे यही प्रतीत हो रहा है कि कोई भी दूध से धुला हुआ नहीं है। मगर एक तथ्य स्पष्ट है कि पिछले पांच वर्षों में देश की समस्याओं में इस तरह वृद्धि हुई है कि हर प्रान्त के लोग अलग-अलग दायरों में बंटने लगे हैं। कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति के नाम पर तो कहीं क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर। यहां तक कि खानपान के नाम पर भी लोग बिखरने लगे हैं। इस सबसे ऊपर कानून का राज होने की भारत की संवारी गई तस्वीर को इसके ही नागरिकों के लहू से बिगाड़ने की कोशिशें हो रही हैं।
आम हिन्दोस्तानी के दिल में वह हिन्दोस्तान छोटा होता जा रहा है जिसे हमारे पुरखों की कई पीढि़यों ने अपनी कुर्बानियां देकर इस तरह बड़ा बनाया था कि हर हिन्दोस्तानी सिर उठा कर ऐलान कर सके कि वह ऐसे मुल्क का बाशिन्दा है जिसमें लोग ‘दलों’ में बिखर कर भी ‘दिलों’ से एक होकर रहते हैं। हमारे पुरखों ने हमें जो संविधान सौंपा वह केवल एक किताब नहीं थी बल्कि लगातार भारत के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ते हुए गैर-बराबरी को दूर करने का ऐसा चलता-फिरता दस्तावेज थी जिसके हर वाक्य से भारत की ‘विविधता में एकता’ की धुन निकलती थी। मगर आज हालत यह हो रही है कि कुछ लोग इसी संविधान को धत्ता बता कर अपनी खुद मुखत्यारी को इस तरह नाजिल करना चाहते हैं कि भारत विभिन्न जातीय कबीलों और क्षेत्रीय इलाकों में बंटा हुआ मुल्क लगे।
याद रखना चाहिए कि 1919 में जब अग्रेजों ने पहली बार ‘भारत सरकार कानून’ बनाया था तो हिन्दोस्तान की कैफियत इसी तर्ज पर तय की थी और इसे अलग–अलग पहचान के अलग-अलग इलाकों में बंटे लोगों का जमघट बताया था जिसे 1935 में पं. मोती लाल नेहरू ने भारत के संविधान का मसविदा लिखते हुए पूरी तरह पलट दिया था और पूरे भारत को एक संघीय देश सिद्ध करते हुए इसकी भौगोलिक सीमाओं में रहने वाले हर आदमी की पहचान भारतीय बताई थी। इसी वर्ष अंग्रेजों ने दूसरा ‘भारत सरकार कानून’ इसी सिद्धांत को मानते हुए बनाया था जिसके तहत तब प्रान्तीय एसैम्बलियों के चुनाव कराए गए थे जिनमें बंगाल को छोड़ कर किसी अन्य प्रान्त (पंजाब समेत) में मुस्लिम लीग को सफलता नहीं मिल पाई थी परन्तु जब 1945 में पुनः प्रान्तीय एसैम्बलियों के चुनाव हुए और उनमें पंजाब व बंगाल में मुस्लिम लीग को सफलता मिली तो भारत को बांटने की मंशा लिए बैठे अंग्रेजों के वायसराय लार्ड वावेल ने ऐलान कर दिया था कि चुनाव 1935 की जगह 1919 के कानून के तहत कराए गए हैं जिसमें भारत को एक संघीय ढांचे का एकल देश नहीं बताया गया था।
1935 के चुनावों में बंगाल में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने एक साझा मोर्चा बना कर मौलाना पझलुल हक के नेतृत्व में सरकार बनाई और उसमें डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक मन्त्री की हैसियत से शामिल हुए। जिन्होंने भारत के स्वतन्त्र होने के बाद भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में की, यह सब इतिहास लिखने का मन्तव्य यही है कि हम अपने उस अतीत से कुछ सबक लें जो हमें लगातार सावधान करता रहता है कि भारत की पहचान किसी धर्म या समुदाय से नहीं होती बल्कि इसके लोगों की विविधता में एकता से होती है। यदि अंग्रेजों ने 1945 में यह खेल न खेला होता कि उस वर्ष होने वाले प्रान्तीय एसैम्बलियों के चुनाव 1935 के भारत सरकार कानून के तहत ही कराए गए हैं तो दुनिया की कोई ताकत भी भारत का बंटवारा नहीं कर सकती थी मगर उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही भारत की सम्पत्ति को इस्तेमाल करते हुए मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा जैसी पार्टियों को पर्दे के पीछे से अपने खेमे में लेकर महात्मा गांधी की कांग्रेस पार्टी के उस आह्वान को नाकारा बना दिया था जिसमें उन्होंने भारतीयों से अपील की थी कि वे ब्रिटिश फौज में भर्ती न हों।
इसके जवाब में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने लोगों से फौज में भर्ती होने की अपील की थी। गांधी की कांग्रेस के सभी जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के नेता तब जेलों में भरे जा रहे थे क्योंिक बापू ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की तहरीक चला दी थी। मौजूदा हालात में भारत की राजनीति का आंकलन हमें ऐतिहासिक सन्दर्भों में करते हुए ही किसी नतीजे पर पहुंचना होगा क्योंकि मुद्दा भारत की उस अजमत का है जिसे हर प्रान्त व हर धर्म के लोगों ने मिल कर बनाया है। सवाल इसी भारत की रोशनी का है जिसे कुछ राष्ट्रवादी प्रतीकों के दायरे में सीमित करके बान्धा नहीं जा सकता। हमें इसी सन्दर्भ में मौजूदा दौर की राजनीति के स्वभाव और चरित्र का आंकलन करते हुए अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य का निर्वाह करना होगा और राजनीतिक चालों से सावधान रहते हुए लोकसभा चुनावों में अपने मत का प्रयोग करना होगा। असली सवाल यह है कि ये किसी म्युनिसपलिटी के चुनाव नहीं हैं बल्कि मुल्क के चुनाव हैं जिनसे इस देश का भविष्य जुड़ा है।
हम किसी भी बदलाव को संकुचित दायरे में रख कर नहीं देख सकते। यह केवल विपक्ष के बनते गठबन्धनों और सत्तारूढ़ भाजपा के गठबन्धन के बीच लड़ाई नहीं है बल्कि भारत के भारत होने का युद्ध है। यह कोई पानीपत की लड़ाई नहीं है कि एक राजा दूसरे राजा को हरा कर दिल्ली की गद्दी पर बैठ जाए बल्कि एेसी लड़ाई है जिसमें इस देश के आम आदमी को अपने मुल्क के मालिक होने का सबूत देना होगा। लोकतन्त्र में कोई भी सरकार आम आदमी की ताकत से ही गद्दी पर बैठ सकती है और यह ताकत लेने के लिए उसे किसी सेना की जरूरत नहीं होती बल्कि लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की जरूरत होती है। यही तो असली फर्क होता है लोकतन्त्र व राजतन्त्र में, इस व्यवस्था में पांच साल बाद लोग ही हैं जो इजाजत देते हैं कि कौन दिल्ली की गद्दी का हकदार बनेगा।