चीन भारत का ऐसा पड़ोसी देश है जिसकी छह ओर से नभ, जल, थल सीमाएं मिलती हैं। 1962 के बाद से चीन के विस्तारवादी रुख में परिवर्तन हुआ है, ऐसा भी भारत नहीं कह सकता है। अतः इस देश के साथ आपसी सम्बन्धों की विवेचना हमें बहुत संवेदनशील होकर करनी पड़ेगी क्योंकि लगभग 6 हजार कि.मी. क्षेत्रफल की भारतीय जमीन पर चीन का अभी भी कब्जा विद्यमान है। इसमें अक्साई-चिन का इलाका भी शामिल है और पाक-अधिकृत कश्मीर का काराकोरम घाटी का इलाका भी, जिसे 1963 में पाकिस्तान ने चीन को सौगात में देकर इस देश के साथ नया सीमा समझौता किया था। अब चीन सिन्धु नदी पर दुनिया की सबसे बड़ी बांध परियोजना शुरू कर रहा है जिसका कूटनीतिक संशयारोध भारत ने यह कहते हुए कहा है कि इस बांध परियोजना का असर भारत व बंगलादेश के तटवर्ती स्थानों पर पड़ सकता है।
सिन्धु नदी चीन के तिब्बत के इलाके से होकर भारत के अरुणाचल प्रदेश व असम आदि पूर्वोत्तर प्रान्तों के रास्तों से बंगलादेश जाती है और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। चीन में इस नदी को ‘यारलुंग त्सांगपो’ नदी कहा जाता है। इस बांध पर कुल खर्च 130 अरब डालर का आयेगा जो कि दुनिया की सबसे बड़ी आधारभूत परियोजना होगी। इस परियोजना की वजह से चीन की तरफ जो भी निर्माण व जल ठहराव व प्रवाहन की क्रियाएं होंगी उनका असर भारत के सिन्धु घाटी के तटवर्ती इलाकों में लाजिम तौर पर होगा। इस बांध परियोजना में जल विद्युत संयन्त्र लगाये जायेंगे। भारत ने इस सन्दर्भ में जो रुख अपनाया है वह चीन को सचेत करने का है कि कहीं इस पनबिजली परियोजना का सिन्धू घाटी के तटवर्ती इलाकों पर विपरीत असर न पड़े। यह परियोजना भारत की उस सीमा से बहुत दूर नहीं है जो तिब्बत से लगती है। कूटनीतिक माध्यमों के जरिये भारत ने अपनी चिन्ताओं से चीन को अवगत करा दिया है। चीन पिछले कई सालों से इस परियोजना को सिरे चढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ है जिसके लिए उसने पिछले दिनों ही हरी झंडी दी है।
हर भारतवासी जानता है कि बरसात के मौसम में किस तरह असम राज्य में सिन्धु नदी में भयंकर बाढ़ आती है और जमीन का कटाव होता है। इस नदी पर जब चीन अपनी ओर के इलाके में पनबिजली परियोजना शुरू करेगा तो बांध से पानी छोड़े जाने पर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में बाढ़ आने की आशंका रहेगी। भारत डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी इस प्रस्तावित परियोजना के बारे में अपनी चिन्ताएं प्रकट करता रहा है लेकिन अब चीन इसे मूर्तरूप देने जा रहा है। चीन जहां परियोजना लगा रहा है वह स्थान केन्द्रीय भूकंपीय क्षेत्र में भी आता है अतः इससे गंभीरता का अन्दाजा लगाया जा सकता है जिसकी वजह से भारत इस परियोजना को लेकर चिन्तित है। भारत ने अपनी चिन्ताएं केवल कूटनीतिक माध्यमों से ही नहीं जताई है बल्कि विशेषज्ञ स्तर पर भी चीन को सचेत किया है। इसके साथ ही चीन अपने हो-तन प्रान्त में दो नये जिले (काऊंटी) भी बना रहा है जिनका कुछ इलाका भारत के लद्दाख क्षेत्र से लगे अक्साई-चिन इलाके में भी आता है। इससे हमें चीन की नीयत का पता लगता है कि वह अपने विस्तावादी रुख में सुधार करने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि अक्साई-चिन वह इलाका है जिसे चीन ने1962 के युद्ध के बाद हड़प लिया था।
अतः अपने दो जिलों का निर्माण इस क्षेत्र के कुछ हिस्सों में करके चीन अक्साई-चिन पर अपना वैध कब्जा दिखाना चाहता है परन्तु इससे अक्साई-चिन की स्थिति नहीं बदल सकती क्योंकि अक्साई-चिन पर उसका कब्जा अवैध ही रहेगा। हर भारतवासी को मालूम है कि भारत की संसद में ही मौजूदा गृहमन्त्री अमित शाह यह बयान दे चुके हैं कि भारत को केवल पाक अधिकृत कश्मीर को ही पाकिस्तान से वापस नहीं लेना है बल्कि चीन के कब्जे में पड़े अक्साई-चिन इलाके को भी मुक्त कराना है। मगर चीन ऐसा देश है जिसने जून 2020 में भारत के लद्दाख के कुछ हिस्से को भी अपने दबदबे में लेने की कोशिश की। इस मामले में चीन ने पहले पीछे न हटने के संकेत दिये मगर बाद में सैनिक कमांडर स्तर पर चली बातचीत के लम्बे दौर के बाद वह भारतीय इलाकों से पीछे हटने को तैयार हुआ लेकिन इसके बावजूद चीन की नीयत पर यकीन नहीं किया जा सकता। चीन ने अरुणाचल से लगी सीमाओं पर भी नई बस्तियां बसाई हैं और अब वह अक्साई-चिन में भी ऐसी हरकतें कर रहा है। वह अगर सोच रहा है कि ऐसा करने से अक्साई-चिन पर उसका कब्जा वैध हो जायेगा तो वह गलतफहमी में है क्योंकि रक्षा मन्त्री राजनाथ सिंह कह चुके हैं कि भारत की एक इंच भूमि पर भी विदेशी कब्जा सहन नहीं किया जायेगा लेकिन हकीकत यह है कि चीन ने अक्साई-चिन इलाके के भागों को भी अपनी जमीन मान लिया है।
सवाल यह है कि चीन भारत की सीमाओं पर इस प्रकार की हरकतें क्यों करता रहता है। यह सर्वविदित है कि चीन 1914 में भारत-तिब्बत-चीन के बीच खिंची मैकमोहन लाइन को स्वीकार नहीं करता है जिसकी वजह से वह भारत के कुछ इलाकों पर अवैध दावा करता रहता है। कभी वह अरुणाचल प्रदेश को अपना बताने लगता है तो कभी लद्दाख के कुछ इलाकों को। मगर इसका भारत पर कोई असर नहीं पड़ता। भारत को चीन के साथ सीमा विवाद आजादी के बाद विरासत में मिला। इस सीमा विवाद को हल करने के लिए 2005 में एक उच्चस्तरीय कार्यदल का गठन किया गया जिसकी कम से कम 20 से अधिक बैठकें हो चुकी हैं। इस कार्यदल के लिए एक प्रस्ताव यह भी है कि सीमावर्ती इलाकों में जिस पर भी जिस देश का प्रशासन चलता है वह उसी का माना जाये। चीन की हरकतें बताती हैं कि वह उच्च स्तर के सीमा वार्ता तन्त्र में ऐसा करके अपना पक्ष मजबूत दिखा सकता है लेकिन उसकी यह मंशा कभी सफल नहीं हो सकती क्योंकि नई बनाई गई बस्तियों या जिलों की वैधता क्षेत्रीय संस्कृति पर भी निर्भर करती है।