बिहार की रुकी जाति जनगणना - Punjab Kesari
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बिहार की रुकी जाति जनगणना

पटना उच्च न्यायालय द्वारा बिहार सरकार द्वारा कराये जा रहे जातिगत सर्वेक्षण या जनगणना पर तुरन्त रोक लगा

पटना उच्च न्यायालय द्वारा बिहार सरकार द्वारा कराये जा रहे जातिगत सर्वेक्षण या जनगणना पर तुरन्त रोक लगा देने से यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय संघ की विभिन्न राज्य सरकारें अपने-अपने प्रदेशों की जनता की जनगणना नहीं करा सकती हैं क्योंकि भारतीय संविधान में ऐसा कोई प्रवधान नहीं है। इसकी वजह यह है कि पूरे देश की जनगणना 1948 के कानून के अनुसार भारत सरकार द्वारा ही अखिल भारतीय स्तर पर कराई जा सकती है। भारत का कोई भी कानून किसी राज्य सरकार को यह अधिकार नहीं देता है कि वह प्रादेशिक आधार पर यह काम करा सके। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद यह मांग बड़ी तेजी से उठती रही है कि देश में जातिगत जनगणना कराई जानी चाहिए। इसके पक्ष व विपक्ष में अलग- अलग तर्क हो सकते हैं मगर इतना निश्चित है कि प्रत्यक्ष रूप से यह कार्य केवल केन्द्र सरकार द्वारा ही कराया जा सकता है। भारत के संविधान में जब आजादी के बाद अनुसूचित जातियों व जन जातियों को आरक्षण दिया गया था तो सरकार के सामने 1931 में अंग्रेज सरकार द्वारा की गई जातिगत जनगणना के आंकडे़ थे मगर 1990 में जब सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया गया तो इस वर्ग के लोगों के कोई अधिकारिक आंकड़े नहीं थे।
मंडल आयोग ने अनुमान के आधार पर इस वर्ग के लोगों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की थी और राय जाहिर की थी भारत में पिछड़े समुदाय के लोगों की सैकड़ों जातियां हैं जो हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों के लोगों के बीच में मौजूद हैं। इसमें भी अलग-अलग राज्य में अलग-अलग पिछड़ी जातियां हैं। यही वजह कि जिस जाति के लोग बिहार में पिछड़े समुदाय में आते हैं, उत्तर प्रदेश या प. बंगाल में वे उस वर्ग में नहीं आते। परन्तु यह कार्य राज्य अपनी मनमर्जी से नहीं कर सकते इसके लिए केन्द्र स्तर पर पिछड़ा आयोग है। परन्तु सवाल यह है कि पटना उच्च न्यायालय ने बिहार की नीतीश सरकार के जातिगत जनगणना या सर्वेक्षण के काम को पूर्णतः गैर कानूनी माना है और कहा है कि सर्वेक्षण के नाम पर जनगणना कराने का काम नहीं किया जा सकता। परन्तु भारत में यह मुद्दा विशुद्ध रूप से राजनीति का विषय बन चुका है और इसका सम्बन्ध सीधे सामाजिक न्याय से जोड़ दिया गया है।
लोकतन्त्र में इसमें कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि सामाजिक न्याय तभी हो सकता है जबकि पहले यह पता चले कि समाज के किन वर्गों के साथ अन्याय होता रहा है। इस दृष्टि से देखें तो कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी द्वारा उठाया गया यह प्रश्न गैर वाजिब नहीं है कि 2011 में उनकी पार्टी के नेतृत्व में रही मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने जो जातिगत जनगणना कराई थी उसके आंकड़े वर्तमान केन्द्र सरकार जारी करे जिससे यह पता लग सके कि देश में कुल कितने पिछड़े हैं और कितने अनुसूचित जाति या जन जाति के लोग हैं। मगर दूसरी तरफ तर्क यह है कि जो संविधान जाति विहीन समाज की बात करता है और जाति प्रथा से मुक्ति पाने की बात करता है उसकी गणना करके क्या हम इस कुप्रथा की जड़ेें और गहरी नहीं करेंगे? मगर इसके साथ यह भी सच है कि संविधान ही सामाजिक न्याय की बात करता है और कहता है कि जो लोग पिछड़े रह गये हैं उन्हें सशक्त बनाने के उपाय राज्य विशेष प्रयासों से करेगा। यही वजह है कि मंडल आयोग की सिफारिशें 1990 में केवल शासकीय आदेश से ही लागू कर दी गईं थीं क्योंकि संविधान में इसकी व्यवस्था पहले से ही थी। मगर पिछड़ेपन का आधार सामाजिक व शैक्षणिक ही होगा। इसी वजह से सामाजिक न्याय का मुद्दा जातियों से जाकर जुड़ता है क्योंकि भारतीय समाज की जाति व्यवस्था ही किन्हीं वर्गों के लोगों को ऊंचा या नीचा करके देखती है।
इसके चलते ही ऐसे वर्गों के लोगों को शिक्षा से वंचित रखा गया और जाति में बंधे इन लोगों को समाज ने ऐसे काम-धंधों के लायक ही रहने दिया जिनमें श्रम व शिक्षा का कोई तालमेल ही न बैठाया जा सके। इनमें किसानी से लेकर खेतीहर, श्रम व दस्तकारी व कारीगरी और शिल्पकारी आदि के अलावा छोटे-मोटे काम-धन्धे करने वाले लोग पीढ़ी दर पीढ़ी से खपते रहे और उनकी पृथक जातियां तक काम के आधार पर ही बनती चली गईं। उदाहरण के लिए हम नाई, धोबी, जुलाहे, खटीक, कुम्हार, लुहार, कहार, बढ़ई आदि समाज के लोगों को ले सकते हैं। इनकी नई पीढि़यों के साथ न्याय करने के लिए जरूरी है कि इनके शैक्षणिक उत्थान से लेकर सामाजिक उत्थान तक के लिए राज्य विशेष प्रोत्साहन दें। मगर यह कार्य भारत के संविधान के अनुसार ही हो सकता है जबकि बिहार सरकार ने पिछड़े समुदाय की गणना करने के लिए जातिगत सर्वेक्षण का रास्ता चुना और ब्यौरा जनगणना की तरह भरा। सर्वेक्षण किसी वर्ग या समाज अथवा समूह के मत के विचार जानने के लिए होता है और जनगणना प्रत्येक नागरिक की निजी समूची स्थिति जानने का पक्का अधिकारिक आंकड़ा होता है। जिसके आधार पर राज्य अपनी नीतियों का निर्माण कर सके।

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