यद्यपि गृह मंत्रालय ने त्रिपुरा के शरणार्थी शिविरों में रह रहे ब्रू शरणार्थियों के लिए राशन आपूर्ति फिर से शुरू करने को लेकर सख्त रुख अपनाया है और कहा है कि अगर ब्रू शरणार्थी वापिस मिजोरम जाते हैं तो प्रत्येक परिवार को 25 हजार रुपए की सहायता राशि प्रदान की जाएगी। पिछले एक सप्ताह से ब्रू शरणार्थी सड़कों पर ट्रैफिक जाम कर प्रदर्शन कर रहे हैं। शरणार्थी शिविरों की स्थिति बहुत दयनीय है और वहां लगातार मौतें हो रही हैं। ब्रू शरणार्थी एक राज्य से दूसरे राज्य में जबरन भेजे जाने का विरोध कर रहे हैं। इनका कहना है कि वे भी भारत के मूल नागरिक हैं और संविधान के अनुसार भारतीयों को अधिकार प्राप्त है कि वे देश में कहीं भी शांतिपूर्ण और आराम से रह सकते हैं।
मिजोरम के ब्रू शरणार्थियों का मुद्दा काफी संवेदनशील रहा है। हर चुनाव में इस मुद्दे पर गतिरोध उभरता है लेकिन अब तक इस गतिरोध का कोई हल नहीं निकला। ब्रू पूर्वोत्तर में बसने वाला एक जनजातीय समूह है। वैसे तो इनकी छिटपुट आबादी पूरे पूर्वोत्तर में है, लेकिन मिजोरम के ज्यादातर ब्रू मामित और कोलासिन जिले में रहते हैं। इस समुदाय में करीब एक दर्जन उपजातियां आती हैं।विवाद शुरू हुआ ब्रू और बहुसंख्यक मिजो समुदाय के बीच 1996 में साम्प्रदायिक दंगों से। इसके बाद ब्रू समुदाय का मिजोरम से पलायन शुरू हो गया।
इसी तनाव में पैदा हुआ ब्रू समुदाय का राजनीतिक संगठन ब्रू नेशनल यूनियन जिसने राज्य के चकमा समुदाय की तरह एक स्वायत्त जिला की मांग की। 1995 में यंग मिजो एसोसिएशन और मिजो स्टूडेंट्स एसोसिएशन ने राज्य की चुनावी भागीदारी में ब्रू समुदाय की मौजूदगी का विरोध किया था। इन संगठनों ने ब्रू समुदाय को राज्य का मूल निवासी मानने से इंकार कर दिया था। 1997 में एक मिजो अधिकारी की हत्या के बाद दोनों समुदायों में दंगा भड़का और अल्पसंख्यक होने के नाते ब्रू समुदाय को अपना घरबार छोड़कर त्रिपुरा में शरण लेनी पड़ी। त्रिपुरा में लगभग 33 हजार ब्रू शरणार्थी शरण लिए हुए हैं। दंगों में ब्रू समुदाय के 41 गांवों में 1400 घर जला दिए गए थे।
इस तरह एक बड़ा कबीला अपने ही देश में बेघर हो गया। उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी बनकर जीने को मजबूर होना पड़ा। ब्रू लोगों की दास्तान कश्मीरी पंडितों की ही तरह दर्दनाक है। पूर्वोत्तर के लोग अपनी जातीय पहचान, खानपान और भाषा को लेकर काफी भावुक हैं। जातीय पहचान को मुद्दा बनाकर ही कभी अलग राज्य तो कभी अलग देश बनाने की मांगें उठती रही हैं, इसके लिए उग्रवाद का सहारा लिया गया। मिजो उग्रवादियों ने भी देश से अलग होने की मांग की थी लेकिन जब उन्हें इसकी कोई सम्भावना नजर नहीं आई तो मिजो उग्रवाद ने मिजोरम पर मिजो जनजातियों का कब्जा बनाए रखने के मकसद से हर उस जनजाति को निशाने पर ले लिया जिसे वे बाहरी समझते थे।
मिजो संगठनों ने ब्रू जनजाति को बाहरी घोषित कर दिया और मांग की कि उन्हें राज्य के चुनावों में वोट नहीं डालने दिया जाए। दोनों समुदायों में टकराव बढ़ता ही गया। त्रिपुरा के राहत शिविरों में ब्रू शरणार्थी बद से बदतर जिन्दगी बिता रहे हैं। न तो उनके पास काम लायक कौशल है और न ही वे ज्यादा शिक्षित हैं। मजदूरी करते हैं और जंगलों से खाना बटोरते हैं। इन शरणार्थियों की वापसी के लिए त्रिपुरा और मिजोरम की सरकारों में बातचीत होती रही। 2010 में पहली बार लगभग साढ़े 8 हजार लोगों को मिजोरम में बसाया गया लेकिन मिजो गुटो के विरोध के बाद इनके पुनर्वास का काम रुक गया।
पिछले वर्ष 3 जुलाई, 2018 को तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री विप्लब देव और मिजोरम के मुख्यमंत्री ललथनहवला के बीच समझौता हुआ जिसमें 32,876 लोगों को 435 करोड़ का राहत पैकेज देने का ऐलान किया गया था। हर ब्रू परिवार को चार लाख रुपए की एफडी, घर बनाने के लिए 1.5 लाख रुपए, दो वर्ष के लिए मुफ्त राशन और हर महीने 5 हजार रुपए दिए जाने थे। ब्रू लोगों को मिजोरम में वोट डालने का हक भी मिलना तय हुआ था। मिजो संगठन इस समझौते के खिलाफ है। ब्रू लोगों की सबसे बड़ी मांग सुरक्षा की है। अनेक लोग डर के मारे मिजोरम में जाना ही नहीं चाहते। ब्रू जो सुरक्षा चाहते हैं, वह तो राज्य सरकार ही दे सकती है। ब्रू विधानसभा और नौकरियों में आरक्षण चाहते हैं।
मिजोरम में क्षेत्रीय और बाहरी का मुद्दा बहुत मायने रखता है। देखना होगा कि केन्द्र और राज्य सरकार इस मुद्दे को मानवीय दृष्टिकोण से कैसे हल करती हैं। कई प्रयास करने के बावजूद कश्मीरी पंडित आज तक घाटी में वापसी नहीं कर सके हैं। मिजोरम सरकार को ब्रू समुदाय की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। फिलहाल एक बड़ा कबीला घर जाने को तैयार नहीं है।