जिस ब्रिटेन के बारे में कभी कहा जाता था कि उसके साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता, वही ब्रिटेन आज अपने रुतबे को बचाने के लिए जूझ रहा है। ब्रिटेन के लोग महसूस कर रहे हैं कि ब्रिटेन सिर्फ यूरोप का एक टापू बनकर रह गया है। ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से बाहर जाने के सवाल पर राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है। यूरोपीय संघ के समर्थक और आलोचक अपने-अपने तर्कों को सामने रख रहे हैं। ब्रिटेन के 4 मंत्री अब तक इस्तीफा दे चुके हैं और प्रधानमंत्री थेरेसा मे की सरकार खतरे में नजर आने लगी है। थेरेसा मे ब्रेग्जिट समझौते को लेकर सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। यूरोपीय संघ 28 देशों का ऐसा संघ है जो हर संकट में एक-दूसरे के साथ खड़े हैं। बात विकास की हो या आर्थिक हितों की या फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बात रखने की, ये सभी देश एक स्वर में बोलते हैं। यूरोपीय संघ को लेकर ब्रिटेन हमेशा दुविधा में रहा है। इंग्लैंड यूरोपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र का फायदा तो उठाना चाहता है, लेकिन नीति निर्धारण में अपना नियंत्रण गंवाना उसे स्वीकार्य नहीं है।
इसके अलावा यूरो के संकट और प्रवासियों के बड़ी संख्या में यूरोप आने के कारण पैदा हालात ने भी ब्रिटेन में यूरोपीय संघ के विरोधियों को उग्र रवैया अपनाने को विवश किया। ब्रिटेन के लोग महसूस करते थे कि कहां तो पूरी दुनिया में उनका वर्चस्व था आैर यूरोप में भी। अब जर्मनी का वर्चस्व है, कहीं न कहीं फ्रांस का भी है और यही दोनों मिलकर यूरोपीय संघ को चलाते हैं जबकि इस मामले में ब्रिटेन को कोई पूछता ही नहीं है। सत्ताधारी कंजरवेटिव पार्टी भी यूरोपीय संघ से बाहर आने के मुद्दे पर बंटी रही जबकि विपक्षी लेबर पार्टी के कई सांसद आैर डेमोक्रेटिक यूनियनिस्ट पार्टी आैर यूके इंडिपेंडेंट जैसी पार्टियां यूरोपीय संघ में ही रहना चाहती थीं। यूरोपीय संघ से बाहर जाने या बने रहने के मुद्दे पर 23 जून 2016 को हुए जनमत संग्रह के पिरणामों से स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटेन के 52 प्रतिशत लोगों ने यूरोपीय संघ से निकलने के पक्ष में मतदान किया था। जनमत संग्रह का परिणाम सामने आने पर ब्रिटेन की मुद्रा न्यूनतम स्तर पर आ गई थी और प्रधानमंत्री डेविड कैमरून को पद छोड़ना पड़ा था।
ब्रिटेन के लोगों ने यह फैसला इसलिए किया था कि यूरोपीय यूनियन अमेरिका का पिछलग्गू बन गया था और वह उसकी नीतियों पर आंख बन्द करके अमल कर रहा था जिससे ब्रिटेन सहित अन्य सदस्य देशों की जनता भी अप्रसन्न थी। इसी तरह मानवाधिकार आैर शरणार्थियों को जगह देने के सम्बन्ध में यूरोपीय संघ द्वारा सदस्य देशों पर थोपे जाने वाले निर्णय भी लोगों की नाराजगी का कारण बने। जनमत संग्रह के बाद जैसे-जैसे ब्रेग्जिट के दिन करीब आ रहे हैं, जटिलताएं भी बढ़ रही हैं। ब्रिटेन सरकार में इस पर कोई सहमति नहीं बन पा रही। इस्तीफा देने वाले मंित्रयों का कहना है कि ब्रेग्जिट के बाद बेशक शुरू में ब्रिटेन को झटका लगे लेकिन फिर वह मजबूती के साथ अपने पांवों पर खड़ा हो जाएगा। उनका मानना है कि ब्रेग्जिट के बाद ब्रिटेन अगर यूरोपीय यूनियन से जुड़कर रहना भी चाहता है तो वह अपनी शर्तों पर रहेगा न कि यूरोपीय यूनियन की शर्तों पर। ब्रेग्जिट को लेकर प्रधानमंत्री थेरेसा मे का रुख लचीला है। वह सेमी ब्रेग्जिट की तरफ बढ़ रही हैं। इसका अर्थ यही है कि ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन से बाहर रहकर उसकी शर्तें को मानता रहेगा।
यानी बाहर रहकर भी उसके साथ बना रहेगा, जिससे आर्थिक हितों, रोजगार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ब्रिटेन से बाहर जाने से बचाया जा सकेगा। ब्रेग्जिट मंत्री रहे डेविड डेविस ने कहा है कि वह थेरेसा मे की योजना का समर्थन नहीं कर सकते क्योंकि वह यूरोपीय यूनियन के साथ बेहद करीबी रिश्ता बनाए रखना चाहती हैं। कुछ लोग यूरोपीय यूनियन के साथ कड़े सम्बन्ध विच्छेद के पक्षधर हैं, जो ब्रिटेन को यूरोपीय यूनियन के मुक्त व्यापार संघ से पूरी तरह अलग कर देगा। साथ ही दुनियाभर में उसे देशों के साथ व्यापारिक समझौते करने की अधिक आजादी देगा जबकि कुछ लोग इस बात के पक्षधर हैं कि ब्रिटेन को जितना सम्भव हो सके, यूरोपीय यूनियन के साथ करीबी सम्बन्ध बनाए रखने चाहिएं।
ब्रेग्जिट लागू करने की तारीख 29 मार्च 2019 तय की गई है लेकिन ब्रेग्जिट का असर ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर दिखने लगा है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था का विकास ठहर रहा है, लोग गरीब हो रहे हैं, कम्पनियां निवेश को लेकर काफी सतर्क हैं। प्रॉपर्टी बाजार ठंडा पड़ा हुआ है। ब्रिटेन की कुछ बड़ी कम्पनियों ने चेतावनी दी है कि ब्रेग्जिट लागू होने की स्थिति में वह अपना कारोबार ब्रिटेन से समेट सकती हैं। इसमें टाटा की जगुआर कार कम्पनी और एयरबस भी शामिल हैं। मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल के चलते पाउंड भी गिर रहा है। ब्रिटेन सरकार इस बात का आकलन कर रही है कि इसका कितना असर देश पर होगा। ब्रेग्जिट से यूरोपीय संघ से कारोबारी रिश्ते रखने वाले देशों पर बुरा असर पड़ेगा। भारत के लिए तो यूरोपीय यूनियन सबसे बड़ा एक्सपोर्ट मार्केट है। इसका असर ब्रिटेन में काम कर रही 8000 भारतीय कम्पनियों पर पड़ेगा।
खासतौर पर भारतीय आईटी सैक्टर की कम्पनियों की 18 फीसदी तक कमाई ब्रिटेन से होती है। भारतीय कम्पनियों के लिए यूरोप में घुसनेे का रास्ता ब्रिटेन से शुरू होता है। इन कम्पनियों को नए करार करने पड़ेंगे। भारत ब्रिटेन के लिए हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। कई अर्थशािस्त्रयों का मत है कि यूरोपीय यूनियन से बाहर निकलने पर ब्रिटेन कमजोर होगा और उसे व्यापार तथा निवेश भागीदारों की जरूरत ज्यादा होगी। इस स्थिति में भारत ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। ब्रिटेन को बहुत अधिक संख्या में कुशल श्रम की जरूरत होगी और भारत के लिए यह स्थिति फायदेमंद होगी। देखना होगा कि ब्रिटेन अपने मुताबिक क्या नियम बनाता है। फिलहाल तो सियासी उथल-पुथल का क्या नतीजा निकलता है, इसका भी इंतजार करना होगा।