लोकतन्त्र में प्रत्येक राजनैतिक दल को सत्ता में आने का अधिकार होता है और इसके साथ ही हर चुनावों के बाद अपनी सत्ता को कायम रखने का दावा करने का अधिकार भी होता है। राजधानी में चल रही सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का दो दिवसीय सम्मेलन आज सम्पन्न होने के साथ ही इसमें पारित राजनैतिक प्रस्ताव में दावा किया गया है कि पार्टी 2022 तक एेसे नये भारत का निर्माण करने के लिए कृतसंकल्प है जिसमें हर व्यक्ति के सिर पर छत हो। यह महत्वाकांक्षी सपना जमीन पर उतारने के लिए भाजपा की सरकार को पुनः 2019 के लोकसभा चुनावों में विजयी होना पड़ेगा और उम्मीद है कि वह इन चुनावों में पहले से भी ज्यादा बहुमत लेकर सफल होगी। पार्टी को अपनी जीत की संभावना इसलिए भी दिखाई पड़ रही है कि उसके विरोधी दलों के पास सिवाय वर्तमान सरकार को सत्ता से हटाने के अलावा और कोई कार्यक्रम या नीति नहीं है और वे कथित महागठबन्धन बनाकर इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए गोलबन्द हो रहे हैं। भाजपा ने एक प्रकार से एेसे विरोधी दलों के गठबन्धन को ‘चूं-चूं का मुरब्बा’ कहा है, जिसमें परस्पर विरोधी विचारधारा वाले वे दल शामिल हैं जो पहले एक-दूसरे के विरुद्ध ही लड़ते रहे हैं।
लोकतन्त्र में अपने विपक्षी दलों की कमियों को उजागर करने का हक भी प्रत्येक राजनैतिक दल को होता है मगर विरोधी दलों को यह हक ज्यादा तेज धारदार तरीके से मिला होता है क्योंकि वह एक तीर से दो शिकार करता है। एक तरफ सत्तारूढ़ राजनैतिक पार्टी पर और दूसरी तरफ उसकी काबिज सरकार पर। इसलिए भाजपा के बाणों के जवाब विपक्षी दल किस तरह देते हैं उसे हम आगामी एक-दो दिनों में देखेंगे मगर भाजपा ने जो तर्क अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रखे हैं वे भी विपक्षी दलों द्वारा उसकी की जा रही आलोचना के प्रत्युत्तर में ही हैं। भाजपा ने कहा है कि उसके राज में देश की अर्थव्यवस्था मजबूती की तरफ चल रही है और आंतरिक सुरक्षा मंे सुधार हुआ है तथा आगामी 2022 तक वह साम्प्रदायिक शक्तियों को भी किनारे लगाने में सफल हो जायेगी। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में एेसा पहली बार हुआ था कि आजादी मिलने के बाद गठित किसी राजनैतिक दल के हाथ में भारत के लोगों ने स्वतन्त्र रूप से सत्ता सौंपी थी।
अर्थात लोकसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया था। अतः आगामी चुनावों में भारत के मतदाता विदेश नीति से लेकर कृषि नीति तक के क्षेत्र में इस सरकार के कार्यकलापों का जायजा लेंगे और अपनी पसन्द का इजहार करेंगे मगर इतना निश्चित है कि पिछले साढ़े चार सालों में केन्द्र की सरकार को विभिन्न परीक्षाओं से गुजरना पड़ा है खासकर सामाजिक समरसता के मोर्चे पर इसके भीतर से भी परस्पर विरोधी स्वर सुनने को मिले हैं। विपक्ष के निशाने पर भाजपा सबसे ज्यादा इसी मोर्चे पर रही है अतः अगले नौ महीनों में पार्टी को इस मामले में अपने भीतर ही समरसता कायम करने के विशेष प्रयास करने होंगे। भारत चूंकि एक जीवन्त और गतिशील लोकतन्त्र रहा है अतः यहां के मतदाताओं की बुद्धिमत्ता और सजगता को कोई भी पार्टी अनदेखा नहीं कर सकती। शिखर राजनीति मंे कई प्रकार के गठबन्धन बन सकते हैं या मोर्चे खुल सकते हैं मगर जब जमीन पर उतर कर वे मुकाबले में आते हैं तो केवल मतदाता की अक्ल ही काम करती है और वह बहुत चतुराई के साथ एेसा जनादेश देने में महारत हासिल रखता है कि बड़े-बड़े विद्वान और राजनैतिक पंडित गश खाकर गिर जाते हैं। ठीक एेसा ही नतीजा हमने 2014 में देखा था जब श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत के लोगों ने भाजपा को सत्ता सौंप कर सभी को चौंका दिया था।
इसके बाद भाजपा एक पार्टी के रूप में विभिन्न राज्यों में चुनावी बाजियां जीतती रही जबकि कुछ में वह हारी भी मगर जिस राज्य में भी भाजपा हारी उससे सबक लेकर आगे बढ़ने की उसकी इच्छा शक्ति कितनी प्रबल रही इसका प्रमाण हमें लोकसभा चुनावों से पहले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम व तेलंगाना में देखने को मिलेगा जो सीधे तौर पर लोकसभा चुनावों के सेमीफाइनल माने जायेंगे लेकिन इन राज्यों के चुनावों के मुद्दे निश्चित तौर पर लोकसभा चुनावों के मुद्दे नहीं हो सकते और ये स्थानीय समस्याओं पर ही ज्यादा केन्द्रित रहेंगे जिसकी वजह से भाजपा को अपनी पुरानी रणनीति में परिवर्तन करना पड़ेगा और प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को लोकसभा चुनावों के लिए उठाकर रखना पड़ेगा। अतः भाजपा के लिए भी आगे का रास्ता सरल नहीं कहा जा सकता क्योंकि देश के 21 राज्यों में उसकी सरकारें होने से उसकी उपलब्धियों की सूची लम्बी होती देखना मतदाता पसन्द करेंगे। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने जो संकल्प किया है वह उसकी इसी इच्छा शक्ति को दर्शाता है कि उसे अपने ऊपर पूरा भरोसा है। अब देखना केवल यह होगा कि आम मतदाता को भी क्या उसके ऊपर पूरा भरोसा है?