भारत को पूरे विश्व में संसदीय प्रणाली का सबसे बड़ा लोकतन्त्र माना जाता है। इसकी असली वजह यह है कि इस प्रणाली के तहत संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर जिस प्रकार जनता की चुनी हुई सरकार को संसद के माध्यम से सीधे जनता के प्रति जवाबदेह बना कर गये हैं और देश की पूरी प्रशासन व्यवस्था को संविधान के प्रति उत्तरदायी बना कर लोकतान्त्रिक मूल्यों की सुरक्षा को सर्वोपरि रखा गया है उससे पूरी दुनिया प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती थी। इसके साथ भारत में जिस प्रकार न्यायपालिका को पूर्ण स्वतन्त्र बना कर इसे सरकार का हिस्सा नहीं बनाया बल्कि सरकारी कामकाज की समीक्षा का अधिकार दिया गया उससे दुनिया के वे देश सर्वाधिक प्रभावित हुए जो उपनिवेशवाद या साम्राज्यवाद के चंगुल से आजाद होने के लिए छटपटा रहे थे। आज राज्यसभा में दिल्ली की सरकारी सेवा के बारे में जो बहस हुई उससे एक बार फिर सिद्ध हो गया कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र हैं और हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों में वह क्षमता है कि वे समय की मांग के अनुसार स्वयं को ऊंचा उठा सकें।
दरअसल हमें अपने जन प्रतिनिधियों से एेसी ही अपेक्षा रहती है। हालांकि पूरी तरह से यह नहीं कहा जा सकता कि बहस का स्तर पूर्व की बहसों के अनुरूप रहा हो क्योंकि इस सदन में एक समय में देश की हर जानी-मानी हस्ती रहती आयी है। आजादी के बाद आचार्य नरेन्द्र देव से लेकर श्री प्रणव मुखर्जी तक इस सदन में बैठे हैं। मगर दूसरी तरफ लोकसभा में शोर-शराबे के बीच विधेयक भी पारित होते रहे। मगर एक महत्वपूर्ण घटना इस सदन में भी हुई। कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी की संसद सदस्यता लोकसभा अध्यक्ष ने बहाल करने के आदेश अपने सचिवालय के माध्यम से जारी किये। उनकी सदस्यता उसी समय बहाल हो गई थी जब सूरत की अदालत द्वारा उन्हें मानहानि के मामले में दी गई दो साल की सजा पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी। इस फैसले के बाद वह खतावार नहीं रहे थे क्योंकि मानहानि का मुकद्दमा अब पुनः सूरत की अदालत में ही चलेगा और अदालत को अपना फैसला सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाये गये कानूनी नुक्तों की रोशनी में करना पडेे़गा। मगर आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस देश के लोगों की आस्था संसद में बरकरार रहनी चाहिए और उनमें विश्वास होना चाहिए कि हर पांच साल बाद अपने एक वोट की ताकत से वे जो प्रतिनिधि चुनते हैं वे संसद में पहुंच कर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाते हैं या नहीं। संसद का यह सावन सत्र केवल 11 अगस्त तक ही चलेगा और अभी तक मणिपुर के मुद्दे पर दोनों में से किसी एक सदन में भी चर्चा नहीं हो पाई है।
आज अर्थात बुधवार से लोकसभा में सरकार के खिलाफ विपक्ष द्वारा रखे गये अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरू हो जायेगी। बेशक संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है और सदन चलाने में सत्तारूढ़ दल की भूमिका ही प्रमुख रहती है। अतः भारत के लोग अविश्वास प्रस्ताव पर होने वाली बहस को बहुत उत्सुकता से देखेंगे। यह भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि इस संसदीय लड़ाई में अन्त में जीत भाजपा की ही होगी क्योंकि उनके पास फिलहाल 538 के सदन में 332 सदस्यों का समर्थन है। मगर लोकतन्त्र केवल संख्या बल का ही शासन नहीं होता है बल्कि यह देश के सभी पक्षों का शासन होता है इसी वजह से सरकार की हर नीति व फैसले पर संसद में बहस कराई जाती है। यही वजह थी कि खुद संसद के दोनों सदनों के सदस्यों ने ही यह नियम बनाया था कि कोई भी विधेयक शोर-शराबे या हंगामे के बीच पारित नहीं कराया जाना चाहिए। मगर अब इस नियम को नहीं माना जा रहा है और कभी-कभी तो स्वयं सत्तारूढ़ दल के सदस्य ही नहीं चलने देते। मगर सदन की कार्यवाही में सरकार की स्थिति इस प्रकार होती है कि इन सदनों के अध्यक्ष मन्त्रिमंडल के सदस्यों तक को पहले एक सांसद मान कर उनके विशेषाधिकारों व अन्य अधिकारों की सुरक्षा करते हैं। सदन में वे मन्त्री एक सांसद होने की वजह से ही होते हैं। हालांकि कोई भी व्यक्ति सरकार में मन्त्री छह महीने तक बिना सांसद बने भी रह सकता है। यह प्रधानमन्त्री का विशेषाधिकार होता कि वह किसी भी नागरिक को अपने मन्त्रिमंडल में शामिल करें। मगर उसे छह महीने के भीतर सांसद बनना पड़ता है। इसके बहुत से उदाहरण हैं।
आज की परिस्थितियों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम संसद की सार्थकता सिद्ध करें जिससे देश की जनता में इसके प्रति विश्वास कायम रहे। जनता का यह विश्वास ही लोकतन्त्र की सफलता की गारंटी होता है। राज्यसभा में आज इसी तरफ एक अच्छा प्रयास हुआ है। अतः बुधवार से शुरू होने वाली अविश्वास प्रस्ताव की चर्चा ज्ञानमूलक और आम लोगों में विश्वास पैदा करने वाली होनी चाहिए।
लोकतन्त्र में ऐसा भी होता आया है कि कभी-कभी सरकारें स्वयं ही अपने प्रति सदन का विश्वास प्राप्त करने के लिए ‘विश्वास प्रस्ताव’ रखती रही हैं यह ‘अविश्वास प्रस्ताव’ के उलट प्रक्रिया होती है। 2008 के जुलाई महीने में लोकसभा में यही हुआ था जब तत्कालीन मनमोहन सरकार ने भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर अपने प्रति ‘विश्वास प्रस्ताव’ रखा था।