भारत में इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) से चुनाव कराये जाने के बाद पूरी चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर जिस तरह सन्देह के बादल मंडराने शुरू हुए हैं वह किसी भी रूप में लोकतन्त्र के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं। पिछले 20 वर्षों से ईवीएम पर जिस तरह शक किया जा रहा है वह चुनावों की पारदर्शित व विश्वसनीयता पर सवालिया निशान खड़े करता है। इसके साथ ही जिस तरह राजनैतिक दल बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग कर रहे हैं उससे आम जनता के बीच भी बैलेट पेपरों की वापसी की मांग को बल मिल रहा है परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में दाखिल एक जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा कि भारत अगर पूरी दुनिया से अलग ईवीएम से चुनाव करा रहा है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। याचिका में कहा गया था कि अमेरिका समेत दुनिया के लगभग लोकतान्त्रिक देशों में बैलेट पेपर से ही चुनाव होते हैं।
सवाल यह पैदा होता है कि क्या मतदाता और उसके वोट के बीच कोई तीसरी दृश्य या अदृश्य शक्ति आनी चाहिए? भारतीय जनप्रतिनिधित्व अधिनियम इसकी मनाही करता है। भारत में गुप्त मतदान की व्यवस्था है अर्थात मतदाता जिस भी प्रत्याशी को वोट करता है यह उसके और प्रत्याशी के बीच का मामला है परन्तु वोटिंग मशीन के बीच में आ जाने से यह गुप्त मतदान की व्यवस्था भंग होती है। दूसरे वोटिंग मशीन में गड़बड़ी की आशंका को कैसे टाला जा सकता है? तीसरे मतदाता जब अपने मनपसन्द राजनैतिक दल या प्रत्याशी को बैलेट पेपर पर उसके चुनाव चिन्ह के सामने मुहर लगा कर मत देता है तो आश्वस्त रहता है कि उसका वोट उसकी आंखों के सामने सही जगह जा रहा है परन्तु वोटिंग मशीन में मनचाहे प्रत्याशी के सामने बटन दबा कर वोट देने से वह आश्वस्त नहीं हो पाता जिसकी वजह से वोटिंग मशीन के साथ एक और वोट रसीदी मशीन (वी.वी. पैट) सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर ही जरूरी तौर पर लगाई थी। वोटिंग मशीन में जब मतदाता वोट देता है तो रसीदी मशीन में उसके बटन दबाने पर प्रत्याशी के चुनाव चिन्ह की तस्वीर चन्द सैकेंड के लिए आती है और रसीद कटकर इससे जुड़े डिब्बे में गिर जाती है परन्तु इन रसीदों की गिनती नहीं होती और मतदान का परिणाम वोटिंग मशीन में दर्ज वोटों की गिनती करके घोषित किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने ही पहले आदेश दिया था कि केवल पांच प्रतिशत रसीदों की गिनती की जाये जिससे मतदाता सन्तुष्ट हो सकें मगर इससे समूचे मतदाता मंडल की सन्तुष्टि नहीं होती।
सवाल यह है कि चुनाव आयोग को बैलेट पेपर से मतदान कराने में क्या आपत्ति है और किस वजह से है? भारत के संविधान ने चुनाव आयोग को खुद मुख्तार संस्था का दर्जा दिया है और इसे सीधे देश के मतदाताओं के प्रति जवाबदेह बनाया है। यह चुनाव आयोग की ही जिम्मेदारी है कि वह वोटिंग मशीनों के बारे में उपजे किसी भी सन्देह को दूर करे। चुनाव आयोग के मामले में सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। भारत की राजनीतिक प्रणाली की शासन व्यवस्था में राजनैतिक दलों की ही सरकारें केन्द्र व राज्यों में होती हैं। अतः वोटिंग मशीनों के माध्यम से हुए चुनावों के परिणाम निकलने के बाद यदि राजनैतिक दल पूरी चुनाव प्रणाली पर सन्देह की अंगुली उठाते हैं तो चुनाव आयोग को उन्हें पूरी तरह से सन्तुष्ट करना चाहिए। राजनैतिक दल कुछ नहीं होते बल्कि आम लोगों के संगठन ही होते हैं जिनकी विचारधारा अलग-अलग होती है परन्तु सबका सपना अपने सिद्धान्तों के अनुसार देश व समाज का विकास करना होता है। ये सभी राजनैतिक दल भारत के संविधान की कसम उठाकर ही अपनी राजनैतिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं और भारत का संविधान कहता है कि मतदाता और प्रत्याशी के बीच में कोई तीसरी शक्ति किसी प्रकार की भूमिका अदा नहीं कर सकती। जहां तक बैलेट पेपर का सम्बन्ध है तो मतदाता अपने हाथ से इस पर मुहर लगाता है तो इसके बाद उसे किसी तीसरी शक्ति की गवाही की जरूरत नहीं रहती। मतदाता लोकतन्त्र का सार्वभौमिक व स्वयंभू मालिक होता है जो पांच साल के लिए अपने एक वोट के अधिकार की मार्फत अपनी मनपसन्द सरकार चुनता है। यदि मतदान करते समय ही उसे यह खतरा रहता कि उसके मत की गणना एक मशीन द्वारा की जायेगी जिसे आदमी ने ही बनाया है तो ईवीएम की साक्षात तीसरी शक्ति को हमें स्वीकार करना पड़ेगा। जब सन्देह की असली जड़ यही वोटिंग मशीन ही है तो इसे बीच से हटाने में चुनाव आयोग को क्या दिक्कत है। मगर ईवीएम को लेकर सत्तारूढ़ व विपक्षी दलों में ठन जाती है और आरोप लगते हैं कि वोटिंग मशीनों को पहले ही सत्तारूढ़ दल के पक्ष में अभिनियन्त्रित कर दिया जाता है।
फिलहाल महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों को लेकर आरोपों का बाजार गर्म है और देश की सबसे पुरानी व विपक्षी पार्टी बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग कर रही है। चुनावों द्वारा मनपसन्द सरकार को चुनने को लेकर चुनाव आयोग पर अंगुली इसलिए उठाई जा रही है क्योंकि यह विषय सरकार से सम्बन्ध नहीं रखता। अतः चुनाव आयोग को स्वयं ही आगे बढ़कर इसका संज्ञान लेना चाहिए परन्तु आयोग इस मामले में हठधर्मिता का शिकार है। वह ईवीएम की शुचिता की बार-बार दुहाई देता है और बार-बार राजनैतिक दलों के सामने वोटिंग मशीन से मतदान का प्रदर्शन करता है और बताता है कि वोटिंग मशीन के साथ छेड़छाड़ नहीं हो सकती। मगर वह आम जनता की मनोभावनाओं का संज्ञान नहीं लेता। दूसरे जब विपक्षी दल चुनाव में हार जाते हैं तो ईवीएम का मसला खड़ा कर देते हैं मगर जब चुनाव जीत जाते हैं तो चुप्पी साध लेते हैं। यह दोहरा चरित्र चुनाव आयोग को अपने रुख पर कायम रहने की प्रेरणा देता है। अतः पहले विपक्षी दलों को यह तय कर लेना चाहिए कि वे चाहे हारे या जीते मगर अपनी बैलेट से चुनाव कराने की मांग पर अडिग रहेंगे। मतदान में वोटिंग मशीनों के प्रयोग की इजाजत कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार के दौरान ही 80 के दशक में दी गई थी और तत्संबंधी चुनाव कानून में संशोधन किया गया था। निश्चित रूप से यह कदम नई टैक्नोलॉजी के प्रति अतिउत्साह होने की वजह से ही उठाया गया था। इसे दूर दृष्टि का अभाव भी कहा जा सकता है क्योंकि आज स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जन खड़गे मांग कर रहे हैं कि चुनाव बैलेट पेपर से ही होने चाहिए। सैद्धान्तिक रूप से वोटिंग मशीनों का प्रयोग ही गलत था क्योंकि मशीन लोगों द्वारा दिये गये वोट की भाग्य विधाता बन चुकी है। जबकि गणतन्त्र में नागरिक भाग्य विधाता होता है।