घाव तो बाबा साहेब को भी दिए गए थे - Punjab Kesari
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घाव तो बाबा साहेब को भी दिए गए थे

तो क्या यह माना जाए कि कुछ नेता, बड़े लोग संवाद का सलीका भूल चुके हैं?…

तो क्या यह माना जाए कि कुछ नेता, बड़े लोग संवाद का सलीका भूल चुके हैं? संसद के लोग सड़क पर और सड़क के दृश्य भीतर, तो क्या मतलब निकाला जाए। निर्वाचित सांसद सड़क पर अपने सियासी हिसाब-किताब चुकता नहीं कर सकते। इस खींचतान में बाबा साहेब अम्बेडकर की मर्यादाओं को भी नहीं बख्शा।

कभी-कभी लगता है बाबा साहेब की आत्मा इस देश की सर्वाधिक व्यग्र एवं व्यथित आत्माओं में शामिल होगी। बचपन व यौवन में सामाजिक उत्पीड़न, राजनैतिक क्षेत्र में अपनों द्वारा ही नपी-तुली साजिशों के तहत मिली चुनावी पराजय और फिर उसके बाद उनकी विरासत को लेकर धक्का-मुक्की, बवाल व बाहुबल का सहारा, ये सब शर्मनाक है।

दरअसल अधिकांश सियासी दामन पिछले 77 वर्षों में दागों से भरे हैं। प्रतिपक्ष जिस लोकतंत्र व संविधान की रक्षा का तूफान उठाता है, वहीं मुख्य प्रतिपक्षी दल कांग्रेस के पास आपातकाल-1975 के पक्ष में कोई दलील नहीं। इतिहास की यही तो मुसीबत है कि वहां तथ्यों की इबारतें ‘लौहों कलम’ से दर्ज हो चुकी होती हैं। इसी प्रतिपक्ष के कर्णधारों से बाबा साहेब को किस तरह अपमानित एवं पराजित होना पड़ा था, वह भी वक्त की दीवार पर लिखा है। अब प्रतिपक्ष उन्हीं सवालों पर सत्तापक्ष को कटघरे में खड़ा करना चाहता है, जिन सवालों पर वर्ष 1975 से उसे कटघरे में रहना पड़ा है।

हमारे संविधान के पावन दस्तावेज के जनक बाबा साहेब को दो बार चुनावों में किसने हराया था? जिन बाबा साहेब को संसद में जनप्रतिनिधि के रूप में प्रवेश नहीं करने दिया गया, अब उनके नाम पर वोट-बैंक खड़ा करने के लिए मशक्कत में जुटे हैं। अब यह धक्कमपेल पुलिस थानों में पहुंच गई है और दिखाई यही दे रहा है कि यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। हमारे देश में बाबा साहेब की लगभग उतनी ही प्रतिमाएं लगी हैं जितनी गांधी बाबा की या शहीदे आजम भगत सिंह की।

हकीकत यह भी है कि हमारे इसी लोकतांत्रिक परिवेश में हमारे तत्कालीन नेताओं ने दो बार बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को संसद की दहलीज पर चढ़ने नहीं दिया। उन्हें दो बार लोकसभा के चुनाव में बुरी पराजय का मुंह देखना पड़ा था। दोनों बार बाबा साहेब के खिलाफ चुनावी रैलियों के प्रमुख वक्ता स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू थे।

भारतीय संविधान के निर्माता माने जाने वाले बाबा साहेब ने पहली बार 1952 में उत्तर मध्य बम्बई निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था। उनके खिलाफ कांग्रेस ने उन्हीं के निजी सहायक को खड़ा कर दिया था और उस शख्स नारायण काजरोलकर के पक्ष में चुनावी सभा को सम्बोधित करने स्वयं जवाहर लाल नेहरू भी उतरे थे। तब अम्बेडकर ने ‘बैनर’ के रूप में एक नवगठित पार्टी ‘​शड्यूल्ड कास्ट फैडरेशन पार्टी’ का प्रयोग किया था। वह पार्टी अभी मान्यता प्राप्त नहीं थी, इसलिए बाबा साहब को निर्दलीय ही माना गया था। उस चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी और हिन्दू महासभा ने भी अपने प्रत्याशी खड़े किए थे। तब उन्हें चौथे स्थान पर धकेला गया था।

इस पराजय ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था। उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस उनका सम्मान करते हुए उन्हें निर्विरोध जिताने का प्रयास करेगी। इस चुनाव से महज एक वर्ष पूर्व तक बाबा साहेब नेहरू मंत्रिमण्डल में कानून मंत्री के पद पर आसीन रहे थे।

उन्हें तोड़ने का सिलसिला वहीं नहीं थमा। वर्ष 1954 में वंडारा लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ। उन्होंने वहां से भी चुनाव लड़ा। मगर तब भी वह कांग्रेसी प्रत्याशी से ही हारे। पहली पराजय के बाद भी वह अस्वस्थ रहने लगे थे। इस दूसरी पराजय से तो वह बुरी तरह टूट गए थे। इसी अस्वस्थता के कारण 6 दिसम्बर 1956 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी। बाद में उनकी वे पुस्तकें भी प्रकाशित हुई जिनमें उन्होंने गांधी व नेहरू के राजनैतिक-चिंतन की कड़ी आलोचना की थी।

अब 58 वर्ष बाद उनके नाम पर जनाधार बटोरने का प्रयास वहीं लाेग कर रहे हैं जिन्होंने उनके संसद-प्रवेश का रास्ता भी अवरुद्ध कर दिया था। ऐसे महान महानायक के प्रति श्रद्धा का तकाज़ा तो यह था कि इन ऐतिहासिक गुस्तािखयों के लिए राजनेता खेद व्यक्त करते और उनकी आत्मा से क्षमा याचना करते लेकिन बाबा साहेब तो अपने जीवनकाल में ही ‘कैवल्य ज्ञान’ प्राप्त कर चुके थे।

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