नफरत में फंसे ‘आजम-हिमन्त’ - Punjab Kesari
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नफरत में फंसे ‘आजम-हिमन्त’

मेरे सामने मेरी मेज पर आज के कई अखबार रखे हुए हैं। इनमें से एक में खबर छपी

मेरे सामने मेरी मेज पर आज के कई अखबार रखे हुए हैं। इनमें से एक में खबर छपी है कि समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान को 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान नफरती बयान (हेट स्पीच) देने के अपराध में रामपुर की अदालत ने दो साल की सजा सुनाई है। दूसरे अखबार में खबर है कि असम के मुख्यमन्त्री हिमन्त विस्व सरमा ने तंजपूर्ण बयान दिया है कि उनके प्रदेश की राजधानी ‘गुवाहाटी’ में सब्जियों की महंगाई या ऊंचे दामों के लिए ‘मियां भाई’ अर्थात मुस्लिम समुदाय के लोग जिम्मेदार हैं क्योंकि शहर में इनका सब्जी के फुटकर कारोबार पर दबदबा है और मूल रूप से ये लोग पड़ोसी राज्य प. बंगाल के बांग्लाभाषी मुस्लिम हैं। सरमा ने असमी युवकों को आह्वान भी किया कि वे गुवाहाटी में आकर सब्जी आदि के कारोबार को अपने हाथ में लेने का प्रयास करें। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि किस दीवार पर जाकर अपना माथा फोड़ूं क्योंकि धर्मनिरपेक्ष भारत के एक राज्य का चुना हुआ मुख्यमन्त्री जब सरेआम भारत के ही दो समुदाय के लोगों के बीच खुले तौर पर घृणा या नफरत फैला रहा है तो उसके राज्य में कानून के शासन का क्या होगा?  आजम खान को तो अदालत ने घृणास्पद बयान देने के लिए दोषी करार देकर सजा सुना दी मगर हिमन्त विस्व सरमा के गुनाह के हिसाब का तहरीर उनके ही सूबे में कौन लिखेगा? आजम खान को उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ व रामपुर जिले की विधानसभा सीट ‘मिलक’ के चुनाव अफसर व जिलाधीश आंज्जनेय सिंह के खिलाफ जहरीला बयान देने की वजह से कार्रवाई हुई मगर मुख्यमन्त्री सरमा ने जिस तरह असम के अपने ही देश के एक विशेष धर्म के अनुयायियों के खिलाफ जिस तरह का जहर उगला उसकी सजा दिलाने के लिए आवश्यक कार्रवाई कौन करेगा? भारतीय संविधान के अनुसार इस देश के किसी भी राज्य का मुख्यमन्त्री केवल कानून का शासन लागू करने के विधान से ही बंधा रहता है। यदि मुख्यमन्त्री खुद कानून की धज्जियां उड़ाते हुए एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के खिलाफ भड़काने का कोई भी उपक्रम करता है तो कानून का हरकत में आना लाजिमी बनता है। श्री सरमा को मुख्यमन्त्री होने की वजह से कानूनी कायदों से छूट नहीं मिलती है और भारत का फौजदारी सजा जाब्ता कानून उन पर भी लागू होता है। वह किसी आर्थिक गतिवििध के लिए समाज के किसी एक समुदाय के लोगों को जानबूझ कर जब जिम्मेदार बताने की कोशिश करते हैं तो दो समुदायों के बीच आपसी रंजिश या दुश्मनी पैदा करने की साजिश रचते हैं अतः देश की न्यायप्रणाली को इसका संज्ञान स्वतः स्फूर्त से लेना चाहिए और श्री सरमा को बताना चाहिए कि संविधान में एक मुख्यमन्त्री के क्या कर्त्तव्य होते हैं। क्या सरमा अपने राज्य में यह व्यवस्था करना चाहते हैं कि बाजार के अर्थतन्त्र के विभिन्न हिस्सों में यह तय होना चाहिए कि किस वस्तु के कारोबार पर किस समुदाय के लोगों का हक होगा? 
21वीं सदी में क्या किसी राज्य का मुख्यमन्त्री केवल वोटों का बैंक तैयार करने के लिए इस हद तक नीचे गिर सकता है कि वह आम जनता के उपयोग में आने वाली जरूरी सब्जी पर भी धर्म या मजहब का ठप्पा लगाने की जुर्रत करने लगे। यह किस प्रकार की मानसिकता है जो एक समुदाय से दूसरे समुदाय की रोजी पर हमला करने की हिदायत देती है। जो मुख्यमन्त्री इस प्रकार की जहनियत रखता हो क्या वह जनता का प्रतिनिधि होने का हकदार हो सकता है ? यह प्रश्न देश की न्यायपालिका को ही अन्ततः तय करना चाहिए क्योंकि किसी भी राज्य में बहुमत के दल की सरकार गठित हो जाने के बाद वह सरकार राज्य के सभी लोगों की सरकार हो जाती है और मुख्यमन्त्री अपने प्रदेश के हर मजहब व जाति सम्प्रदाय के नागरिक का अभिभावक बन जाता है। उसका काम उनकी वैध रोजी-रोटी का संरक्षण करना होता है न कि एक समुदाय के लोगों की रोजी छीनने के लिए दूसरे समुदाय के लोगों को प्रेरित करना। संभवतः भारत में यह पहली घटना है जब किसी प्रदेश का मुख्यमन्त्री खुल्लमखुल्ला अपने ही राज्य के दो समुदायों के लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ उनकी रोजी ही छीनने के लिए उकसा रहा है। इसलिए न्यायपालिका का श्री सरमा के बयान का संज्ञान लिया जाना जरूरी बनता है लेकिन हर राज्य में राज्यपाल नाम का भी एक पद होता है। उसे भारतीय संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति नियुक्त ही केवल इसलिए करते हैं कि वह अपने राज्य में लोगों द्वारा चुनी गई सरकारों को संविधान के अनुसार चलते हुए देखे और जब भी उसे यह लगे कि मुख्यमन्त्री या उसकी सरकार संविधान की अवहेलना कर रही है तो खबर सीधे राष्ट्रपति महोदय को दे।  हम आजकल देख रहे हैं कि किस प्रकार राज्यपाल महोदय  कई राज्यों में अपने ही मुख्यमन्त्री के खिलाफ बात-बात पर फिक्रकशी से लेकर तल्ख हरकते करते रहते हैं जिसमें तमिलनाडु के आर.एन. रवि को तो महारथ हासिल हो चुकी है। इसलिए गुवाही के राजभवन में मौजूद राज्यपाल महोदय भी अपने राज्य में संविधान का पालन करते हुए अपने मुख्यमन्त्री को देखने की ​फिक्र जाहिर करें और राष्ट्रपति महोदय को रिपोर्ट भेजें कि श्री सरमा ने अपने एक बयान से भारत के संविधान में दर्ज विभिन्न प्रावधानों के किस तरह परखच्चे उड़ा कर रख दिये हैं लेकिन यह मामला सीधे न्यायपालिका द्वारा स्वतः संज्ञान लेने का भी बनता है और समूचे राजनैतिक जगत का एक स्वर से सरमा की इस हरकत का विरोध करने का भी।
 ‘‘हैरां हूं कि रोऊं या पीटूं जिगर को मैं 
  मकदूर हूं तो साथ रखूं नोहागर को मैं।’’

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